तिरी ज़मीं से उठेंगे तो आसमाँ होंगे
हम जैसे लोग ज़माने में फिर कहाँ होंगे
◆ इब्राहीम अश्क
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"सिर्फ़ नजरिये की ही बात है और फिर यह भी गुज़र ही जायेगा"
हमारी मराठी संस्कृति में घर के सामने पानी छींटकर, गोबर से लीपकर हम रोज़ रांगोली के बहाने अपने मन की ना जाने कैसी कैसी कल्पनायें रचते है और तल्लीनता से विभिन्न आकार - प्रकार बनाते है और अगली सुबह उसे पोछकर फिर रचना करते है, नई रांगोली बनाते है कि नई सुबह है, नई उम्मीद और नई उमंग है सो कल की मेहनत का जो भी हो, आज फिर मेहनत करके नया सृजन करना है, नया बनाना है ताकि आज ताज़गी रहे और मन प्रसन्नचित्त रहें, बरसों - बरस यह अभ्यास हम करते है और फिर एक दिन रांगोली के रंग खत्म हो जाते है, फ़ीके पड़ जाते है और हवा सबको बिखेर देती है , बनाने वाला धूल-धूसरित हो जाता है कही
पर फिर थामता है कोई यह परम्परा, उम्मीदों और उमंगों का चक्र ज़ोर पकड़ता है, नये रंग और नये संयोगों से आकृतियाँ जन्म लेती है और जीवन फिर ढर्रे पर लौट आता है एक बार - बस नज़रिए की ही बात है, बाकी तो सब ठीक ही है
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लेनिन की मूर्ति ढहाने से शुरू हुआ जनांदोलन तालिबान में बुद्ध, फिर सद्दाम हुसैन की, रूस, यूक्रेन में सैंकड़ो मूर्तियाँ, भारत में बाबरी मस्ज़िद का विध्वंस, पाक में जिया, भुट्टो या कि इजराइल से लेकर बांग्लादेश में अब शेख मुजीब की मूर्ति ढहाने का खेल हम लोगों को देखना पड़ रहा है
मन्दिर, मस्ज़िद, गिरजाओं और महापुरुषों की मूर्तियों पर विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण और नष्ट करने की कहानियाँ तो इतिहास में हम सबने पढ़ी है पर अपने सामने इस तरह का इतिहास बनते देखना दुष्कर और घातक है और इस सबसे मन बहुत विचलित है और व्यवस्थाओं पर से विश्वास उठते जा रहा है अब - कोई उम्मीद नज़र नही आती
राजनीति इस समय अपने सबसे वीभत्स स्वरूप में है, जो लोग मर खप गए उनकी मूर्तियां होना ही नही थी तो आज जो हालात है वो कम से कम नही होते, दूसरा हर जगह पर ट्रम्प से लेकर भारत तक और मोदी, इमरान, पुतिन, जेलेन्स्की, थैचर, ज़रदारी, मुशर्रफ़, नवाज़ शरीफ़, इंदिरा गांधी, शेख हसीना जैसे लोगों ने तानाशाही का जो खेल खेलकर अवाम को रोज़ी-रोटी देने के बजाय तंगहाल कर दिया - वह बेहद शर्मनाक है
एक ही पृथ्वी है और हम सबकी औकात साठ सत्तर बरस की उम्र के साथ बीत्ते भर भी नही है, सबको काल के विशाल गाल में समा जाना है पर दुनिया में राज करने और सरदारों की महफिलों में सदारत करने का मौका कोई कमबख्त छोड़ना नही चाह रहा
दुनिया बारूद सुरँग से लेकर परमाणु बम के मुहाने पर है और आततायी युद्ध एवं षडयंत्र करके जीवन को मुश्किल कर रहें हैं - कमाल ये है कि लोग इन चंद लोगों को ठिकाने लगाने से भी डर रहें है
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है........
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◆ कमज़ोर नेतृत्व और आरक्षण ले डूबा बंग्लादेश को
◆ 300 से ज़्यादा मौतें हुई है
◆ शेख हसीना को इस्तीफ़ा देकर देश छोड़ना पड़ा
◆ एक देश जो छोटा सा है, सिविल वार नही सह पाया
◆ पाक, नेपाल, श्रीलंका और अब बंग्लादेश
◆ क्या यह आने वाले भारत की तस्वीर है ? या हम पदचाप पहचान नही पा रहे हैं
बांग्लादेश में युवाओं की बेरोजगारी की समस्या, रोजी-रोटी के मुद्दों को, नौकरी के मुद्दों को मीडिया चीन, पाकिस्तान और अमेरिका का हाथ बताकर गुमराह कर रहा है, आरक्षण पर बात हो नही रही - जो असली जड़ है इस गृहयुद्ध की
याद आ रहें है राहत साहब
"लगेगी आग तो ...
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कांवड़ यात्राओं का जो भी धार्मिक महत्व हो, हल्ला गुल्ला या हुड़दंग हो पर जिस तरह से रोज़ जो घटनाएँ हो रही वे दुखद है और सबसे ज्यादा त्रासद है कांवड़ यात्रा के हुड़दंग में हमारे युवाओं का असमय मरना, ये युवा ग्रामीण है या कस्बों से है जो अपने परिवारों की उम्मीद है, खेती और छोटी मोटी दुकानों को चलाने वाले है, ग्रामीण अर्थ व्यवस्था की धुरी इन पर ही टिकी है ऐसे में डीजे के करंट से या सड़क पर हो रही दुर्घटनाओं से यदि ये मर रहें है तो यह समाज की ही नही देश की बड़ी हानि है, इनके लिये कोई सरकार या बीमा कम्पनी क्षति पूर्ति के रूप में लाखों रुपया मुआवजे के रूप में देगी
इन्हें समझने और समझाने का काम राजनैतिक दलों, धार्मिक संतों और गाँव के बड़े बुजुर्गों को करना चाहिये साथ ही इन युवाओं को भी समझना चाहिये कि सबसे पहले परिवार है, धर्म, देश और समाज बाद में आता है और ये भीड़ कोई युद्ध लड़ने नही जा रही है
आज जिस तरह से 9 युवाओं की मृत्यु हुई और दो गम्भीर घायल है वह बेहद दिल दुखाने वाली खबर है - कोई भी मरें नुकसान हम सबका होता है और उम्मीद हम सब खोते है
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