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सुनहरा अवसर ना चुके
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हम सब मनुष्य है - जितने बहादुर उतने ही डरपोक, गुफाओं और कबीलों से निकलकर अपने लिए हमने तमाम तरह की सुविधाएँ जुटा ली, अभेद्य किले बना लिए, बावजूद इसके हम हर पल डरते हैं
डरते हैं - आगत से, अनुतोष से, प्रतिफल से, अशेष संभावनाओं से, अपने उज्ज्वल भविष्य से, अपने अतीत से जो गुज़र चुका है, भविष्य से जिसके गर्भ में क्या है नही पता, वर्तमान से जो सांसों में धड़क रहा है, डरते है तो मृत्यु से जो कभी भी दबे पाँव आकर दबोच लेगी, अपने यश और कीर्ति से कि कही कोई छीन ना लें, धन वैभव और सुखों से डरते है कि हम इन्हें खो ना दें जबकि ये सब तो क्षणिक है और इन्हें खत्म होना ही है
हम सबके इन दहशतों और डर से बचने के अपने - अपने तरीके है या यूँ कहूँ कि एक तरह का specific defence mechanism है और इसे हम सब अपने अपने तईं विकसित करते है, संरक्षित और संवर्धित करते है, अपनी सीमाओं को पहचानकर बाँधते है और कम्फर्ट ज़ोन बनाकर सीमित करते है ताकि हम डरें नही पर डर जाता है क्या कही
पर इस सबके बाद भी ना डर खत्म होता है ना दहशत और डरे हुए हम इतने दब जाते है कि घर, दफ़्तर, सड़क, नदी, पहाड़, समंदर और प्रकृति से भी डरने लगते है, हद तो तब होती है जब अपने ही जैसे मनुष्य मात्र से भयभीत होने लगते है और इस सीमा तक पहुंच जाते है कि किसी घटिया लिजलिजे मनुष्य की चापलूसी करने लगते है, इस विराट संसार का भान ही नही रहता हमें और हम अपनी प्रसन्नता किसी और के हाथों में सौंपकर हर समय डर और ख़ौफ़ के साये में जीने लगते है
यह हमारी सफलता नही बल्कि विषम परिस्थिति है, मनुष्य बल और दृढ़ इच्छा शक्ति ही हमें इस डर से उबारेगी - बस अपने defence mechanism को एक बार पलट दें, डर का प्रतिकार करें और जीवन को खुलकर जीयें, क्योंकि सारे सुचिंतित प्रयास करने के बाद एषणायें तो रहेंगी तो फिर डरना कैसा और किससे, जीयो जी भरकर
अकेले पैदा हुए थे और अकेले ही अनन्त यात्रा पर निकलेंगे तो साठ सत्तर बरस के इस पड़ाव पर इस सराय में रहते हुए डर क्यों और किसका है , "जिसने दाँत दिए वो खाने को भी देगा" - पिताजी समझाते थे, इसलिये निडर हूँ और अपनी बात साफ़गोई से कहता हूँ और अपने आप पर भरोसा रखता हूँ
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हिंदी के आयोजकों को दूसरे शहर - कस्बों से अब ना तो 65-68 पार कवि, कहानीकारों को किसी आयोजन में बुलाना चाहिये और ना ही कोई पुरस्कार देना चाहिये
हिंदी के ये लेखक बहुत लालची और आत्ममुग्ध है, इन दिनों जो अपनी कविता या कहानी पाठ के लिए या 11/- ₹ नगदी का इनाम लेने स्वर्ग - नरक तक जा सकते है, मुफ्त की होटलें, दारू और यारबाशी करने अपने लग्गू-भग्गू के साथ नकली वेताल बत्तीसी लेकर हर कही पहुँच जाते है, साला हर कार्यक्रम और किसी के भी क्रियाकर्म में इनके चेहरे और पिछले जन्म की बेसिर पैर की कहानी - कविता या घटिया किस्म की आलोचनाएं सुनकर हिंदी जगत पक गया है
इनके नखरे झेलो, साथ ही इनके साथ आये अनिल, सुनील, दिनेश, महेश, सुरेश, पतझड़, फाग, चैत, सावन, भादो, वसंत, बहार और पाँचवे मौसम प्यार को अलग भाव दो, या स्थानीय स्तर पर इकठ्ठी हुई बूढ़ी तितलियाँ, हिंदी की मास्टरनियों के झुण्ड जिसमें अंजू-मंजू, गीता-सीता, अनिता-सुनीता, आदि वैश्विक यौवनाओं को जबरन झेलो, जबकि ये लग्गू-भग्गू और हवाई सुंदरियां दो वाक्य माईक पर सही बोल नही पाती और अंत में होता क्या है - सिवाय निंदा पुराण और खेमेबाजी के - एक नया गुट खड़ा हो जाता है और बाद में ये कंकाल भेरू पहचानते भी नही आयोजकों को दूसरी बार मिलते है जब, अपने शहर में किसी के आने पर घर दिखाना दूर ये उपयोग की हुई सिगरेट का फ़िल्टर भी नही देते कि सूंघ लें कोई
बेहतर है इन्हें घर में रहने दो, बहुत नाम, यश, कीर्ति और धन कमा लिया, पर्याप्त किताबें है - शोधार्थियों के लिये और वैसे भी हिंदी विभाग के लीचड़ माड़साब लोग्स तो तुलसीदास, प्रेमचन्द्र, रांगेय राघव, निराला, ग़ालिब, रघुपति सहाय, मुक्तिबोध या कुँवर - केदार के आगे बढ़े ही नही - क्योंकि इन्हें नया पढ़ना नही और सीखने का काम करना नही, जो है उसको ढोते रहो और रिटायर्ड हो जाओ दो ढाई सौ किताबों का कूड़ा छपवाकर - आख़िर कब तक इन वयोवृद्ध जन को पुरस्कार देकर इनकी निकम्मी औलादों को पालने का ठेका लेते रहोगे गुरू
इसलिये बेहतर है कि इन्हें वीआईपी ट्रीटमेंट देना बंद करो, बुलाना बन्द करो, पुरस्कार देना बन्द करो, हवाई जहाज और फाइव स्टार होटलों का सुख देना बंद करो - कब तक इनके पोतड़े धोते रहोगे - श्रद्धा, सम्मान और आस्था अपनी जगह, विश्वास - भरोसे और यारी दोस्ती अपनी जगह, और व्यवहारिक जीवन अपनी जगह, अपने बाप - माँ या सास - ससुर या परिवार के बड़े बूढों को सम्मान दे दो वही बहुत है गुरू
यह सबकी भलाई के लिये ही लिख रहा हूँ, अपने शहर और अपने घर बैठकर रचें और ख़ुश रहें, यात्राएँ करने लायक रही नही - अब रेल हो या हवाई
बाकी सब चकाचक
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बड़े डॉक्टर्स से ज़्यादा बदतमीज उनके सहायक होते है जो बाहर बैठकर मरीज़ों के साथ फालतू की बहस करते है, निर्धारित दिए गए और सही समय पर जाने के बाद भी अपने परिचितों को अंदर भेजते रहते है और सवाल पूछने पर घटिया व्यवहार करते है
दुर्भाग्य पर यह कड़वा सच है
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