अभी Mahesh Kumar ने एक पोस्ट में दलित पितृसत्ता का इस्तेमाल किया जब पूछा कि ये क्या है तो जवाब दिया कि "जैसे ब्राह्मण पितृसत्ता होती है वैसे ही दलित पितृसत्ता होती है"
हिंदी के युवा तुर्क जो ना करें कम है, मतलब कुछ भी, मैं बच्चा नही कि समझ ना सकूँ, इसका शाब्दिक अर्थ तो समझ गया पर इसके दीगर मायने, ख़ैर, हिंदी वाले इतना शब्दों का अर्थ और खिलवाड़ करते है कि सब गुड़ गोबर हो जाता है, यह जातिवादी लड़ाई को आगे बढाने का एक और बकवास मुद्दा है
किसी और सन्दर्भ में फर्जी कवियों और तथाकथित लेखकों की ओर इशारा है मेरा, साथ ही बेरोजगार शोधार्थियों की ओर भी जो अपनी अयोग्यता को साहित्यिक मजमे से ढाँकने की कोशिश कर रहे है, और सवर्णों को गाली देकर नौकरी पाने का उजबक तरीके खोज रहे है, देश के श्रेष्ठ विवि में सरकारी रुपयों से पढ़कर और तमाम तरह की सुविधाएँ लेकर जब नौकरी के जंगे मैदान में उतरे तो समझ आया कि अब कार्ड नही चलेगा तो लगे पत्ते फेंटने
काश कि कमला भसीन होती तो वो बताती इन्हें कि पितृसत्ता सिर्फ़ पितृसत्ता ही होती है उसमें दलित, अगड़ा, पिछड़ा, ब्राह्मणवाद नही होता
मतलब गज्जब का विश्लेषण है - कुछ भी....
पितृसत्ता को सम्पूर्ण रूप से समझे बिना ये water tight compartment बनाना अजीब है, हिंदी का अतीत तो बर्बाद था ही, वर्तमान ये लोग कर ही रहें है, शेष बचा भविष्य - तो रोटी काहे की खाओगे, बाकी हुनर भी नही कुछ
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कई सारे पक्ष है
एनजीओ कुल मिलाकर एक समानांतर व्यवस्था है जो काम करने के लिये एक खुला मंच, स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति, बगैर दबाव, अपने मन और समय के हिसाब से काम करने का मौका है
सच और झूठ बहुत ही सापेक्ष है जो हर जगह की तरह यहां भी लागू होता है
एनजीओ बनाम सोशल सेक्टर बनाम स्वैच्छिक संस्थान बनाम सी एस ओ आज की कड़वी हक़ीक़त है जो हमे चाहिये भी और उनका काम भी डसता है
अपने अनुभवों में अपन लोगों ने भी दिल्ली बनाम स्थानीयता और ब्यूरोक्रेट्स के बच्चे बनाम अपने जैसे कर्मचारी के बच्चों के बीच संघर्ष देखा और बहुत कड़वे अनुभव रहें, जिस तरह से उन लोगों ने जमकर शोषण किया, और अपने जीवन का सर्वस्व हमसे छीन कर ये फर्जी लोग ऐयाशी करते रहे वह चिंतनीय है
और इन्ही से सच और झूठ सीखा यह भी सीखा कि ये इस्तेमाल करते है स्थानीय लोगों को और अपना उल्लू साधते है , दुर्भाग्य से ये सब वामपंथ की आड़ में घोर पूंजीपति, सुविधाभोगी और अवसरवादी निकले
तुम, मैं Gopal Rathi या और भी थोड़े दमदार थे उन्होंने अपना मकाम हासिल किया, यह जल्दी समझा था, काफी पढ़ाई कर ली थी, जिसके लिये ये रोकते थे, मैं 1998 में निकल आया था उस मठ को छोड़कर और नई योग्यता हासिल की और फिर बड़े पदों पर रहा यहां तक कि फंडिंग भी किया इन्हें बाद में पर अब जब पलटकर देखता हूँ तो यहां से निकले भ्रष्ट लोगों ने उप्र से लेकर दिल्ली तक शोषण और भ्रष्टाचार के इतिहास गढ़े, बनारस में हाईवे पर ज़मीनें खरीदी और इस सबमे वो कामरेड भी शामिल है जो ऊपर किसी भद्र महिला ने टैग किया है और इन सबको बहुत नजदीक से देखा है, दुर्भाग्य से 6 माह काम करके लखनऊ के उस मक्कार झूठे का जंजाल छोड़कर मैं आ गया पर ये अभी भी पाप में डूबे है गले गले तक
नाम किसी का लेने से मतलब नही है पर इधर देख रहा कि बहुत कम है जो नैतिक है, सेवाभावी है और लगन से ईमानदारी से डेस्क और फील्ड दोनो सम्हाल रहे है
इसके सामने ही आज अजीम प्रेम से लेकर रिलायंस के साम्राज्य खुले है और इन्हीं झूठों में से कुछ लोग बंधुआ बन गए है और दुकानें चला रहे है और ढ़ेरों बूढ़ी तितलियाँ यहाँ काम करने को उत्सुक है
बहरहाल
