गणेशोत्सव के दस दिनों में मैंने अपने जैसे इतने बेसुरों को मुकेश, रफ़ी, शानू, अर्जित, लता, आशा, मन्नाडे, हेमन्त कुमार, किशोर कुमार , अनुराधा पोडवाल से लेकर तमाम गायकों को रानू मण्डल की तरह गानों और संगीत की हत्या करते देखा मंच पर - भयानक भौंडी आवाज़ में कि गाने और सुनने की इच्छा ही खत्म हो गई, आयोजकों को अल्लाह मुआफ़ नही करेगा और तो और कराओके और स्टार जैसे एप बनाने वाले नर्क में ही जायेंगे
अब आठ दस दिन बाद गरबे के नाम पर विश्व के श्रेष्ठ नर्तक और नर्तकियाँ सड़कों पर उतरेंगे और नृत्य की हत्या करेंगे
उठा ले रे बाबा, उठा ले
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इधर इंस्टाग्राम पर अलग ही टशन है
◆ ये ज्यूस, वो ज्यूस कि लीवर, फेफड़े, किडनी, हार्ट, दिमाग शुद्ध हो जाये de-toxic हो जाये , नपुंसक हो तो बच्चा भी हो जाएगा, मल्लब ये सब घरेलू नुस्ख़े आजमा लो तो डॉक्टर की जरूरत ना है, बन्द कर दो मेडिकल कॉलेज और एम्स - साला, कायकूँ टैक्स का रुपया लगाने का जब शुगर और CRF लहसन, प्याज और तेजपत्र से ठीक हो रही, कैंसर काली मिर्च और कलौंजी से खत्म हो रहा, आप तो बस रील्स देखो
◆ विज्ञान, भूगोल, नागरिक सास्त्र, अंतरिक्ष विज्ञान,और गणित से लेकर सारी भासाओं की सिक्छा भी जही हेंगी - मैं तो के रियाँ इस्कूल बी बन्द कर दो ख़ाँ साब, बस रील्स दिखाओ सबकूँ
◆ खाने के इतने व्यंजन घर बन जाते है झट से कि मेहनत की जरूरत ना है, सब सस्ता है और घर में है - फ्री में - पनीर हो या बकरा चिकन - बस रील्स देखो आप तो
◆ ओशो से लेकर आशाराम, और गोपाल से लेकर श्री श्री जैसे तमाम ज्ञानी जीवन सरल बनाने की सलाह दे रहे, योग भी देखकर ही कल्लो, बवासीर से लेकर कब्ज़, जुकाम, कैंसर तक सब ठीक होगा - बस आप रील्स लाइक मारो
◆ मोबाइल, इंटरनेट से लेकर पासवर्ड की समस्या का इलाज रील्स में है , सब सर्विस सेंटर बन्द कर दो सारी कम्पनियों के
◆ एक्सेल हो या वर्ड, PPT हो या AI सब रील्स में है - आप क्यों IIT या ITI कर रहे हो रील्स देखो बस
◆ कविता हो या शायरी, कहानी हो या सड़ानीरा - हिंदवी टाईप घटिया पोस्टर, सुंदर कवि हो या हैंडसम कवयित्री, किताब बेचना हो या प्रचार करना हो - बस रील्स देवो भवो:
◆ मल्लब, कुल मिलाकर राजनीति से लेकर सारी समस्याएं और इनका हल घर पर ही उपलब्ध है रील्स में, शादी ब्याह से मरने और गया में श्राद्ध तक - आप तो बस बगैर नागे के रिचार्ज करवाते रहिये 900 ₹ का और घर में रहकर स्वर्ग का रास्ता खोजिये
◆ चित्रकला हो या मूर्ति कला, विदेश घूमना हो या ट्रेकिंग करना हो, कबड्डी खेलना हो या वाटर स्कीइंग करना हो, कायकूँ जा रहें बाहर, रील्स देखो मजे करो बस
◆ ब्याव के लिये लड़का - लड़की की खोज, पिरेमि - पिरेमिका सम्बाद के लिये या तलाक के लिए वकील या भरणपोषण भत्ते के लिये सुप्रीम कोर्ट के जज से लेकर दो कौड़ी से लाख कौड़ी के वकील साब भी उधर इज हेंगें ज्जे फ्री में नया BNS समझा भी रिये है
तो सुनो केना ये है कि अपुन आजकल फेसबुक जैसे वृद्धाश्रम पर नही - जवान, धड़कते, मचलते और उद्दाम वेग से चल रिये और तेजेस्ट उफान पर दौड़ रिये इंस्टाग्राम पर हेंगें - जिधर विदेशी माल भी फिरी में है और कोई साला इस्क्रीन शॉट डालकर इज्जत का फालूदा नई बनाता है
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On a serious note - हद है मल्लब
#दृष्ट_कवि
