निकले तों वो भी जैसे मै निकला था जल्दी और बेहद हडबडी में बस फर्क ये था कि मै एक बड़ी बस में था और वो एक छोटी सी कार में, मेरे साथ यात्रियों का एक बड़ा जत्था था और वो दोनों बिलकुल अकेले, जाहिर है कभी साथ रहने की कसमें खाई होंगी- सो साथ ही थे, मै निपट अकेला और साथ में ढेरों अनजान यात्री जों सिर्फ एक मानवीय मुस्कराहट से एक दूसरे को भरोसे से देख रहे थे, कभी बस कही रुकती तों अपने सामान को पड़ोसी के भरोसे छोडकर उतर जाते और फ़िर लौट आते और नज़रे बचाकर सामान टटोल लेते कि सब ठीक ठाक है ना...........कभी बस आगे, कभी कार आगे........सरकार नामक तंत्र में फंसे हम सब लोग सडकों को कोसते और रोते- धोते अपने निर्धारित गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे. सडकों के गड्ढों और ट्राफिक के दर्द में समझ नहीं आ रहा था कि किसको, कहाँ जाने की ऐसी क्या जल्दी थी कि बस- सब हरेक से आगे निकल जाना चाहते थे और फ़िर कई बार ऐसे क्षण आये पूरी दुर्गम यात्रा में कि अब गये कि तब गये, पर कुशलता भी कोई चीज होती है यार, सबके भरोसे पर वो बस का चालक फिट ही था और हर बार हर बड़े दचके से उबार लेता था आगे- पीछे या साईड से बस निकालकर, वो यात्रा के उद्...
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