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Khari Khari, Drisht Kavi, Ashish Bihani s poem, Maheshwar Tiwari and other Posts from 12 to 19 April 24

 

Sonali Bose जी ने पूछा था कि कवियों को युवा कब तक कह सकते है एक पोस्ट में
अभी मेरा जवाब दिखा
कौनसी भाषा है इस पर निर्भर करता है, हिंदी के कवि तो मालवा में रिटायर्ड होने के बाद भी बने रहते है ससुरे 18 के बाद गिनने वाली सुई तोड़ देते है
भोपाल का एक चरण रज पीने वाला और चुके हुए कवियों को इष्ट बोलने वाला कवि रिटायर्ड हो गया 3 साल से , 8 - 10 का ससुर और समधी होगा, दो दर्जन बच्चों का दादा - नाना पर अभी भी युवा नही लिखो तो गुस्सा जाता है
अपने इंदौर में भी युवा कम है क्या, पेंशन पाकर, 97 - 98 की उम्र में सुबू शाम इन्सुलिन लेने वाले सब युवा है, तीन चार ब्याह कर लेने वाला भी और बाबुओं के आगे पीपीओ के लिए गिड़गिड़ाने वाला भी, दो नाती अमेरिका और पांच पोते डकाच्या में घासलेटी काम कर रहे फिर भी युवा सम्राट, एक 65 के करीब प्राध्यापक और इंचार्ज प्राचार्य फिर भी जुवा दिलों की धड़कन है
जमाने भर के धत करम करके, घाट घाट का पानी पीने वाली, अपना घर तहस नहस कर, नौकरी का सारा रुपया हड़फकर दस मर्दों के संग बुढापा जीने वाली कवयित्री भी युवा है - भले सर पर काली विग लगी हो
दर्जनों ब्यूरोक्रेट भोपाल के एकांत पार्क में रिटायर्ड होकर अभी भी काव्य सुबू और काव्य संध्या करना नही भूलते, एक सदियों पुराने महाभूतपूर्व एसीएस जो खब्ती है अब, को युवा ना कहा जाये तो सस्पेंड करने की धमकी देता है, उसे याद दिलाना पड़ता है कि क्वार्टर खाली करना है, वरना सम्पदा रक्षा विभाग अब जेसीबी लेकर आएगा और पोपले मुंह के बचे डेढ़ दांत और लटकी हुई दाढ़ भी ले जाएगा उखाड़कर
सुबू सुबू ज्जे का पोस्ट कर दी, अब दिनभर कविगण यहाँ जन्मपरमानपत्र चैंपते रहेंगे
😜😜😜
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◆ भोपाल में तालाब और बाकी सब चीजों के अलावा तीन-चार सुंदर बिल्डिंग जो है जो अप्रतिम है और इनका वास्तु देखने लायक है जैसे पुराने विधानसभा, नई विधानसभा, वन प्रबंधन संस्थान, भारत भवन आदि, इन सब की एक विशेषता है कि यहां पर सूर्य का प्रकाश प्रचंड मात्रा में अंदर तक आता है और बिजली की जरूरत कम लगती हैं ; वन प्रबंधन संस्थान में कई बार सेमिनार और कार्यशालाओं के दौरान वक्ताओं को बोलना मुश्किल हो जाता है क्योंकि सूर्य की किरणें सीधे उनके मुंह पर पड़ती है
◆ एकलव्य, शैक्षिक एवं नवाचार शोध संस्थान का जमनालाल बजाज परिसर - जो होशंगाबाद रोड पर जाटखेड़ी गांव में बना है, उसे बेंगलुरु की सुप्रसिद्ध आर्किटेक्ट चित्रा विश्वनाथन ने डिजाइन किया है, लगभग 5 करोड़ रुपयों की लागत से बने इस भवन में भी बिजली की आवश्यकता कम लगती है क्योंकि सूर्य का प्रकाश पर्याप्त मात्रा में अंदर तक आता है