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95 % कवि, कहानीकार, साहित्यकार, आन्दोलनजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता और तथाकथित प्रबुद्धजन विशुद्ध रूप से आलू है - कभी भी, कही भी, किसी भी जगह, किसी भी समय, कैसी भी जगह, और किसी भी आयोजन में ज्ञान बाँटते मिल जाते है जबकि कुल मिलाकर उनके पास एक ही बैसाखी होती है जिसके सहारे हर लंगड़ी दौड़ में अपना और अपने कुल का नाम डुबोने चले जाते है, तन मन और धन से पोलियो ग्रस्त ये लोग इतने कुटिल और घाघ है कि इन्हें बस सौ मारो और एक भी मत गिनो
कान्वा या इन शॉर्ट्स पर स्वयं को अतिरंजित करने वाले आत्म मुग्ध होकर बनाये खुद के पोस्टर यहाँ - वहाँ चैंपकर अपने छर्रों के बीच बाँटते रहते है और हर जगह वही माल इस्तेमाल कर घूम आते है, कमाल यह है कि एक ही दिन में तीन जगह ज्ञान पेलने के विज्ञापन चस्पा कर देते है, रायपुर, छतरपुर और कानपुर एक ही दिन में तीन जगह - अबै परम सुतिया कुमार किसको बना रियाँ है और तो और इन्हें साढ़े सात रूपये नगद का पुरस्कार और मूर्ख वाचस्पति की उपाधि टाईप कोई प्रमाणपत्र दें तो ये अंडमान तक दौड़े चले जायेंगे फिर वहाँ जाकर भले ही अस्पताल भर्ती हो जाये , विवि के माड़साब लोग्स में यह प्रवृत्ति और पुनरावृत्ति ज़्यादा है
अब न तो इनके विवरण पढ़ता हूँ और ना ही शाबाशी देता हूँ और ना ही ऐसे किसी स्वर्गिक यात्रा में जाकर अपनी जेब कटवाता हूँ, चार उच्चके मिलकर कोई रैली, धरना या आयोजन करते है और दूर से किसी भड़भूँजे को बुलाकर खुद अमर हो जाने की इनकी चाह गज्जब है मतलब , अपने मुहल्ले में यह बन्दा दस ठगों को मिलाकर [ जिनमे दो पूर्व और एक वर्तमान की नखरैल माशूका है - जो सात रुपये वाला गोदरेज डाई लगाकर बाल काले करके आती है और किसी प्राईवेट स्कूल में बिज्ञान गणत पढ़ा रही होती है या 70 - 80 बच्चों के स्कूल की मालकिन होती है ] को संग-साथ रखकर आयोजन कर लेता है, इस विदूषक को देखना मतलब हास्यास्पद स्थिति को देखना है पर ये परम चमन बहार इतना भी नही समझते कि जनता को सब समझ आ रहा है
बहरहाल, जय गणेश
#दृष्ट_कवि
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धारा 497 यानी जारकर्म [पूर्व के भादवि में] सुप्रीम कोर्ट ने अपराध की श्रेणी से हटा दिया था 27 सितंबर 2018 को, जिस दिन धारा 377 को अपराध से बाहर रखने का फ़ैसला आया था और अब नए BNS में भी यह अपराध नही है
शुक्र है , इसलिये अब पति या पत्नी बेधड़क अपने Spouse को प्रेमी के पास छोड़कर आ सकते है और ढेर कविताएँ भी पेल सकते है - घर से निकलकर वापिस घर आने तक की
हिंदवी या सड़ानीरा वाले चम्पादकगण इस बात का संज्ञान लेकर खूब छापे इस सबको शानदार चित्रों और रेखांकन के साथ और यारियाँ बढ़ाएं सबसे
#दृष्ट_कवि
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गज्जब है हिंदी का स्वर्गलोक और नर्कलोक
बहरहाल, नतीज़ा तो निकलेगा नही पर लाठी भाँजने में सब आगे है और नींबू, मिर्च और घी लगाकर लोग मैदान में है, जबकि होना यह चाहिये कि इसे प्रेम, देखभाल और वयस्कता के बरक्स समझा जाये
ये अलग बात भी है कि किसी प्राइम वीडियो के डायलॉग को कविता में हूबहू ढालकर मुकम्मल कविता कर देना क्या नकल की श्रेणी में आता है या चोरी की पर सवाल इससे बड़ा है कि अब स्त्री बनाम पुरूष का मामला बन गया है और इससे ना मात्र रोल अदायगी, शारीरिक नख - शिखों का भद्दा विवरण बल्कि जेंडर और पितृसत्ता के नए आयाम भी खुलेंगे
