निर्लज्ज है ये सरकार
18 सालों में कुपोषण से लाखों बच्चे मर गए पर कान पर जूँ नही रेंगी प्रदेश के लाड़ले और विश्व विख्यात शिवराज मामा सरकार के 18 साल के कार्यकाल में, हाल ही में हुए SRS के सर्वे में हम फिर फ़िसड्डी साबित हुए - कुछ हुआ - नही, क्यों नही राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन से लेकर जिला चिकित्सालयों में काबिज़ स्टाफ, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं जैसे #यूनिसेफ , #निप्पी #UNFPA आदि की जवाबदेही तय की जाती है जो सेवा के नाम पर स्वास्थ्य मिशन के भोपाल दफ्तरों से उप स्वास्थ्य केंद्रों तक झोला उठाकर आंकड़ों की बाजीगरी करके ब्यूरोक्रेट्स के तलवे चाटते रहते है, जबरन घुस जाते है, मक्कार और हरामखोर किस्म के फर्जी MSW जो ओपन यूनिवर्सिटी से पास है और विशुद्ध गधे है वो जननी सुरक्षा से लेकर SNCU जैसे बेहद जटिल और तकनीकी पहलुओं पर काम करते है और कुछ नही करते ये गधे, कुछ नही आता इन्हें, एक प्लेन MBBS भी यह नहीं कर सकता - तो ये उजबक क्या करते होंगे, पर स्वास्थ्य मिशन के भोपाल दफ्तर में ही दर्जनों को जानता हूँ - जो एकदम बकवास है, डाक्टर ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास "नरक यात्रा" को देखना हो तो किसी भी सरकारी अस्पताल चले जाइये एक बार, बस, मैनेजमेंट के नाम पर Health Administration के एक्सपर्ट भरे पड़े है - जो फायर सेफ्टी से लेकर मेडिकल वेस्ट के लिए रखे गए है, फिर क्यों नही इनसे यह सब होता, स्वास्थ्य से लेकर महिला बाल विकास में हजारों लोग है तकनीकी पदों पर - जोड़तोड़ जुगाड़ वाले पर फील्ड में दिख नही रहा कुछ
इस बार भी मुआवजे का खेल करके सब खत्म कर देंगे
इसी सरकार के कार्यकाल में सतना के जिला अस्पताल के SNCU में 30 ज्यादा बच्चों की जलकर मृत्यु हो गई इसमें CMHO का सद्य नवजात पोता और सद्य प्रसूता बहू तक जलकर मर गई थी - पूरा मामला ही दब गया था, आज कोई बात नहीं करता शायद 2015 - 16 की बात है
सत्ता की नीचता जब चरम पर होती है तो मृत्यु के आंकड़े सबसे पहले छुपाती है, कोरोना की मौते इसकी गवाह है और राज्य से लेकर केंद्र की सरकार इस खेल में पारंगत और बेहद निपुण है
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बड़ी संस्थाओं में क्रांतिकारी, आदिविद्रोही या बड़े वाले एक्टिविस्ट टाइप के बल्लम आ जाने से संस्थाओं के मूल चरित्र पर फर्क नही पड़ता - बल्कि इन तथाकथित तीस मारखाँओं के आने से ये बड़ी संस्थाएँ ज्यादा फर्जी, घोटालेबाज और भयानक लीचड़ हो जाती है
नए - नए आये ये बल्लम जीवन भर के कुत्सित सपनों का द्वैष, राग विराग और ऐयाशी यही आकर करते है, जिस तरह का बदला ये अपने पुराने साथियों से लेते है - उसकी कोई मिसाल आपको इतिहास में देखने को नही मिलेगी कभी
NFI
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छठ पूजा की
बधाई
सबको
सारे फोटो और त्योहार की उमंग देखकर लगा कि 2010 में फेसबुक पर या उसके पहले ऑरकुट पर जो तस्वीरें देखता था वो ज्यादा बेहतर थी, उसमे आस्था थी विश्वास और अपनत्व दिखता था
अभी पिछले 3 - 4 सालों से बाजार का प्रभाव, कैमरों की ओर ताकते लोग और भौंडे किस्म के परिधान मतलब दिखावा बहुत ज्यादा हो गया है, लोकगीतों पर भोजपुरी फिल्मों का प्रभाव, जहां पानी मिल जाये वहाँ खड़े हो जाना इस तरह की हरकतें बेचैन करने वाली है , यहाँ मुम्बई में भी दो तीन दिन से देख रहा हूँ सड़कों पर जो भीड़ है और छोटे गली मोहल्लों में छठ मनाते लोग है वे पर्व कम मना रहे मोबाइल कैमरों से फोटो खिंचवाने की होड़ ज़्यादा है
कमोबेश हर भारतीय त्योहार की यही हालत है अब और इसका कोई इलाज नही है , बाज़ार ने सब लील लिया है
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युवा द्वादश का नया संकलन फिर आ गया, छपने वालों को सबको
बधाई
सम्पादक निरंजन श्रोत्रिय जी से विनम्र निवेदन है कि "युवा" को परिभाषित और कर दीजिये - बहुत कन्फ्यूजन है कब तक युवा मानेंगे, पुराने अंकों में 50 पार दादा - दादी, नाना - नानी बन चुके हिंदी के विलक्षण पाँव पडूँ कवि और कवयित्रियाँ भी स्थान पा गई युवा के नाम पर , बल्कि कुछ रिटायर्ड लोग और कब्र में पांव लटकाए लोग भी