◆ बचपन में हमें जो बाई संभालती थी उसका घर खपरैल वाला था और अक्सर जब खपरैल टूट जाते थे तो सूर्य का प्रकाश अंदर तक आता था और हम लोग जब दिन में सोए होते तो हमारे चेहरे पर सूरज की सीधी किरणें पड़ती थी और हम चादर, फटी गुदड़ी या तकिये की खोल निकाल कर चेहरे पर डाल देते थे ताकि आंखों में उजाला बहुत ना आए, आपको मालूम ही होगा कि आज भी भारत के ग्रामीण इलाकों में कच्चे मकान में जहां कवेलू और खपरैल लगे हैं, सूरज की किरणें सीधे अंदर तक पहुंचती है और उन किरणों को देखना और उसमें सात रंग नजर आना बहुत स्वाभाविक है
◆ जब कक्षा सातवी - आठवीं में विज्ञान पढ़ते थे तो प्रिज़्म के बारे में पढ़कर प्रयोग भी करते थे, और सात रंगों के समुच्चय को "बैजानीहपीनाला" कहते थे और ये सात रंग साफ दिखते है आज भी, हम लोग विज्ञान में जो प्रयोग करते थे तो एक कांच की पट्टी को पानी भरी कटोरी में रख देते थे और मकान के अंदर या झोपड़ी के अंदर जब भी सूरज की किरणें उस कांच की पट्टी पर पड़ती तो दीवार पर इंद्रधनुष बना नजर आता था
◆ आजकल renewable energy / solar energy का ज़माना है और बड़े दफ़्तर घर और संस्थान ऐसे बन रहें है कि सूर्य का प्रकाश सीधे अंदर तक मिलें
[ भारत के संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में लिखा है कि वैज्ञानिक चेतना का प्रचार और प्रसार करना हर भारतीय का कर्तव्य होगा ]
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"जैसे कोई गर्भनाल काट दी गयी हो
हुआ हो किसी विशाल घंटे पर एक सधा वार
और वो बे-आवाज़ धूल-धूसरित हो गया हो
उन्हें कह दिया गया हो तितर बितर होने को
बगैर किसी युद्ध के
कोई भूकम्प नहीं आया, कोई ज्वालामुखी नहीं फटा
नदी ने अपना रास्ता नहीं बदला किसी और जमीन को सींचने को
कालचक्र बस अपनी जगह पर बैठ कर
घर्राता रहा"
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" बीज" नाम है इस लम्बी कविता का जो अनुज Ashish Bihani ने लिखी है
आशीष युवा वैज्ञानिक है और कैनेडा के मोंरियाल चिकित्सकीय अनुसंधान संस्थान में काम करते है
इधर हिंदी में अनुजद्वय अरुणाभ और अनुज लुगुन ने लम्बी कविताएँ लिखी है और पुस्तकाकार में भी लेकर आये है - जो चर्चा में भी रही और पुरस्कृत भी हुई है
"पुरातत्ववेत्ता" शीर्षक से शरद कोकास ने लम्बे समय तक टुकड़े - टुकड़े में लम्बी कविता लिखी और वीडियो भी बनाएं और वे गाहे - बगाहे लोगों को भेजते भी रहे वीडियो और कविता के टुकड़े इतने भेजें कि फिर लोगों को शायद पुरातत्त्व में रुचि नही रही और इस कविता पढ़ना ही बंद कर दिया, कम से कम मैंने तो कर ही दिया था
