आजकल सूचना, खबर और जानकारी को ज्ञान मान रहे है लोग, आंकड़े और तथ्यों को ज्ञान माना जा रहा है - जो घातक भी है और अधकचरा भी, इससे कुल मिलाकर सब गोलमाल हो रहा है
पर अफ़सोस यह है कि पढ़े - लिखे प्राध्यापक और बुद्धिजीवी यह मामूली फ़र्क नही कर पा रहे है और धे कॉपी - धे कॉपी और उंगलियाँ तोड़कर वर्ड में पेस्ट करके लपककर पेल रहे और किताबों पर किताबें निकाल कर पर्यावरण का सत्यानाश कर रहें है
यह ना सिर्फ मूर्खता है बल्कि अपने विवेक और ज्ञान का दुरुपयोग भी है
[ Ashish Telang जी की एक पोस्ट पर मेरा कमेंट ]
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1970 में देवास में बैंक नोट मुद्रणालय की स्थापना हुई थी, देवास से एक छोटा सा कस्बा था - जहां पर तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री प्रकाशचंद्र सेठी जब केंद्र सरकार में केबिनेट मंत्री बनकर गए तो उन्होंने मालवा को एक तोहफा दिया - क्योंकि इंदौर में उस समय जगह नहीं थी, स्व गुलजारीलाल नंदा द्वारा बनाया गया मिल के श्रमिकों के लिए "नंदा नगर" नया-नया बना ही था, इसलिए बैंक नोट मुद्रणालय के लिए देवास का चयन किया गया और उसके बाद यहां पर जिस तादाद में जनसंख्या बढ़ी और देश के अलग-अलग हिस्सों से लोग आकर बसे, उससे यह कस्बा शहर बन गया और भारत का प्रतिरूप - जहां पर केरल से कश्मीर और त्रिपुरा से लेकर गुजरात तक के लोग यहां आकर बस गए और नौकरी करने लगे, स्थाई नागरिक हो गए
बैंक नोट मुद्रणालय के कारण इस शहर में कई कल - कारखाने भी बने और एक समय में यह शहर मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी था - जहां पर सबसे ज्यादा उद्योग धंधे स्थापित है किर्लोस्कर, रैनबैक्सी, स्टील ट्यूब्स, एस कुमार, स्टेंडर्ड मिल से लेकर गजरा गियर्स आदि तक यहां आज भी कार्यरत हैं
हमारे समधि और हमारी छोटी बिटिया श्रेया के पिताजी श्री चंद्रशेखर दुबे, बैंक नोट मुद्रणालय में लगभग 37 वर्ष काम करने के बाद आज सेवानिवृत्त हुए और उन्होंने लगभग साढे तीन दशक तक समर्पित भाव से यहां काम करके जो देश सेवा की है - उसका प्रतिफल उनके विदाई समारोह में आए लोगों को देखकर देखने को मिला - जहां हर कोई उनसे प्यार से मिल रहा था और उनके उज्जवल भविष्य के लिए शुभकामनाएं दे रहा था
नोटबंदी और कोविड के त्रासद तीन वर्षों के दौरान मैंने देखा है कि किस तरह से वे मुस्तैद होकर कम्पनी जाते थे और नोटों की छपाई में महत्वपूर्ण योगदान देते थे, लगभग 4 - 8 महीने वे लोग लगभग 24 घंटे काम करते रहे हैं कैम्पस और देश के महानगरों में यात्राएँ करके अपने कामों को अंजाम देना और सिर्फ काम ही नहीं बल्कि नोटों को छोटे हेलीकॉप्टर और चॉपर द्वारा देश के दूरस्थ आदिवासी इलाकों और जंगलों में पहुंचाने की व्यवस्था करना और प्रबंधन करना, यही इंक फेक्ट्री से तालमेल और संयोजन करना - इस सब काम में जोखिम भी था और संयम रखने की भी जरूरत थी, श्री दुबे जी और उनकी पूरी टीम ने इस काम को बखूबी निभाया और देश के प्रति अपना कर्तव्य पूरा किया
