अनिल बोर्दिया, अरुणा राय, विजयदान देथा ये तीन वो लोग थे जिन्होंने मिल-जुलकर कई ख्वाब बुने थे और मजेदार यह था कि तीनों अलग अलग काम करते थे और अलग क्षेत्रों के थे. जब भी लोक जुम्बिश और कालान्तर में दूसरा दशक की कार्यशालाओं में जाता तो अनिल बोर्दिया के साथ बिज्जी अटैचमेंट के रूप में हमेशा जरुर रहते और कथाओं और प्रसंगों से सामाजिक बदलाव की बातों को इंगित करते, अरुणा, अनिल और बिज्जी ये तिकड़ी घंटों लम्बी बहस करती. बन्कर, शंकर और किसान मजदूर संगठन के साथी और हम भी भी लगे रहते पर कई बार बहस तीखी होने पर बिज्जी ही थे, जो सबको समेट कर रखते.
लोक कथाओं को माध्यम बनाकर उन्होंने ना मात्र एक बड़े वृहद् समाज, जो समता मूलक था, की रचना की, बल्कि आख़िरी दम तक उसी बहुत अभाव और शोर शराबे से दूर वाले संस्थान में ज़िंदा रहे. मैंने साहित्य में लोक, लोक चरित्रों और मिथकों का जो प्रयोग "बदलाव" के लिए करते बिज्जी को देखा है वह दुनिया के किसी भी भाषा में शायद ही मिलेगा.
आज अनिल बोर्दिया नहीं है और अब बिज्जी का जाना, इस बीच परमानंद श्रीवास्तव, राजेन्द्र यादव का जाना हिन्दी का बड़ा नूकसान है. समझ नहीं आता कैसा विचित्र समय है.
बिज्जी के कथा संसार और खासकरके उनके लोककथाओं में फैले बिम्बों और उपमाओं के बहाने एक नए समाज का स्वप्न, निर्माण और उसे पूरा करने के लिए अंतिम सांस तक लगे रहने वाले बिज्जी को आख़िरी नमन.
आज बहुत पुरानी स्मृतियाँ एकाएक ताजा हो गयी- बीकानेर से लेकर लुनकरणसर, गढ़ी, सागवाडा, तिलोनिया, जयपुर, भीलूडा, डूंगरपुर और ना जाने कहाँ कहाँ के स्थान याद आ गए जब हम घंटों बैठकर पाठ्यक्रम भाषा और बदलाव की बातें करते थे, और फिर देर रात तक उन्ही के मुंह से लोककथाएँ सुनते थे.
पता नहीं इस साल के अंत तक और का क्या सुनना और देखना बाकी है अभी........
बिज्जी आप कही नहीं गए है बस उठकर यूँही टहल रहे है शायद और आकर फिर कहेंगे कि अच्छा सुनो राजस्थान में एक कथा है.............बंद करो अपनी फ़ालतू बातें !!!!
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