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Amit Joshi's Poem and HIs World - Post of 20 April 24


 || भाठ की मिट्टी से उसकी पीठ बना एक टीला ||

कभी-कभी इस वायवीय दुनिया में ऐसा लगता है कि यह वायवीयता कुछ नहीं बल्कि हम मनमिलें मित्र और एक तरह की रूची रखने वाले अब ऐसे सघन जुड़े है जैसे कोई रिश्ते हो या सहोदर हो. युवाओं में हिंदी के प्रति अगाध प्रेम और लिखने - पढ़ने की जद्दोजहद काबिले तारीफ़ है, तमाम तकनीक और रंजकता के साधन और संसाधन उपलब्ध होने के बाद कोई इस विषम समय और दारूण परिस्थिति में लिख रहा है और रच रहा है तो वह निश्चित ही बधाई का पात्र है. खासकरके कोई युवा मित्र यदि एक बेजान हो चुके मशीनीकृत शहर में नौकरी करके दौड़ते-भागते हुए, समय को साधकर अपनी टेबल पर पहुंचता है और फिर काम के तनाव, व्यवसायिक होड़, प्रेम के अनुभवों, अवसादों और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच सृजनरत है, तो यह आज के समय की अनूठी बात ही होगी और मेरे लिए यह सब स्तुत्य है और सराहनीय भी. मैंने पहले भी कहा है कि इतर भाषाओं और अंतर आनुषंगिक विषयों से आने वाले लोगों ने जो भी काम हिंदी में किया है वह अनुकरणीय है.
हालांकि लिखना किसी के लिए भड़ास हो सकता है और फिर कविता लिखना तो सबसे सरल और सहज काम है जो तकनीक ने इतना आसन कर दिया है कि आप किसी भी आसन में बैठकर-रहकर लिख सकते है. मेट्रो से लेकर दफ्तर में चाय के ब्रेक या किसी से बात करते हुए कविता लिखना कोई दुष्कर काम नहीं है, पर इस कवितामयी समय में और असंख्य कविताओं के बीच शब्दों का चयन, लेखन की समझ, भावप्रवीणता, आंतरिक स्तर पर चल रहे द्वन्द और चिंतन के साथ जो सध रहा है और एक कोरे कैनवास पर उकेर कर अपना नाम दर्ज करने की कोशिश में जो कवि है - उनमें Amit Joshi का नाम लिए बिना आज की कविता को हम समझ नहीं पायेंगे. दिल्ली विश्वविद्यालय से अर्थ शास्त्र में स्नातक अमित एक कारपोरेट में काम करते है.
“कल रात मैं
मेरी नींद का रास्ता
किसी नीरस शहर में उकेर आया था,
आज रात मैं
काइयाँ नींद में
लगने से रोकने के क्रम में
खिड़कियाँ बंद व दरवाज़े खोल रहा हूँ”
अमित दिल्ली में रहते है, युवा है और मूल रूप से गढ़वाल से आते है. इसलिए उनके यहाँ हिंदी एक अभ्यास से उभरती है - क्योकि वे अपनी मातृभाषा गढवाली जो कि एक ‘बोली’ है, में बचपन बीताकर आये है, पिता की नौकरी के कारण गढ़वाल छोड़कर दिल्ली आना पड़ा तो पढ़ाई के दौरान हिंदी - अंग्रेजी सीखी, खूब पढ़ा और साहित्य की समझ बनाई. उनके पास जो भाषा का सख्त अनुशासन और वृहद् नजरिया है, गढ़वाली भाषा के शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों और गीतों को संग्रहित कर एक विशालकाय कोष बनाने का स्वप्न है - वह अदभुत है. इसलिए जब वे रचते है और कविता में अपनी बात कहते है तो आंचलिक शब्द बहुतायत में उभरते है और बहुत सशक्त तरीके से अपना प्रभाव छोड़ते है. शब्दों के साथ प्रेम, भावना और विचार का समन्वय उनकी कविता की विशेषता है.
