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Post of 10 May 2024, Ekant ki Akulahat etc , Drisht Kavi

प्यार में तो दुनिया अपनी लगने लगती है फिर तुमने क्यों पूरा शहर, माहौल, दोस्ती - यारियां उजाड़ दी

कोई नही जानता उसके बारे में, अचानक से कहानी में क्लाइमेक्स की तरह आई एक अनजान किरदार के रूप में और सबको भ्रम जाल में डालकर सबके हिस्से की धूप खा गई , सबके हिस्से के सूरज - चाँद निगल गई और तो और अपने - आपमें ऐसी कुछ दीवानी हुई कि उम्र का भी लिहाज़ नही किया, अपनी कुलीन  परम्परा का विद्रोह कर सब कुछ नष्ट कर दिया

कैसा घिघौना अतीत रहा होगा और कैसा चरित्र जिया होगा तूने व्याभिचारिणी कि जिसने भी समझने की कोशिश की तुझे, उसे ज़हर के अलावा कुछ नही मिला, बिच्छू के डंक सी मादक हँसी और मासूमियत की मोहक अदाएँ - विलोपित जीवन के टूटे तार की वीणा थी तुम - जो बेसुरेपन की हद तक जाकर पूरे संगीत को कोलाहल में बदलकर भौंडे व्यापार में बदल देती थी, यही होता है जब आरोह - अवरोह की बुनियादी समझ ना हो तो जीवन दीमक बन जाता है और हमेंशा दूसरों को खोखला करने में ही बीत जाता है

प्रेम तो हमने उसका भी देखा था, उसके साथ हजारों, लाखों का भी देखा था - जो सबको जोड़ता था, कभी विद्रूप रूप में सामने नही आया, कभी किसी को मलिनता से या हेय दृष्टि से नही देखा, मीरा से लेकर इसी भोगी संसार में असंख्य उदाहरण है जहाँ प्रेम ताक़त, समर्पण और उदात्त बनकर आया शांति से, पर तुमने तो मर्यादाएँ तोड़ दी - सहोदरों को पछाड़ दिया, अग्निफेरों में बंधे रिश्तों को नज़र लगाकर भोग में ऐसे डुबी कि ईश्वर को भी शर्म आ गई और उसने भाग्य लेख सँवारना छोड़ दिया तेरा 

प्रेम कोमल मन में होता है पर तुम तो डाह और बदले की आग में थी और इसलिये तुमने सभ्यता को ही नष्ट नही किया, बल्कि ऐसी घटिया मिसाल कायम की है - अब इस जनपद में प्रेम की बाड़ी में ना विश्वास उपजेगा, न दोस्तियां, ना रचनाएँ और ना ही प्रेम - तुम यूँही घुट - घुटकर मरोगी और तुम्हारे अपने तुम्हें कांधा देने में भी परहेज़ करेंगे कुल्टा

इतिहास के सफ़ों में समय के चौसर पर जब तू बाजी हारेगी तो तेरा क्रंदन सुनने वाला भी कोई ना होगा, यह ब्राह्मण श्राप देता है कि एक जनपद की समस्त प्रक्रियाओं को खत्म कर रिश्ते उजाड़ने के जुर्म की सज़ा तुझे यही और इसी जन्म में मिलेगी, जब तू जिन्दगी की तमन्नाओं को पूरा करने को तरसेगी - तब तुझे बवंडर के सिवा कुछ नसीब ना होगा, छिन्नमस्ता की तरह तेरा सर फटेगा और तू अपनी ही बलि देकर भी मुक्ति नही पायेगी

[ पौराणिक चरित्र पर लिखी जा रही कहानी का एक हिस्सा ]

* नोट - स्त्री द्वैषी कहानी नही है जीवन के अनुभवों से उपजी वास्तविकता है और पूरी कहानी पढ़े बगैर  कोई मत ना बनाएं
***
एक कविता लिखी थी गम्भीर किस्म की

उसके साथ एक हास्यास्पद तस्वीर लगाई अपनी ही - जोकि आजकल हिंदी के कवि और कवयित्रियाँ, कहानीकार या आलोचक लोकप्रिय होने और रीच बढाने के लिए करते है

जैसा कि विदित था कि मित्रों ने कविता नही पढ़ी, ना ही उस पर कमेंट किया, सिर्फ़ चित्र पर कमेंट और मज़ाक मस्ती वाले कमेंट किये