बहरहाल, आशीष बिहानी की यह कविता "बीज" एक लम्बी कविता ही नही, बल्कि मानव सभ्यता के विकास क्रम की कहानी है जो बहुत सलीके से वे क्रमवार लिखते है और कहते है कि "विकास में चक्र बहुत महत्वपूर्ण है. हर तरह के वृहद् या सूक्ष्म पारिस्थितिकी तंत्र के केंद्र में एक चक्र होता है क्योंकि उसमे सामग्री तंत्र में टिकी भी रहती है और रूककर stagnant भी नहीं होती (जैसे इकॉनॉमी में पैसे का चलते रहना). पर जैसे-जैसे तंत्र की क्लिष्टता बढ़ती है, चक्र को देखना भी दुष्कर हो चलता है, खासकर मानव समाज में, तो उसको एक स्तर नीचे सरलीकृत करके देखने की कोशिश की है - सेल्फ-असेंबल्ड जीवों के माध्यम से"
आशीष की दृष्टि इस समूची मानव सभ्यता को बहुत नजदीक से और वैज्ञानिक चेतना के साथ देखती है और वे बहुत धीरे - धीरे सब कुछ दर्ज करते जाते है, इस बीच लगातार वे बदलाव, संश्लिष्टता, और परिणामों पर दृष्टि रखते है और विचार करते हुए कहते है कि
"चींटियों और दीमकों की लम्बी लम्बी कतारें
ढोतीं सब कुछ अपने पातालभेदी,
वृक्षाकर त्रिविमीय नगर में
महामार्ग, गलियाँ, चौबारे, कक्ष
हर कक्ष में होती क़तरब्योंत
काईटिन के औज़ारों से प्रूफरीडिंग
संभले, गिने-सधे रद्दे
हर पेड़ की जड़ों में व्यस्त
शिल्पकारों की एक अक्षौहिणी सेना"
उनके भीतर वैज्ञानिक से पहले वे बेहद संवेदनशील कवि बैठा है जो हर परिवर्तन की आहट को महसूसता है, देखता है और फिर अपने भावों को बेहतरीन शब्दावली में रचकर प्रस्तुत करता है


यह कविता कई स्तरों पर एक साथ चलती है, जहाँ एक ओर आपको वे विकास के पदानुक्रमवार जानकारी देते है वही हिंदी भाषा में पगे और परिपक्व शब्दों के माध्यम से एक नए संसार से आप परिचित होते हो - यह प्रयास करते है, शुरुवाती एक - दो हिस्सों में थोड़ा तकनीकी पक्ष हावी लगता है, पर आपको बहुत साधारण हिंदी भी आती हो और आपको पढ़ने - समझने का किंचित भी अभ्यास है तो आप कविता के संग तादात्म्य स्थापित कर आशीष के साथ इस लम्बी कविता की यात्रा पर निकल पड़ते हो और फिर एक सांस में पढ़ जाते हो, थोड़ा झुंझलाते हो कि कही कोई सिरा छूट गया, फिर ऊपर जाते हो और पढ़ते हो, इस तरह से यह कविता आपको एक अलग दृष्टि देती है और सोचने को अवसर देती है, अंत में आप संतुष्ट होते हो कि आपने वही समझा जो कवि कहना चाहता था
आज की कविताओं की भीड़ में एकदम अलग मिज़ाज की कविता है यह, आशीष को बधाई कि बहुत लगन और श्रम से यह अदभुत कविता पूरी की और हिंदी के पाठकों के लिये एक नया झरोखा खोला - जो कई स्तरों पर समृद्ध करता है
आशीष से बग़ैर पूछे यहाँ दो छोटे टुकड़े लगाएं है, इस अनुरोध के साथ कि जल्दी ही हमें कही पत्रिका, वेब पेज या पुस्तक के रूप में पढ़ने को मिलेगी, पूरी कविता यहाँ नही लगा रहा और ना लिख रहा, पर यह ज़ोर देकर कहना चाहता हूँ कि अंतर आनुषंगिक विषयों से आये मित्रों ने हिंदी में जितना बेहतरीन काम किया है वह हिंदी पर बड़ा उपकार है, इस सन्दर्भ में लाल्टू भी याद आते है
खूब बधाई और शुभेच्छाएँ आशीष
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"UPSC Aspirant" अधिकांश युवाओं की प्रोफ़ाइल में लिखा होता है