आज से वे दूसरी स्वर्णिम पारी की शुरूवात कर रहे हैं, हम सब उनके स्वर्णिम भविष्य के लिए, स्वस्थ जीवन के लिए प्रार्थना करते हैं - वे स्वस्थ रहें, मस्त रहें, खूब घूमे फिरें, और साहित्य के प्रति जो उनका अनुराग है, लिखने पढ़ने के प्रति जो उनका प्रेम है - उसे वे पूरा करें - उनकी ओर से नई रचनाओं का इंतजार रहेगा यह आग्रह है
शुभकामनाएं
आज के इस अवसर पर मैं और मेरे बड़े भाई ने मिलकर उन्हें शुभकामनाएं दी - इस अवसर पर मेरे लाड़ले अनुज देश के प्रसिद्ध रक्तदाता और समाजसेवी इंदौर से आए श्री दीपक नाईक भी उपस्थित थे
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डिज्ने पर एक ठीक ठाक सी फ़िल्म है, उच्च शिक्षा में जितना पतन और भ्रष्टाचार हुआ है पिछले दो दशकों में - उतना कही और कभी नही हुआ होगा, अनपढ़ कुपढ और गंवार लोग जब सत्ता में काबिज़ हो तो शोध कम - नकल और तिकड़म ज़्यादा ही होगा , जिस देश के प्रधान की पढ़ाई शंकास्पद हो, जो झूठ बोलने में वृहस्पति हो और षड्यंत्रों का कुलगुरु हो - उससे शिक्षा में सुधार की उम्मीदें बेमानी है, जिस देश में राज्यों के प्रमुख अपराधी और कुलाधिपति गोटी फिट करने में माहिर हो उस देश में भ्रष्ट और नाकारा फ़ौज ही निकलेगी ना
जितने गैर जिम्मेदार, अकुशल, अपढ़, कुपढ़ और निर्लज्ज प्राध्यापक इधर महाविद्यालयों और विवि में आये है और इन सबने मिलकर जो उच्च शिक्षा का बैंड बजाया है उतना तो सरस्वती या ज्ञान के देवता भी जमीन पर आकर नही बजा सकते
कम से कम अमिताभ बच्चन की आरक्षण और धंधेबाज आनन्द कुमार की फ़िल्म से बेहतर है और शिक्षा के व्यवसायीकरण, नकल, और कॉपियों में हेरफेर से लेकर राजनीति के बेजा इस्तेमाल की बात जमकर करती है
काश कि बिहार के एक विवि की हक़ीक़तें जिस तरह से एक कोर्ट में खुलते जाती है और एक अति साधारण वकील परत दर परत पूरी न्याय, शिक्षा और व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाती है - वह देश के हर हिस्से में हो जाता, तो मजा आ जाता, इस समय देश का हर विवि बिहार बना हुआ है - भ्रष्ट, अराजक और unaccountable
अभी 1989 के बाद मैंने फिर से गत 6 वर्षों में लॉ में स्नातक और परास्नातक किया तो कह सकता हूँ कि क्या विक्रम उज्जैन, देवी अहिल्या इंदौर, रानी दुर्गावती जबलपुर, ग्रामोदय चित्रकूट, या बरकतुल्लाह भोपाल, सारे विवि गुंडे - मवालियों के अड्डे बन गए है, पढ़ाई लिखाई शून्य और ढकोसले बाज़ी ज़्यादा
रवीना और सतीश शुक्ला के लिए सौ-सौ सलाम, बाकी तो जो फिल्मी ड्रामा है - वह है ही, देख डालिये बस एक बार
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लोमड़ी के प्रमेय - 1
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जंगल में लोमड़ी की कोई औकात नही थी, लोमड़ी का स्वभाव ही तीखा और वीभत्स था, लोमड़े को अवैध रूप से छोड़कर अपना साम्राज्य बनाने की कोशिश में थी - पर ना हाथी, ना शेर, ना नीलगाय, ना जंगली सूअर और ना तोता, मतलब कोई घास नही डाल रहा था, सो हर समय भिन्नाई रहती और जंगल को नष्ट करने की योजना बनाते रहती
