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हिन्दी कविता में नई दस्तक और सम्भावनाशील कवि - अमेय कान्त




अमेय कान्त  सिर्फ एक युवा कवि नहीं बल्कि बेहद भावुक संवेदनशील इंसान और संस्कारवान व्यक्तित्व भी है इसलिए जब वो एक कविता लिखते है तो एक समूचा संसार ऐसा रचते है कि अपने साथ उस सारी जमीन का भी जिक्र करते है जिसकी नुमाईंदगी वो करते है. अपने साथ बहुत बारीक विवरण, याददाश्त का पिटारा, मूल्य, संस्कार, और वो सब कविता में उकेरते है जो शायद एक चित्रकार अपनी तूली से एक खाली कैनवास पर उकेरना चाहता है और रंग- बिरंगी संसार रचता है और इस दौरान वो प्रयोगधर्मी भी होते है बार-बार नया रचते है और पुरी शिद्दत और ईमानदारी से उस संसार को हमारे सामने लाते है जो या तो विलुप्त हो गया है या बाजारवाद की चपेट में क्षणें - क्षणे ख़त्म हो रहा है. पर इस पुरी प्रक्रिया में कही हडबडाहट नहीं है, बाजार आपको उनकी कविताओं में झांकता नजर नहीं आता, ना ही वो कविता को बहुत लाउड करने के लिए कोइ "जार्गन" का इस्तेमाल करते है. इसलिए बहुत धीमे से वो कविता की दुनिया में प्रवेश कर रहे है. नया ज्ञानोदय, साक्षात्कार, वागर्थ और पिछले महीने में ही हंस में छप चुके अमेय कान्त पेशे से इंजिनियर है और उज्जैन के एक तकनीकी महाविद्यालय में प्राध्यापक है. 

हिन्दी साहित्य  के संस्कार उन्हें बचपन में पिता और हिन्दी साहित्य के महान उपन्यासकार और कथाकार डा प्रकाशकांत से मिलें, अपनी विदुषी माँ से शास्त्रीय संगीत की समझ मिली और किताबों की दुनिया में पले-बढ़ें और हिन्दी साहित्य की पत्रिकाओं से दो-चार होते आज अमेय कान्त हिन्दी के यशस्वी युवा कवि है तो कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा. उनकी कवितायें एक नईं जमीन की कवितायें है जहां तारे-सितारें है, धानी है, माँ है, संगीत है वो बहुत बारीकी से एक नन्हीं बच्ची के हाथों को हारमोनियम सुनते देख चिड़िया का फुदकना नहीं भूलते इसलिए प्रकृति और बिम्ब उनकी भाषा में बहुत सहज रूप से आते है वे आग्रह नहीं करते परन्तु उनकी कविता दोबारा पढ़ने और समझाने की मांग जरुर करती है, पाठक को एक ऐसे धरातल पर ले जाती है जहां पाठक अपनी दृष्टि को साफ़ करके फिर निस्संग भाव से उस कविता से एकाकार होना चाहता है और यह महसूसता है कि हर कविता का समीकरण हर बार एक नई समझ और परिपक्व "विजन" दर्शा रहा है जो अमेय की सफलता है. 

कल जब  हम लोग देवास में अमेय की कविताओं का एकल पाठ सुन रहे थे तो एक बारगी अमेय शुरू में थोड़ा झिझके क्योकि उनके पिता और वरिष्ठ सर्जक डा प्रकाशकांत, ब्रजेश कानूनगो, बहादुर पटेल, सत्यनारायण पटेल, डा सुरेश पटेल, डा सुनील चतुर्वेदी, संजीवनी ताई, जीवन सिंह ठाकुर, अमिताभ मिश्र, मधु भाभी, पारुल, मनीष वैद्य, श्रीकांत, तितिक्षा और भी पारिवारिक मित्र और साहित्य से जुड़े लोग बैठे थे, परन्तु बाद में वे दो तीन कविताओं के बाद सहज हो गए और फिर एक ताल में कविता को यूँ सुनाने लगे मानो एक सिद्ध हस्त गायक राग यमन से शुरू करके तीन ताल, विलंबित ख्याल से होकर शास्त्रीय संगीत से सारे राग, तोड़ी, ध्रुपद, दादरा और सब सुनाता है और जब  मंच पर भैरवी गाता है तो श्रोता सुनने के क्रम में इतने मशगुल रहते है कि वे भूल जाते है कि महफ़िल लूटकर कोई ले जा चुका है. मन्त्र मुग्ध से उठते हुए यह दर्द सताता है कि संगीत का यह अनहद नाद क्यों अपने पूर्णता पर आ गया. 

अमेय एक  होनहार कवि है और जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि वे बगैर शोर किये हिन्दी में प्रवेश कर चुके है और यही शांति और चुपचाप की आगत उन्हें हिन्दी कविता में एक लंबा सफ़र तय करने में मददगार साबित होगी. कुछ कवितायें अभी ऐसी है जो उनके लिए भी एक चुनौतीनुमा है जिससे वे बार बार लड़ रहे है परन्तु यही उन्हें एक गंभीर और संभावनाशील बनाएगा. 

अमेय के  लिए शुभकामनाएं और बहुत उम्मींदे कि वे अपने संस्कारों को एक नई दिशा देकर हिन्दी की कविता को सार्थक, सामर्थ्यवान, सशक्त और शाश्वत बनायेंगे.



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