हर वर्ष की तरह पूछ रहा हूँ कोई बना क्या, नही तो जाओ दिल्ली, प्रयागराज छोड़कर और घर जाकर कुछ मदद करो माँ - बाप की जिनके खून- पसीने को जलाकर तुम दिल्ली, भोपाल, लखनऊ, बनारस घूम रहे हो और पढ़ाई के बदले मज़े कर रहे हो
कुछ नही तो चाय पकौड़े की गुमटी खोल लो, कितने साल तक पड़े रहोगे, चौबीसों घण्टे तो सोशल मीडिया पर रहते हो, इंस्टा की रील्स में स्टोरी डालते रहते हो - गुरू कुछ और करो
कल से जिसका भी पढ़ सुन रहा हूँ - उन्हें ढूँढ़ रहा , पर वो नही मिल रहे किसी सोशल मीडिया पर
बहरहाल, ज्ञानीजन आये और ज्ञान दें
देखा यह है कि असफल लोग यूपीएससी के फर्जी गुरू बन जाते है और फिर तनाव में जीते है, अवसाद और अपराध बोध से ग्रस्त होने के बजाय घर लौट जाओ लल्ला माँ - बाप इंतज़ार कर रहें है, जाओ मेहनत करो और खेतों में पसीना बहाओ या कियोस्क खोलकर ज्ञान दो, कुछ नहीं तो ओनलाईन ही पढाओ, टाईम पर ब्याह शादी करके घर बसाओ ................
नोट - कमेंट करने के पहले यह जरूर बताना कि यह वाला कौनसा अटेम्प्ट था और कितने साल हो गए धक्का लगाते हुए
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धूप में जब भी जलें हैं पाँव
घर की याद आई
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एक तुम्हारा होना
क्या से क्या कर देता है


देवास आते थे और हम लोग घण्टों बैठकर गीत सुनते थे, गप्प करते थे, स्व ओम प्रभाकर जी के घर, या स्व नईम जी के संग
"दिल्ली तरफ़ आओ तो बताना और यहाँ घर है, होटल में रूके तो देख लेना फिर"
गाहे बगाहे फोन आ जाता था कि कैसे हो क्या हो रहा है, क्या लिखा, क्या पढ़ा और तबियत पर ध्यान दो, घूमना बन्द करो, चंद्रकांत देवताले जी, महेश्वर जी, नईम जी, ओम प्रभाकर जी से जीवन में बहुत सीखा, साहित्य की समझ विकसित हुई, और इन लोगों से प्रत्यक्ष और फोन पर घण्टों बात करते हुए कभी लगा नही कि ये सब आदमकद लोग है बल्कि यूँ कहूँ कि इन्होंने कभी महसूस नही होने दिया कि ऊँचे कद के लोग है, ऐसे सहज और प्रतिभावान लोग अब कहाँ है या होंगे
अभी आदरणीय Ajay Tiwari जी, की पोस्ट से पता चला कि महेश्वर तिवारी जी घर लौट गए है सदा के लिये
नईम जी, विनोद निगम जी, ओम प्रभाकर जी और अब महेश्वर जी - यह आघात है नवगीत के लिये, ये वो पीढ़ी थी जिन्होंने नवगीत में श्रृंगार के साथ जनचेतना और लोक की महती परम्परा और हाशिये पर पड़े लोगों को रखा और खूब रचा
महेश्वर जी से कहता रहा कि आपकी आवाज में गीत रेकॉर्ड करके भेज दें, पर वे हंसते थे और कहते "तुम घर आओ घर, और वीडियो बना लो, ऐसे नही भेजूँगा, क्या मेरे घर कभी नही आओगे"
आज महाष्टमी के दिन यह दुखद समाचार मिला, बेहद दुखद
सादर नमन और श्रद्धांजलि अपने प्रिय गीतकार को, आप सदा स्मरण में रहेंगे
ओम शांति
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सबसे ज्यादा चापलूस मीडिया आजकल एनडीटीवी है, जिन पत्रकारों और एनडीटीवी के लोगों को राजनेता अपने घर या पत्रकार वार्ता में घुसने नही देते थे, वे आजकल इन्हीं भ्रष्ट और दोगले नेताओं के साथ में हवाई यात्रा ही नही कर रहें - बल्कि भोजन कर इन्हीं राजनेताओं के परिवारों के संग ऐसे घुलमिल रहें है - जैसे इनके साले या जीजा हो
