इस समय स्थितियां गम्भीर होती जा रही है, हम लोगों के पास करने को कुछ बचा नही है, हम या अपने आसपास के लोग जो भी कर रहें है वे मात्र समय गुजारने और अपने आपको व्यस्त रखने के लिये कर रहें हैं - दिखावटी, रोज़ी रोटी के लिए, अपना pseudo वर्चस्व जीवित रखने या अपने आपको अन्य से श्रेष्ठ बताने के लिये, साथ ही एक छदम आवरण बनाकर हम अपना ही नुकसान कर रहें हैं
ना कुछ नया सृजन हो रहा ना ही नया कुछ लिखा - पढ़ा जा रहा है, सब एक तरह का imitation है, यानी की नकल की जा रही है, सुभीता यह है कि अब कॉपी पेस्ट और कृत्रिम होशियारी (AI) से लिखने और अनुवाद का या चित्र बनाने या कल्पना करने का भी सुख पाना भी मात्र चंद सेकेंड्स का इंतज़ार है बस और आप शिखर पर है, यह ठीक वैसा ही है जैसा आप कहें कि मैंने नया शर्ट लिया है - हे इंसान शर्ट की कल्पना लाखों वर्ष पुरानी है - यह तन ढँकने का एक माध्यम है तो नया कहाँ से हुआ, तुमने किसी कपड़े से अपने नाप का सिलवाकर अपने उघड़े तन को ढँका - वह तुम्हारे लिये नया होगा पर वह मूल रूप से नकल है imitation है उस प्राच्य परम्परा की - इसमें तुम, कपड़ा और शर्ट नया कहाँ से हो गया
ऐसे में किसी से प्रभावित हुए बिना यदि आप अपनी रचनात्मकता और कुछ करने की जिजीविषा बनाये रख सकतें हैं और सच में कुछ नया कर सकते है तो वही करिये बाकी सबका कोई अर्थ नही है
वर्चस्व, श्रेष्ठता बोध, स्वयंभू ज्ञाता, भाषाओं की प्रवीणता, हर मुद्दे और विषय में पारंगत होने और स्वयं को जोड़-तोड़ एवं जुगाड़ से निपुण बनाकर दूसरों को खारिज करने की प्रवृत्ति यदि कही पनप रही है, या बोनसाई बनकर अब वटवृक्ष होना चाहती है तो यह घातक है - अपने लिये ही नही वरन समाज के लिये भी
सबसे निजात पाकर जो कुछ भी थोड़ा बहुत करने को बचा है - वह कर लें यही पर्याप्त है, दिखावा करने वालों और सफलता के सर्वोच्च शिखरों पर आसीन बैठे और 'अहम ब्रह्यास्मि - दूजो ना भवो' के भाव से ग्रसित लोगों से दूर रहकर अपने में मगन रहो - यही रास्ता है
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IV814
कंधार हम सबकी सामूहिक विफलता थी और उस पर अब बात करना बेमानी इस सन्दर्भ में है कि कश्मीर से लेकर छग और मणिपुर से लेकर दण्डकारण्य के इलाके सुलग ही रहें हैं - आप आतंकवाद कह लें या नक्सलवाद या कुछ और पर आम इंसान आज भी परेशान ही है
"आर्टिकल-15" के निदेशक अनुभव सिन्हा याद है ना, और इस फ़िल्म की कहानी गौरव सोलंकी ने लिखी है, जो IIT रुड़की से पढ़ा है और उसे पहले से चौथे वर्ष तक लगातार कमरे में पढ़ते देखा है, अनुभव मासूम भी नही है यह भी ज्ञात है हमें
बेहतर है कि आप नेटफ्लिक्स के सदस्य है तो चुपचाप मनोरंजन समझ कर देख लीजिये और प्रश्न या समीक्षा मत ही कीजिये, कमाल यह है कि जिसे 1999 का यह वाक्या याद है उसे क्या समझना और समझाना और जिसे स्मृति दोष है उसे परोसने का कोई अर्थ नही, देश भयानक किस्म की देशभक्ति में डूबा हुआ है और इस तरह की सीरीज़ और कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों का फ़ायदा किसको होता है यह साफ़ है
ख़ैर, ज्ञान नही, हम सब शातिर, चतुर और घाघ है , अभी सीरीज़ खत्म की और मैं तो नाम भूल गया, बस पुराने कलाकारों को ब्लैक एंड व्हाईट में देखकर खुश हूँ कि पंकज हो, नसीर या दीया मिर्ज़ा, विजय वर्मा, अरविंद स्वामी, कँवलजीत, मनोज पाहवा, सुशांत, यशपाल, पूजा गौर, अमृता पूरी, कुमुद मिश्रा, आदि को देखकर मज़ा आया, क्या कलाकार थे मंजे हुए और इतना स्वाभाविक अभिनय कि यकीन ही नही होता कि ये कोई धारावाहिक या फ़िल्म कर रहे हो - हमलोग हो या करमचंद, बहरहाल, इनके लिए जरूर देखें यह सीरीज़
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