यह सिर्फ यह सिद्ध करने और बताने के लिये है कि जो लोग भी इस मुगालते में है कि उनकी कविता, कहानी, आलोचना, ब्लॉग या अखबार - पत्रिका की लिंक हर कोई पढ़ता है, समझता है और लाईक या कमेंट करता है - वे सम्हल जाये, अपने फोटो लगाने से ही ये सारी मूर्खतापूर्ण हरकतें होती है और आप हर कमेंट का जवाब देकर या हर लाइक करने वाले को धन्यवाद लिखकर यूँ बर्ताव करते है - जैसे फेसबुक आपकी नौकरी है और कोई विभागीय जाँच चल रही हो - जिसमें हर बात का जवाब देना जरूरी है

कुछ अति उत्साही कॉपी पेस्ट कहानीकार और कवि इन हरकतों से और लाइक कमेंट्स गिनकर रात को सोते है और ज़माने में ढिंढोरा पीटकर दही सत्तू बांट आते है और अगली बार बेशर्मी से अपने नंग - धड़ंग फोटो चैंपते रहते है या अपनी माँ, बहन, बेटे, बिटिया या बीबी से अपना प्रचार प्रसार करते रहते है पूरी बेशर्मी और बेहयाई के साथ, इन नँगों को बूढ़ी तितलियों को आकर्षित करते देखा है, इन्होंने इन्ही नँगे चित्रों को परोसकर पुरस्कार बटोरे है, किताबें बेची है, हड्डी और बोटी परोसकर नौकरियां पाई है और भारत भर में ब्यूरोक्रेट्स की गुलामी करके ट्रांसफर करवाये या बीबियों को सेट किया है या तीसरी चौथी शादियां की और मोटा दहेज लेकर नैतिकता सीखा रहे है 

यह हक़ीक़त आज फिर से एक बार साबित हुई 

नीचे जाकर जाकर आप देख सकते है कि इस पर 90 के करीब कमेंट्स और 290 लाइक्स है जबकि रीच कितनी कम हो गई है आजकल

पर सारे बड़े बूढ़े और जवान इस मूर्खता की गंगा में नहा रहें है गज्जब का सुतियापा चल रहा है 

इति सिद्धम
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आज मरे कल - दूसरा दिन ||
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मुझे ठंड के बाद बरसात और सबसे अच्छा मौसम गर्मी का लगता है जब सब कुछ चमकीला, गर्म और सूखा होने लगता है, ऐसे में दो बूंद पानी की हथेली पर पड़ जाये या शाम को घूमते हुए किसी आवारा बादल से दो चार बूंदें बरस जाये तो मन चकोर हो जाता है और फिर किसी कालिदास की तरह उजाड़ बादलों को अपने मन की कहने को बेचैन हो उठता हूँ 

इधर दोपहरें गर्म होने लगी है, जीवन अव्यवस्थित हो गया है, सब बन्द है - लिखना और पढ़ना, मन उचटता है तो आईपैड पर नेटफ्लिक्स और अमेजॉन, सोनी या डिज़्नी पर चला जाता है, थोड़ी देर देखता हूँ और फिर उब जाता हूँ, सोशल मीडिया पर भी मन नही लगता

किसी का फोन आता है तो फोन बजता रहता है पर कोई ज़रूरी या काम का हुआ तो ही बात करने का मन करता है, वरना एक अजीब सी छटपटाहट बनी रहती है, एक चक्कर बाज़ार का लगा आता हूँ, कोई परिचित दिख गया तो कन्नी काट लेता हूँ या दो घड़ी खड़े होकर सबसे हालचाल ले लेता हूँ पर अपने बारे में बोलने से बचता हूँ, जीवन दुखों का धधकता दानावल बन गया है ऐसे में इस लाक्षागृह में अकेला ही जलता रहूँगा तो सबके लिये बेहतर होगा 

एक ही कमरा है, एक छत और चंद ज़रूरत की चीज़ें - अब न्यूनतम आवश्यकताएं रह गई है सो मोह नही रहा, सिवाय किताबों के जो दुनियाभर से इकठ्ठी की है, खरीद लेता हूँ अब भी पर पढ़ना नही हो पाता, कुछ मित्रों की मेनुस्क्रिप्ट्स रखी है जिनको पढ़कर टिप्पणी देनी है, कुछ के प्रूफ़ देखना है, कुछ विस्तृत लिखना है - पर सब स्थगित है, अब प्रण करता हूँ कि ना किताब खरीदूँगा ना पत्रिका जो है वही पढ़ लूँ तो शायद कुछ और समझ बनें 