मंत्री, अफ़सर, राजनयिक, सेना के अधिकारी, सुप्रीम कोर्ट के माननीय से लेकर प्रधानमंत्री तक आज एनडीटीवी पर पूरी बेशर्मी और आत्म मुग्धता से दिनभर डटे रहते है - कितना और विकास चाहिये मित्रों
ऐसे में सिर्फ ब्यूरोक्रेट्स को या एनजीओ वालों को गिरगिट बोलने का अर्थ नही, सबसे ज़्यादा मक्कार और बदमाश कौम ये मीडिया है जिन्होंने रीढ़ बेच दी है
संजय पुगलिया से लेकर संवाददाताओं ने रजत शर्मा, दीपक चौरसिया, रूबीना लियाकत, से लेकर तमाम तरह के धत कर्मों में लीन पत्रकारों को पीछे छोड़ दिया है और हाल ही मिलें इन्हें 45 पुरस्कार इस चाटुकारीता के नोबल अवार्ड है
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कल एक पोस्ट लिखी थी उसके बाद प्राध्यापकों से लेकर रिसर्चर्स और आम मित्रों के ढेरों फोन आये है पर मजाल कि कोई लिख दें पोस्ट पर , क्योकि "वर्जिनिया वुल्फ से सब डरते है" [ स्व शरद जोशी का व्यंग्य तो पढ़ा ही होगा ज्ञानियों ने ], बड़े-बड़े प्रोफ़ेसर जातिवात पर टिप्पणी करने से डरते है - क्योकि सबको किसी ना किसी की गुड बुक में रहना है, सब विभागीय जातिवाद और जाति के नाम पर चलने वाली राजनीती और गुंडागर्दी से परेशान है, ब्यूरोक्रेट्स के फोन आये जो अलग ही रोना रोते है, वे भी परेशान और हैरान है क्योकि कानून से सब डरते है
यदि कोई जाति पूछ रहा है तो बताने में क्या दिक्कत है, क्या किसी जाति विशेष में पैदा होना हमारे हाथ में है, यदि मेरे हाथ में होता तो साला अपुन बिल गेट्स के घर या अडाणी के घर पैदा होता पर आप एक सवर्ण को उसकी जाति को लेकर गरियाए - "ब्राह्मण, बनिया, जैन, सरदार, ठाकुर और यादव, कुलमी, साहू, जायसवाल " करें और आपकी जाति पूछे तो आप यहाँ आकर रोना रोये कि मेरी जात पूछ ली, इतना पढ़कर यदि आप वही मूर्खों जैसी बहस में पड़े है, अति शिक्षित होकर भी जाति का रोना रो रहें है, प्रमोट होकर आयएएस बन गए या सीधे पहुँच गए और फिर भी रो रहे है - तो धिक्कार है आपकी पढाई पर भैया गाय, बकरी, भैंस ही चराते ना गाँव में ...........
कमाल का दोगलापन है बै, कहाँ से लाते हो यह सब
खैर चुनाव है मामला गर्म है, गर्मी भी बहुत है -
"हम पराजित है मगर लज्जित नहीं
सब आओ अँधेरे में सिमट आओ
हम यहाँ से सत्ता की राह खोजेंगे
दलित - अदलित की घटिया राजनीति करेंगे
बड़े विवि में मुफ्त पढ़कर सबको गाली देंगे
आईआईटी, आईआईएम, जेएनयु बनारस में पढ़ेंगे
फिर भी घुटन है नौकरी ना मिलने की
निजी जगहों पर काम नहीं करेंगे
सरकारी में मक्कारी की संभावना पूरी है
आओ सब अँधेरे में सिमट आओ
हम पराजित नहीं लज्जित नहीं
हम सबको बर्बाद कर देंगे
आओ हम यहाँ से राह खोजेंगे"
स्व दुष्यंत कुमार से माफ़ी सहित
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