एक सूफी कहावत है जो मैंने हज़रत मोइनुद्दीन चिश्ती साहब की दरगाह पर बहुत साल पहले अजमेर में और फिर एक दशक बाद दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया साहब के घर सुनी थी, कमाल यह है कि दोनो जगह जिस दरवेश ने मुझे यह कहावत सुनाई उसका चेहरा लगभग मिलता - जुलता था, वो कहावत थी - "क्या तुम्हें इल्म नही है - ये तुम्हारा नूर है जो जहाँ को रोशन करता है" - वही दरवेश फिर बरसों बाद मुझे रुड़की के पास कलियर शरीफ़ में सन 2007 में मिला था, उसने कहा कि अच्छा हुआ यहाँ भी आ गए तुम; कहते है - अजमेर जाओ और यहाँ ना जाओ तो यात्रा का सबाब नही मिलता
इस कहावत से मैंने सीखा कि अपने - आपको सबसे महत्वपूर्ण मानो, क़ायनात का केंद्र तुम्ही हो, यदि तुम्हीं नही तो ये धरती, चाँद और सितारें, ये नदियाँ, पर्वत, समन्दर, पेड़ - पौधे और धरती - आकाश किसके लिए है, बस, अपने आपको ठीक रखो; वह करो - जो मन कहता है, वैसे रहो - जिससे जीने में लगाव और बहाव बना रहता है, चित्त में मौज और रवानगी बनी रहती है और वैसा सोचो - जैसे तुम्हारा दिल - दिमाग़ कहता है
बाकी किसी के लिए नही - अपने आपको खुश रखने के लिए जी लो - जब तक भी हो हँसते और मुस्कुराते हुए जियो, बाद में तो सब निंदा करेंगे ही जैसे अभी हर पल कोसते है, हर आती - जाती सांस में बद्दुआएं लगती ही है लोगों की और ठोकरें खाते हुए जीवन यहाँ तक आ पहुँचा है
ना जाने क्यों वो दरवेश कल पूरी रात मानो साथ था, घण्टों मुझे कायनात के रहस्य समझाता रहा, मैं अपने माझी में डूबता - उतरता रहा, एकदम गुमसुम और सोचते हुए मानो दिमाग़ को जंग लग गया हो, सारी रात छत पर आँखों में काट दी, नींद का एक कतरा नसीब ना हुआ और सुबह जब सूरज निकल रहा था तो वो यूँ गायब हुआ जैसे ओस की बूंद - पता नही कोई कही बुलाता हो जैसे ....दूर क्षितिज पर से पुकारने का शोर बढ़ते जा रहा है
[ तटस्थ ]
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24 June 24 Post
हिंदी की लगभग लेखिकाएँ जो 99 % सनातनी और पक्की मूर्ख, अधकचरी, गंवार और खाजपाई है, पति और पड़ोसी के इशारों पर नाचने वाली ये अपना दिमाग तो लगाती नही, ये जब आपस में लड़ती है तो कितनी ओछी और घटिया हो जाती है - इनकी पोस्ट से समझा जा सकता है, न इन्हें खाजपा की समझ है, ना वाम की और ना कांग्रेस की - सिर्फ सेटिंग करके छपना आता है - ये कल्याण में भी छप सकती है ललित कहानियां देकर - इतनी छपास की भूख है इनमें
अपनी एक बहुत पुरानी मित्र से अभी लम्बी बात की, तो उसने बोला कि फेसबुक पर क्या चल रहा है - देखा कि नही, तब ढेर बकरियों को मिमियाते देखा, मज़ेदार ये कि ये क्यूटी पाई जिस तरह से मोदी सरकार आने के बाद नारंगी, हरी और लाल में विभक्त होकर कमज़ोर दिल दिमाग [अक्ल और समझ का तो गहरा टोटा है ही ] से लड़ रही, हवा में लठ भांज रही है वह अकल्पनीय है और तमाम लेखक पुरुष मजे ले रहे है इस मुर्गी लड़ाई के - यह सब पढ़ना रोचक है, ये सब फेसबुक की वो मोम से बनी शेरनियां है - जो किसी फर्जी सिपाही या फौजी की पीठ पर सवार है और इतनी सेटिंगबाज है कि बैक-टू-बैक पुरस्कार कहानी - कविता के जुगाड़ कर लेती है, हर किस्म की यानी दो कौड़ी की पत्रिका में छप जाती है, हर मंच पर ये लचर समझ के साथ डेढ़ किलो मेकअप पोतकर मौजूद है, और इनको किसी बंगाली डॉक्टर की तरह हर समस्या का हल मालूम है, किसी परदीप मिसरा या धर्मेंदर की तरह जबरन भेड़ें लेने आ जाती है आपसे, शुचिता और संस्कृति की बात करेंगी पर इनके संस्कार देख लें तो मजा आ जाये, एक जयपुर वाले ने आईना दिखाया है इस गैंग को
बहरहाल, बस्तर जाता था तो हाट बाज़ार में कुतियाओं की, बकरियों और भैंसों की लड़ाई देखता था, उन बैगा आदिवासियों के पास मनोरंजन के लिये कुछ होता भी नही था, सल्फी या ताड़ी पीकर वे मजे से इन मादा जानवरों की लड़ाई का सुख उठाते और देर शाम नशे में धुत्त होकर पुट्ठे झाड़कर चले जाते घर
मज़ेदार हो गई है दुनिया, अपने को क्या - अपन ने इन सब मादाओं को हटा दिया है सूची से, जो अजा रजा के कार्यक्रमों से लेकर फेसबुक के हाट बाज़ार में रोज जबरन चोंच लड़ाने आ जाती है और कोई ज़्यादा बकर-बकर करती है तो टेंटुआ दबाकर बलि दे देता हूँ यानी ब्लॉक कर देता हूँ
तीन-चार साल पहले इनकी सरगना से लेकर दिल्ली की डरपोक दीदी और इंदौर की दो-चार बिल्लियों को ऐसे ही भगाया था लिस्ट से और फिर नारंगी दीदी को जो ब्लॉक किया था - वो तो कसम से किसी मनोरंजक फ़िल्म से कम नही था, हाँ बहुतेरे युवा कवि अभी भी अश्लीलता के चरम से गुजरकर पाप में नहाकर गंगा आरती करते फिर रहें है और अब कई सत्यवान फोर्थ हैंड सावित्री के साथ पवित्र जीवन बीता रहें हैं कमबख्त कुछ बूढ़े कवि भी इस दलबदलू गैंग के मुरीद थे, उनको भी रोज जूते लगाता हूँ - इनको जूते लगाएं बिना और इन्सुलिन के भोजन नही पचता
#दृष्ट_कवि
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