[Replied to Mahesh Basediya ]
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जैसे सोशल मीडिया ज्वाइन करने की उम्र 18 है, वो बात अलग है कि छोटे बच्चे भी ज्वाइन कर लेते है, वैसे ही सोशल मीडिया छोड़ने की भी अनिवार्य उम्र होनी चाहिये और अनिवार्य रूप से 65 - 70 की उम्र के बाद सबको हकाल देना चाहिये - किसी को ज़्यादा चूल हो लिखने - पढ़ने की या भयानक आत्म मुग्ध हो तो इन ससुरों को गीता, कुरान, बाईबिल या धार्मिक ग्रन्थों की ही लिंक दिखनी चाहिये और इनको सिर्फ भजन पूजन और आध्यात्मिक गुरू घण्टालों के ही वीडियो दिखाओ और ऐसे ही भक्तों के सम्पर्क बनाने देना चाहिये - बागेश्वर, प्रदीप मिश्रा, आशाराम, निर्मल बाबा टाईप लोगों के
ससुरों ने गन्द मचा रखा है, रोज उजबक टाइप सवाल पूछते है, कुछ भी लिखते है और 50 से लेकर 195 तक को टैग करते है, अक्ल गिरवी रख दी, बेटे - बहु या बेटी - दामाद तीन महीने का रिचार्ज डलवा कर चैन से रहते है और यहाँ जनता पाप झेलती है इनके
ये पुरानी फिल्मों के रिव्यू गूगल से कॉपी पेस्ट कर लिखतें है उस भाषा की फ़िल्मों की जो इनके खानदान में किसी ने पढ़ी - लिखी नही, क्योकि ये अब कुछ सार्थक लिखने लायक नही
इनके सवाल देखिये -
● गाय के गोबर से परमाणु ऊर्जा कैसे प्राप्त करें
● हजारीप्रसाद ने कबीर की कविता में प्रेमचंद के क्या तत्व ढूंढें
● नामवर सिंह ने बैलगाड़ी में जाकर नई कविता के प्रतिमान क्यों लिखी
● कहानी के तत्व में उपन्यास के बिंब से क्या फर्क पड़ेगा
● हिंदी पत्रिका का अंक किसी फिल्मी कलाकार पर निकाले तो कितनी बिकेगी पत्रिका
[ राजेन्द्र दानी की पोस्ट पर जवाब ]
"वनमाली कथा" को इधर लगातार पढ़ रहा हूँ, जिस मेहनत, लगन और विज़न के साथ यह पत्रिका निकल रही है उससे समकालीन परिदृश्य पर यह श्रेष्ठ बनती जा रही है, मैं हंस, वागर्थ, समकालीन जनमत, कथादेश, अन्विति, तदभव, परिकथा या किसी अन्य पत्रिका या वेब पोर्टल से तुलना नही कर रहा, पर जिस तरह के नए प्रयोग, हिम्मत और जोखिम लेकर पत्रिका ने हिंदी के कल, आज और आने वाले कल पर वृहद काम किया है - उसकी प्रशंसा किये बिना रह नही सकता, युवा सम्पादक की सूझबूझ और दृष्टि साफ़ नज़र आती है हर अंक में
भाई Kunal Singh और उनकी पूरी टीम को यह यश दिया जा सकता है कि बहुत कम समय में उन्होंने हिंदी में एक बड़ा अभेद्य किला और ना पार किया जा सकने वाला हिंदी पत्रिका के क्षेत्र में बड़ा माइल स्टोन खड़ा किया है और इसका स्थान किसी ओर को लेने के लिये लम्बा पड़ाव पार करना होगा
अभी मुझे लगता नही कि इस पत्रिका की बराबरी कोई कर पायेगा ; जिन लोगों ने पहल, आजकल, आलोचना, सरिता, कादम्बिनी, हंस, धर्मयुग, गंगा, सारिका, पश्यन्ति, तदभव, समकालीन साहित्य, सन्डे मेल, आउटलुक या तहलका जैसी पत्रिकाओं से भी अलग होकर अपनी पत्रिकाएँ निकालने का जोखिम लिया - वे लोग प्रूफ़ की गलतियाँ तो छोड़िये पेज सेटिंग, लेआउट या कविताओं में स्पेसिंग भी ठीक से नही कर पा रहें है, आँखों से दिखता नही - बार बार बोलने पर समझ नही आता तो भाया घर बैठो ना, पूजा - पाठ करो - क्यों पत्रिका निकालकर चंदे से धँधा कर बुढ़ापा खर्च कर रहे हो, सम्पादक बनकर अपना नेटवर्क क्यों बना रहे वो भी 90 % महिला कवयित्रियों की घटिया कविताओं और कहानियों के साथ ; अपनी बात को साबित करने के मेरे पास पचासों उद्धहरण है और इन जड़ सम्पादकों से हुई बातचीत के साक्ष्य भी, पर ये सुधरना नही चाहते, हर नये अंक में वही गलतियाँ बार - बार दोहरा रहें है, ऊपर से सालाना चंदा बढ़ाकर कचरा छापना इनकी नियति बन गया है
बहरहाल, "वनमाली कथा" के उज्ज्वल भविष्य के लिये सुकामनाएँ
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