मेरे लिये तो इंतेहा तब होगी जब कोई एमए, एमफिल या पीएचडी का विद्यार्थी इस सबको समेटकर किसी अर्ध विक्षप्त माड़साब के साथ अपनी थीसिस लिख दें और सिद्ध कर दें कि कौन सही है
भगवान भला करें, बहरहाल गेस्ट्रोलॉजिस्ट और बवासीर, मधुमेह और बीपी के डॉक्टर्स के लिये सुनहरा मौका है, दोनो कविताओं को अपने क्लिनिक में जड़वाकर लगा दें और मनोवैज्ञानिक नये मुर्गे - मुर्गी इस बहाने से तलाश करें - इस तरह की जीवंत अनुभव वाली कविताओं का दौर हिंदी के इस सोशल मीडिया युग में अमर और अजर रहेगा, गुदा और गूदा का दौर भी हम किस्मत से देख ही चुके है, ऑर्गेज़म से लेकर स्त्री-पुरूष के जनांनागो को लेकर हिंदवी का योगदान अतुल्य है ही और इनके सम्पादकों को पूरी निर्लज्जता के साथ एक दिन बुकर और नोबल तो नही पर साहित्य अकादमी ज़रूर मिलेगा - लिखकर रख लें
दुश्मनों को कविता एक करती है यह भी एक हासिल है कविता का
आमीन
#दृष्ट_कवि
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"गुरू की करनी गुरू जानेगा"
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एक किताब याद आती है जिसमे शुरूवात थी कि "शिक्षक, वेश्या और पादरी वो लोग है जिनके पास कोई चला जाये तो इन्हें खुशी नही होती और कोई इनसे दूर चला जाये तो इन्हें ग़म नही होता"
संसार में इस समय सीखने - सुनने वाले बहुत कम बचे है और सिखाने वाले ज्ञानी जन और धाराप्रवाह सदियों तक बोलने वालों की सँख्या ज्यादा है
ये सब ज्ञानीजन रोज - रोज इतना बोल रहे हैं और सीखा रहें है कि सीखने और सुनने के अर्थ ही बदल गए है, हर कोई कुछ ना कुछ सिखाना चाह रहा है, अपने ज्ञान से दुनिया को समृद्ध करना चाह रहा है - बस कोई झपट्टे में आ भर जायें, ईश्वर भी इनसे, इनकी वक्तव्य कला और सिखाने के जोश से आज़िज आ चुका है
दिन में आने वाली 50 मेल और 50 वाट्सएप्प संदेशों में 90 % तो ज्ञान बाँटने वालों के होते है - ऑनलाईन, प्रवचन, सेमिनार, वर्कशॉप, स्लाइड शो, गोष्ठी, मंथन, विचार गोष्ठी, ज्ञानदान, मोटिवेशनल स्पीच, पुस्तक चर्चा, मनोरंजन के नाम पर भड़ास पेलने वाले कुख्यात ज्ञानी, देश - विदेश के शिविर और जगत गुरुओं के व्याख्यान - मेरा सिर्फ़ इतना सा सवाल है कि श्रोता, दर्शक, पाठक कहाँ है इन सब विद्वान और विदुषियों के लिये, मतलब हद यह है कि किसी कलाकार की जन्मशती है या कवि की तो भी लोग तो पेल ही रहें है मज़मा जमाकर, पर उनके परिजन भी जमकर धँधा कर रहे मरे - खपों के क्रियाकर्म को परोसकर दुनियाभर में रायता फ़ैला रहें है - सब समझ रहे पर बोलता कोई नही, सब सौजन्य से खुश रहते है
हद यह है कि 21 साल का युवा दो कौड़ी की पत्रकारिता कर बैठा है किसी गली - मोहल्ले से और वह यूट्यूब खोलकर या इंस्टाग्राम पर ज्ञान बांट रहा, खुद के अश्लील फोटो की दुकान परोसकर फॉलोवर्स बढाने वाला अय्याश कवि नैतिकता पढ़ा रहा है, कॉपी - पेस्ट लेखक जिसका अपना घर नही सम्हल पाया और दूसरे के घर उजाड़कर घटिया कामों में लिप्त है - वह देश की राजनीति की दशा और दिशा सम्हालने का ज्ञान पेल कर ठेका ले रहा है, भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट धर्म, साहित्य और फूड फेस्टिवल में भीड़ जुटाकर अपनी परम विद्वता झाड़ रहा दुनियाभर को इकठ्ठा करके, तीन - चार महिलाओं से अवैध सम्बंध रखने वाला व्यक्ति जेंडर समता की बात कर रहा, दलित - वंचितों के घर ना जाने वाला और घृणा करने वाला उन पर कहानियाँ लिखकर रोज नगद पुरस्कार बटोर रहा है और एक छद्म रचकर पूरी दुनिया को बेवकूफ बना रहा है, दुकान चलाने वाले ग्लोबल खतरों और बाजारीकरण के लेक्चर दे रहे है और सीरीज़ सुनने के रुपये ऐंठ रहे है, कब्र में लटके बूढ़े देशभर में ज्ञान के नाम पर साहित्य में रुपये बटोरने का नँगा खेल खेल रहें है और मज़ेदार यह है कि "ये सब जानते है कि ये क्या कर रहें है"