“दूध की दोल्ची बन गया हूँ
एक कंकड़ अंदर रख कर
दोल्ची हिलते ही
आवाज़ आती है
अब प्रेम की तुम्हारे”
कविता में कही पहाड़ की यादें है, तो कही टेढ़े- मेढ़े रास्तों में गुम हुए संगी-साथियों के लिए आप्त स्वर, करूणा की पुकार या एक नीरस शहर में रोज पग-पग की यायावरी करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की तलाश उन्हें कविता के रास्ते ले जाती है जहाँ वे सुकून महसूस करते है.
“वहाँ कुछ रौशनी जैसा गिरा
थिरकते, ठिठुरते
दरारों में फिसल के गिरा हुआ
पत्तों
के बीच
मुझको लगा मैंने तितली ढूँढ निकाली”
भीड़ में मनुष्यता ढूँढ़ने की तड़फ और आवाजों के घेरों में वे एक सिरे से दूसरे सिरे तक घूम आते है और उन्हें धरती, आकाश से लेकर पाताल और समूची पृथ्वी का असहय दर्द भिगो देता है और वे कहते है
“कितना सूना रहता है पाताल,
कितनी भारी और धीमी होती हैं आवाज़ें”
भाषा की खूबसूरती देखिये कि कैसे वे अपने शब्दों को कविता में ढालते है और अपनी बात कहते है.
“चाख के जिह्वा - नीला
जामुन, सुग्रीव से सिकुड़ी गुठली
पग-पग नीले छितरे दाग़
मठमैली बुशर्ट की बाजू
बाँह समेट हृदय को
और जेब पर जा पहुँचु,
अटका करे बौर बाल-बाल
सूखते छींटे - नीले धब्बे
जिह्वा से जेब पर आया है भादों,
नरदे पे बुशर्ट - गाड़े झाग के बुलबुलों साथ”
उनके पास बचपन और घर की स्मृतियों का एक लंबा वितान है जिसमे वो बारम्बार प्रवेश करते है और समृद्ध होकर लौटते है पर उन्हें लगता है कि यह सब इस समय में मुश्किल है, इसलिए दिल्ली में किसी चाँद को पीते हुए एक बिम्ब रचते है और किसी मद- मस्त, औघड़ शिव की तर्ज पर गले को नीला होना बताते है, यह नीला विष समय की पड़ती मार है - जो यह उनके सहित पूरी युवा पीढ़ी को पीना पड़ रहा है.
“स्मृति
अवसाद की
पीड़ा में
टूटके बिखर पड़ी
चाँद पी लेने से,
गला नीला हो गया”
एक मिथकीय कविता “इडिपस” को लेकर लिखी है, जिसमे भाषा का प्रयोग और बिम्ब अपने चरम पर है, मुझे आश्चर्य हुआ कि एक युवा इस तरह के क्लासिक्स पर भी लिख सकता है.
“भुवन के कपोल से उद्भिज तरु,
जो कंपन में ठहरी हुई थी,
अपने द्विज समेत वह पिंड उसकी गाछ पर गिरी.
थिरकते-ठिठुरते सुडौल स्कंद की दरारों के
बीच से फिसलकर पत्तों से होते हुए मिट्टी के सकोरों में
भरे जल को उद्भासित करती,
कुछ ऐसा लगा मानो सर्वप्रथम मैंने ही उषाकाल की किरणों को
धरती पर सहज पांव धरते देख लिया”
अमित संभावना से भरे कवि है और उन्हें संकोच छोड़कर अपनी कवितायेँ छपने के लिए भेजना ही चाहिए, इसलिए नहीं कि कविताओं को छपना चाहिए - बल्कि इसलिए कि आज हिंदी में अच्छी कविताओं की और समृद्ध एवं लोकभाषा के मीठे शब्दों से पगी कविताओं की जरूरत है. बस यह जरुर कहूंगा कि अभी उन्हें हिंदी कविता के साथ लोकभाषाओं में लिखा विपुल साहित्य पढने का अभ्यास भी करना होगा, ताकि मौलिकता और उनकी पहचान स्थाई बनी रहें और वे इस दौर के प्रतिभाशाली कवि बनें, स्थापित हो और हिंदी कविता को समृद्ध करें
शुभाशीष

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