आख़िर उसे समझ आया कि जातिवाद से बड़ा हथियार कोई और हो नही सकता - उसने एक गधे को साधा और अपने हुस्न के जाल में फाँसकर पहले प्यास बुझाई फिर उसे शेर, हाथी, हिरण, बारहसिंघा, बाज, उल्लू, तोते, चिड़िया और यहाँ तक कि चींटियों के ख़िलाफ़ भड़काया कि ये ऊँची जाति के जानवर तुम्हे उपेक्षित करते है, समय आ गया है कि तुम भी महान बनो, सत्ता हासिल करो और राज करो रामराज लाओ जंगल में
इस गधे को प्रसन्न करने के लिये उसने कई तरह के शिकार किये - मैना, फ़ाख्ता, मुर्गा, गिलहरी, मछली, मगर, आदि को पकड़ा और पकाया , महुआ की शराब और पेड़ से उतरी ताड़ी के साथ गधे को खिलाया - ये सब दिव्य व्यंजन थे गधे के लिये, सो गधा लोमड़ी का हो लिया - बस लोट लगाते हुए गधे ने सब बड़े जानवरों को चुनौती देना शुरू कर दिया
जब धोबी को गधे और लोमड़ी के प्रेम प्रसंग और चुनाव के बहाने सत्ता हथियाने के "लोमड़ीस्वप्न" का पता चला तो धोबी ने गधे को हकाल दिया, इस तरह गधा बेरोजगारी झेलने को अभिशप्त हुआ, पर लोमड़ी पर उसका प्रेम अगाध था
एक दिन दोनो ने मिलकर जंगल में पार्टी कार्यालय खोला और चुनाव की घोषणा कर दी, गधा तो गधा ही था, लोमड़ी ने फिर खेल खेला और शेर से प्रेम की पींगे बढ़ाकर,हाथी को भाई बनाकर, अपनी जात के नेता को साधकर ज़मीन हथिया ली, चुनाव जीत गई, एक बड़ा संस्थान खोल लिया और समाज की अध्यक्ष बन गई, जंगल की मुखिया और शेर की प्रेयसी बन राज करने लगी एवं गधे को उसके हाल पर छोड़ दिया
बेचारा गधा फिर से ढेंचू - ढेंचू करके अपना दर्द ज़माने में आज भी बांट रहा है
लोमड़ी हर युग का और हर क्षेत्र का परम और अंतिम सत्य है मित्रों
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लोमड़ी के प्रमेय - 2
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जंगल में लोमड़ी की कोई औकात नही थी, लोमड़ी का स्वभाव ही तीखा और वीभत्स था, लोमड़े को अवैध रूप से छोड़कर अपना साम्राज्य बनाने की कोशिश में थी - पर ना हाथी, ना शेर, ना नीलगाय, ना जंगली सूअर और ना तोता, मतलब कोई घास नही डाल रहा था, सो हर समय भिन्नाई रहती और जंगल को नष्ट करने की योजना बनाते रहती
लोमड़ी की महत्वकांक्षाएं बहुत बड़ी थी और वह यह जानती थी कि शरीर ही वह सीढ़ी है जिसका इस्तेमाल करके वह अपनी हवाई दुनिया के स्वप्न को चरितार्थ कर सकती है, जीवन भर गीदड़ भभकियाँ , डांट डपट और अपमान सहने के बाद उसे लगा कि अपनी एक दुनिया होना चाहिये जहाँ की दुनिया में वो ऊँचे पेड़ो के साये में, नीलगिरी की खुशबू सूंघते हुए किसी महारानी सी दम्भ और अकड़ के साथ चले और किसी ब्यूरोक्रेट की तरह से उसके सामने भी लोग ज्जि - ज्जि, ही- ही- ही करते रहें और रेंगकर सुर मिलाते रहें
जाहिर है इस दिवास्वप्न को पूरा करने के लिए गधे से बेहतर कोई पुरुष नही हो सकता था - और जिसके कँधे पर बारूद की तोप रखकर सब कुछ साधा जा सकता हो, गधा वैसे भी मुफ़्त में काम करने और सबके लिये मर मिटने को तैयार रहता था और जब हुस्न परी लोमड़ी ने नोचे हुए माँस के चिथड़े सामने फेंके तो गधा श्रद्धा भाव से निहाल हो गया और नतमस्तक होकर उसके आगे - पीछे झूमने लगा