इसलिये हमें अब ना शिक्षकों की ज़रूरत है और ना ही सम्मान करने की और शिक्षक दिवस जैसे बेमतलब के उत्सव अब महज ढकोसला है - बेहतर होगा कि यह प्रपंच अब बन्द कर दिए जाएं
वैसे भी 77 वर्षों में हमने सिर्फ़ एक ही राधाकृष्णन को पूजा है , होना तो यह चाहिये था कि जगत गुरुओं के देश में हर सेकेंड एक शिक्षक के नाम समर्पित होना था, इन 78 वर्षों में "शिक्षक अपना दायित्व समझता" तो आज यह देश बेरोजगार, साम्प्रदायिक, भ्रष्ट, गैर बराबरी वाला, हिंसक, पतित, परजीवी, जाहिल, अंधविश्वासी और गंवारों का देश ना होता
अपने 39 वर्षों के अनुभव पर कह सकता हूँ कि आज के सोशल मीडिया के समय में जब पीआरटी से लेकर विवि के विभागाध्यक्ष 24×7 इंस्टाग्राम, फेसबुक, वाट्सएप्प पर पिले पड़े है, पढ़ने - पढ़ाने के बजाय, तब इन सबकी ज़रूरत नही है, इन्हें गुरू होने के दायित्व को छोड़ देना चाहिये अब ज्ञान के लिये इन पर कोई मोहताज नही
बहरहाल, ज्ञानियों बाज़ आओ और शिक्षक दिवस मनाना बन्द करो, काहे हार, फूल - पत्ती, पेन, कॉपी और गिफ्ट बटोरने के लिये पढ़ाने के बजाय दिनभर मक्कारी में लगा देते हो
#खरी_खरी
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खुशियां थी बड़ी - बड़ी और दुख थे इतने छोटे कि दिखें ही नही कभी, न कभी इतनी फुर्सत थी कि पलटकर देखते - विचारते और इनसे निजात पाने की कोशिश करते, जीवन फैलता गया ऐसे - जैसे ठहरे हुए पानी मे कंकर फेंको तो लहरें फैलती रहती है और विलीन हो जाती है क्षण भर में
जीवन के उत्तरार्ध में जब कंकर फेंकने वाले बढ़ गए तो दुख विस्तार से आकर बस जाते और फिर कभी कही नही जाते, ऐसे में जब छोटी खुशियाँ भी कभी आती तो अवसाद और तनाव इतने सघन होते कि ये दिखती ही नही और कपूर की भांति उड़ जाती, मानो दुःखों को पहरेदारी करते देख सुख उल्टे पाँव लौटते और चमगादड़ों की तरह से अँधेरों में घूम फिरकर किसी किले में बन्द हो जाते
धीरे-धीरे सब कुछ खत्म होता गया, निर्भीकता, तटस्थता, जिद, अकड़, सत्यनिष्ठा और फिर सब छोड़ भी दूँ तो एक अजीब सनक में आकर हम सब छोड़ देते है और अपनी ही धुन में चलने लगते है - यही से सफ़र शुरू होता है जिसका कोई ठौर नही होता, हम दो कदम बढ़ते है पर दो सौ योजन पीछे हो जाते है
सुख - दुख के परे एक और संसार है, धरातल है, वास्तविकता है और इसमें वो सब है जो कोई कभी नही चाहता पर सबको वो सब करना पड़ता है - जिसे व्यवहार और सामाजिकता कहते है - और जो इसी भेष में रहकर भी अपना जीवन जी लेते है वो कबीर, तुकाराम, रैदास, पैगम्बर, औलिया, फ़क़ीर, दादू, नानक, तिरूवल्लूर हो जाते है पर यह आसान नही है, बहुत कष्ट है इस पथ को खोजना और यदि पा भी लिया तो इस पर चलना बहुत मुश्किल है
और इससे कठिन है - एक बहुत सीधा सपाट पथ पा लेना जो सुख - दुख के सम्मिश्रण से बना है और जिस पर चलकर ही हम अपने प्रारब्ध को प्राप्त होते है - बस थोड़ी सी समझ, अंतर्दृष्टि और अपनी पदचाप को सुनने का अभ्यास चाहिये
तुकाराम कहते है - "तुका म्हणे, उभे राहावें - आणि जे जे हुईल ते ते पहावे"
#मन_को_चिट्ठी
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