कभी कोई आ जाता है तो बात करने का मन नही करता, लगता है ये क्यों आ गया, कोई काम नही था क्या इसे, किसी कार्यक्रम में जाने की तो इच्छा ही नही होती अब - स्तर, गुणवत्ता, घटियापन, राजनीति, प्रेम सम्बन्धों का भौंडा प्रदर्शन, द्विअर्थी संवाद, गंदी प्रतिस्पर्धा, होड़ और नीचता की हद तक प्रदर्शन और दिखावा 

यात्राओं से वैसी ही उब होने लगी है जैसे सुबह के सूरज से या ढलती शाम के सितारों से, भोर का शुक्र तारा अब संग साथ रहता है, लम्बी थकाने वाली बोरियत भरी यात्राएँ अब मन मोहित नही करती, लगता है दृश्य रिपीट हो रहें है, लोग सीख गए है कि किसके साथ कैसे व्यवहार करना है और किससे क्या लाभ लेना है, नदी, पहाड़, समुद्र और जंगल के दृश्य दिमाग़ में फ्रीज हो गए है अस्तु अब इतना चलने फिरने का और घूमने का मोह नही है, लोगों से मिलने में रूचि नही रही है और ना ही कुछ जानना समझना है - जब जिज्ञासा और उत्सुकता खत्म हो जाये तो जीवन जीने का अर्थ नही रहता कोई 

मित्रों में भी अब काम के, उधारी के या रोना गाना सुनने के किस्से बचे है, उत्तर वैवाहिक सम्बन्धों को देखते हुए अब ना स्त्री पर या पुरुष पर गुस्सा आता है - बल्कि किशोर से युवा हो रहे इनके बच्चों पर तरस आता है या आश्चर्य होता है कि कितनी सहजता से माँ - बाप की रंग रैलियों को अपना लिया और अपने जीवन को साध लिया, अब ना माँ - बाप दखल दे सकते है उनके जीवन में, न वे शामिल है अभिभावकों के सुख - दुख में, कुल मिलाकर जब तक नौकरी नही है तब तक माँ बाप तिजोरी है, फिर तो वे भरपूर बदला लेंगे इस सबका, प्रेम और हवस में पड़े कामुक और बेशर्म माँ बाप से जो अपनी आग में सब कुछ जला बैठे है 

अदब और इल्म की दुनिया बेज़ार है, क्या कवि, कहानीकार या क्या कलाकार सब बेधम मस्त और आत्म मुग्धता के प्रमेय सिद्ध करने में लगे है, एक दूसरे को गिराने और दिखाने में, आगे निकलने में सब बर्बाद हो रहें है औरतें छिन्नमस्ता हो रही और पुरुष हरक्यूलिस बनने के मुगालते में सारी सीमाएँ पार कर चुके है , यह ऐसी चमकीली रंगीन दुनिया बन गई है जिसका आधार नही बस हवाई किलों पर अभेद्य क़िले बनाने की कोशिश कर रहे है सब इसलिये यहाँ से भी ऐसे दुर्दांत लोगों को हकाल रहा हूँ जो अपने में मस्त है और मैं मैं मैं के आगे ही नही आ पा रहे है 

कुल मिलाकर यह चैत्र का माह जो शुरू हो रहा है जीवन के सत्तावन वर्षों का सबसे खराब माह है और अब लगता है कि सबसे रिश्ता तोड़ना ही बेहतर है, ना दुआएँ चाहिये ना सुकून, यह अकुलाहट, यह बेचैनी, यह व्यग्रता, यह संताप, यह अवसादों की श्रृंखला पगों में बंधी रही और आत्मा के पोर - पोर पर झंकृत होती रहें तो एक दिन यह मोह भी छूटेगा, देह तो अपना कबीला और दायरा तोड़ चुकी है, नष्टप्रायः है अब - कब, किस दिन माटी में मिलने को बेताब होकर आत्मा मुक्त कर देगी - नही मालूम, पर अब नश्वर देह का कोई मोह नही  - माँ कहती थी आज मरे कल दूसरा दिन 

पिता सिर्फ़ 52 की उम्र में गुजर गए थे 

#एकांत_की_अकुलाहट - 100
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