जीवन के उत्तरार्ध में हम सब का मूल्यांकन रुपये पैसे से होता है, कितनी पेंशन बनी, कितनी बचत थी, फंड कितना मिला, बच्चों को सेटल कर उनके शादी ब्याह से मुक्त होकर कितना बचा - और जो भी बचा हम उसे दस बीस साल के लिए रख देना चाहते है
सारी उम्र दो जोड़ी कपड़ो में निकाल दी, बच्चे सायकिल पर और आप पैदल घूमते रहें, बीबी को कभी हार तो दूर एक मरियल सी अंगूठी ना बनवाकर दी, ढँग का खाना खाने को तरस गए पर अब जब सब जगह से मोह छूट गया तो इफ़रात रुपया सामने है चमचमाता हुआ और उसे भी फिर एक बार मीठे सपनों की भूल भुलैया में रख रहें है
पता है कभी भी मौत दबोच लेगी, कभी भी कोमा में चले जाओगे, किडनी, हार्ट या लिवर फेल हो जायेगा, लकवा मार जायेगा, कैंसर हुआ तो सब खत्म फिर वो लॉकर में या एफडी में बन्द पड़ा रुपया किस काम का - ज़ाहिर है मरने के समय हजार रुपये तो कोई भी लगा देगा लकड़ी कण्डे के - पर तुम्हारे काम तो वो सम्पत्ति काम ना आयेगी
जी लो, अपने मन की वो सब छोटी इच्छाएँ पूरी कर लो - फुल्की खाना हो सड़क पर खड़े होकर, एक ब्रांडेड शर्ट पहनना हो या जूते की जोड़, कोई महंगी शराब पीनी हो या किसी होटल में जाकर भोजन करना हो, अपने पूर्वजों के गांव जाना हो, कुलदेवी के दर्शन करने हो या गोवा के समुद्र तट पर फ़ेनी पीनी हो या नियाग्रा जल प्रपात देखना हो , हारमोनियम खरीदना हो या गिटार, हवाई जहाज में बैठना हो या समुद्र की सैर करनी हो - कर लो
इस गठरी को बाँधकर उनके हवाले मत करो जो जीवन भर मौत और हादसों का डर दिखाकर तुम्हारे सपनों और इच्छाओं पर डाका डालकर अतृप्त रखते रहें, हर कदम उठाने के पहले तुम्हे बारूदी सुरंगों का ख़ौफ़ दिखाते रहें - तुम खुद भी जी नही सकें , अपने वंशज को भी असुविधाओं में रखा, भार्या को हंसी नही दे सकें तो अब इस बचत की गठरी का क्या करोगे - औलादें कहेंगी - "कंगाल था बाप, एक जूता नही पहना सका और मरते समय सिर्फ़ दस बीस लाख ही छोड़ गया कम्बख़्त", क्या सुन पायेगी आत्मा यह सब
इसलिये जी लो, आज ही जी लो, कर लो अपने मन की, निकलो बाहर, निकालो उन दबी इच्छाओं को अवचेतन से और बकेट लिस्ट नही - आज और अभी जो करना है वो कर लो, यह धन तुम्हे कुछ नही दे सकता पर सांसारिक सुख देने का माध्यम तो बन ही सकता है, इसलिए इसे भोग लो
क्योंकि तुम्हे या मुझे पता नही है कि इस जीवन के बाद क्या है आगे, सब मूर्खों की बनाई कपोल कल्पनायें है - पाप पुण्य भी कुछ नही और सही गलत तो बिल्कुल भी नही होता कुछ - किससे चरित्र प्रमाणपत्र चाहते हो और यह मिल भी गया तो कहाँ ठोंकोगे, किसको दिखाओगे, क्या नोबल पुरस्कार की आकांक्षा है - क्यों है वह, छोड़ो सब भूलकर बस अपनी गठरी खोलो और जी लो, सिर्फ़ एक बार जी लो - जन्म के बाद से मरते तो रहें हो हर पल, अब जी लो - जिस धन को बचा बचाकर अपने कल के लिये रखा - वो कल आज ही तो है
जी लो, बस एक बार जी लो
आज पोस्ट ऑफिस में एक व्यक्ति मिला जो बेहद दरिद्र दिखा पर उसके खाते में करीब पैंतीस लाख थे, बीबी कोरोना में मर गई, बेटा बहु जर्मनी में है, पांच वर्षों से आये नही और यह बीस बावीस हजार की पेंशन में से पंद्रह हजार बेटे के सेविंग खाते में डाल रहा, इतना अमीर जीर्ण शीर्ण आदमी नही देखा था - उसे बताया यह सब फिर वो मुस्कुराकर चला गया इस वादे के साथ कि वो आज इंडियन कॉफी हाउस में शाम को खाना खायेगा, डेज़र्ट के साथ और अगले महीने से बेटे के खाते में अब रुपये नही डालेगा और हरिद्वार, ऋषिकेश जाएगा मार्च में.... उसकी आँखोँ में मौत की आगत देखी मैंने - अपनी शेष बची उम्र के दो साल उसे देकर लौट आया घर मैं कुछ ऐसे जैसे एकदम खाली हो गया हूँ...
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