लोमड़ी चुनाव के मैदान में है , सभी परंपरागत वोटर उसके दुश्मन है, सारी उच्च एवं निम्न जातियां विरोध में है, प्रगतिशील से लेकर जेंडरवादी भी असहमत है, संघी, कामी, वामी और सपाई, बसपाई तक विरोध में है क्योंकि लोमड़ी की कोई नीति नही, कोई सिद्धांत नही, उसूल नही, बस एक मात्र स्वप्न कि राज करना है, हवाओं में उड़ना है, अपनी वाहियात बातें थोपना है, दूसरों पर शासन करना है और सबको मूर्ख मानकर स्वतः को श्रेष्ठ साबित करने का गुमान है और शुरुआत गधे से हो ही गई है
पर लोमड़ी यह भूल गई कि अंग्रेज़ी में कहते है - "आप भले ही बुद्धिमान हो - पर दूसरे सभी गधे नही होते", गधा स्वामिनी भक्त है, अपनी जात, परिवार, इज्ज़त, स्वाभिमान और ज़मीर गिरवी रखकर एक गधी, सॉरी लोमड़ी के कुंठित स्वप्नों को पूरा करने में लगा है
लोमड़ी हर युग का और हर क्षेत्र का परम और अंतिम सत्य है मित्रों
[इसका चुनाव, साहित्य या सामाजिक कार्य से कोई सम्बन्ध नही है]
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छोटी उम्र से जैन धर्म में आकर सन्यासी बन गए, सोशल मीडिया पर सक्रिय रहकर कितने ही मित्र बनाये और कितने ही लोगों का पथ प्रदर्शन किया
दो साल पहले जब रतलाम, जावरा से गुजर रहे थे तो मुझे कहा कि बड़े भाई आ जाओ, हम श्रावकों के संघ में चलो, थोड़े दिन संग रहो तो जीवन का आनंद मिलेगा, फिर जब जोधपुर पहुँच गए तो कहा कि यहाँ चातुर्मास है आ जाओ - सत्संग करेंगे, जैन धर्म में अलग और अनूठे व्यक्तित्व का धनी था यह विद्वान जिसकी वाणी और कलम समान रूप से सभी धर्मों और शास्त्रों पर चलती थी, बारीक विवरण और समझाने का सहज तरीका अदभुत था , अब लगता है कि वह सच में विलक्षण था, कभी मिला नही पर लगता है पिछले किसी जन्म का सहोदर रहा होगा जो हफ्ते दस दिन में फोन पर बात कर लेता था
फिर एक दिन मालूम पड़ा कि सन्यास छोड़कर 6 दिसम्बर 2021 को जीवन में लौट आया और बोला - "भैया अब महरौली और करोल बाग में रह रहा हूँ दिल्ली में, कोई नौकरी कर रहा हूँ, आओ तो यही रहना भाई का घर है ..."
मुझे जैन धर्म के सम्यक दर्शन, स्यादवाद से लेकर महावीर और तमाम बड़े संतों की वाणी और हिन्दू, इस्लाम और ईसाई धर्म के दर्शन और इनमें मूल अंतर का प्राथमिक ज्ञान करवाने वाले अनुज और बहुत स्नेह से समझाने वाले युवा मित्र के निधन की खबर से स्तब्ध हूँ, अभी Avinash Dubey की भीत पर पढ़ा तो अविनाश को फोन किया और लम्बी बात की
पता चला कि अचानक हार्ट अटैक से मृत्यु हुई और संसार त्याग दिया शायद कल या आज
कुछ समझ नही आ रहा, तमाम बातें इनबॉक्स में सुरक्षित है, इतनी मधुर आवाज़, शांत और स्थिर चित्त के साथ समझाने का तरीका - फिर वो संथारा के बारे में हो या मेरी निजी समस्या पर सलाह देने की बात
बहुत दुखद है यह सब , हाल ही में ऋषिराज ने अपना एक फोटो भेजकर पूछा था कि "देखो भैया मैं अब तो सन्यासी नही लगता ना" अपने जीवन और बचपन में माँ पिता के प्यार ना मिलने की भी बात करता था, बहुत ही जहीन और स्नेहसिक्त व्यक्ति था
इतनी जल्दी चले जाओगे भाई, दिल्ली आना था, तुम्हे भी यहाँ आकर महाँकाल लोक घूमना था, ऐसे कोई वादा तोड़कर जाता है क्या
श्रद्धांजलि
ओम शांति
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