सुझाव यह भी है कि आमुख भी बजाय वयोवृद्ध कवियों के युवा समकालीन समीक्षकों से लिखवाया जाएं - क्योकि अभी वर्तमान में हिंदी के पटल पर बेहद तेज़ तर्रार युवा समीक्षक, आलोचक और पैनी दृष्टि से बगैर पूर्वाग्रहों के विश्लेषण करने वाले लोग है जो इन आठवी पास महान जुगाडू समीक्षकों से बेहतर है और यह हिंदी के लिए गर्व की बात है, इनकी नजर सब पर रहती है, जबकि वयोवृद्ध कवि आलोचक बहुत ज्यादा संकुचित, पूर्वाग्रही और खेमेबाजी में भयानक लिप्त है जो अपने फायदों के बरक्स दो लाइन से दो सौ लाइन में तौलते है, कब तक इन उजबकों और खत्म हो चुके तथाकथित कवियों से वही दो चार बातें 40 - 45 शब्दों में लिखकर इन्हें महान मानते रहें लोग
कड़वा जरूर है पर सच यह है कि अब ये सब चूक गए है, बरसों से कुछ लिखा नही और जो लिख रहे है - वो तात्कालिक और स्लोगन नुमा है - जो ना कोई पढ़ता है ना सहेजता है, पुराने को भुनाने में लगे ये लोग विवि में एकाध व्याख्यान मिल जाने से लेकर पुरस्कार की कामना के लिए ही जी रहें है और सारा समय सेटिंग और जुगाड़ में व्यस्त रहते है इन्हें दस रुपये से लेकर ग्यारह लाख तक के पुरस्कार की कामना रहती है और इसके लिए ये टूटे दाँत और किसी छर्रे को जो इन्हें "इष्ट" मानता है ( और खुद को सर्वहारा भी कहता है कमबख्त ) की बैसाखी लेकर देश में कही भी चले जाते है
मित्रों, उम्मीद है आप इशारे भी समझ रहें है और मेरी धृष्टता को भी समझेंगे - क्योकि मुझे द्वादश को साहित्य में मील के पत्थर की तरह देखना है जिसके लिए निरंजन बरसों से मेहनत कर रहें है पर अब हालात विचित्र है यह आप भी समझ रहें है - हिंदी को इन विवि तथा महाविद्यालय के जड़ प्राध्यापकों और इन जड़मति मठाधीशों से बाहर निकालने की ज़रूरत है - मेरे सामने इस समय युवा और बेहतरीन समीक्षकों की फौज है जो अकादमिक और अन्य पैमानों पर ज्यादा कुशल, दक्ष और मेहनती है
बहरहाल
[ नोट - मैं लेखक , कवि आदि कुछ नही एक जागरूक पाठक हूँ बस इसी हक़ से साफ़ और एकदम मन की बात लिख रहा हूँ ]
एकदम निष्पक्ष टिप्पणी कर रहा हूँ
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मूर्खता और चाटुकारिता प्रधान, पार्टी और संगठन ने सिखाई है इस कंगना नामक औरत को - जो विशुद्ध बेवकूफ है, इस पर तो सिर्फ़ अफसोस ही किया जा सकता हैं - यह कलंक है और कलाकारी और मूर्खता की चलती - फिरती मिसाल जो इनाम के लिए कुछ भी करेगी
असल में इसकी औकात ही यही है और यह खुद ट्रोल होना चाहती है, कोई फर्क नही पढ़ी लिखी औरतों और इसमें जो दिन रात धर्म और हिन्दू राष्ट्र के साथ सरकार में बैठे दो दलालों की तारीफ़ करती रहती है और इस तरह की मूर्ख वीरांगनाएं आपको अपने ही घर परिवार में मिल जाएंगी, महाविद्यालय से लेकर दफ्तरों में मिल जाएंगी - किस किसको रोया जाए
जेंडरियो से निवेदन है कि यहाँ रायता फैलाने नही आयें, जब आपको देश, आज़ादी और कंगना के वक्तव्य की समझ नही तो फालतू बकवास ना करें
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"मुझे चाँद चाहिये" - सुरेंद्र वर्मा
के उपन्यास का पहला पृष्ठ जिसमे वर्षा वशिष्ठ के अलावा उसका प्रेमी महत्वपूर्ण है जो अंततः आत्महत्या करता है, सेंट स्टीफेंस दिल्ली से अंग्रेजी साहित्य पढ़ा हुआ बन्दा जीवन में हर जगह से ख़ारिज होता है, प्रेम में भी क्योकि वर्षा की महत्वकांक्षाएँ उसकी पहुंच से बाहर हो जाती है और यही आकर वह त्याग देता है जीवन, किसी की उन दिनों हंस में टिप्पणी थी कि वर्षा जीवन में "ऊँचा उठने के लिए अपने आपको इस्तेमाल करती है और पुरुषों को नैपकिन की तरह बदलती है" - आज यह प्रवृत्ति चहूँओर नजर आती है
हर्ष नाम है जो शायद यही कहता है "मुझे चाँद चाहिए" - हर्ष - एक रोल मॉडल है मेरे लिए यह और इस उपन्यास को कम से कम 40 बार पढा है, एक - एक पंक्ति याद है - 'पीछे छूटे हुए लोग वन्दनीय है' या प्रेम की तमाम परिभाषाएं जो हर्ष और वर्षा ढूंढते है आजीवन .....
* यह मेरा निजी इंटर प्रिटेशन है
भोपाल की घटना के मद्देनजर कलेक्टर, देवास ने निजी अस्पतालों में फायर सेफ्टी उपकरण लग जाने तक मरीजों को भर्ती करने लर रोक लगा दी है - सराहनीय है यह पहल पर कब तक ये उपकरण लग जाएं इसकी कोई समय सीमा तय नही है
और इस चक्कर में हमारी कॉलोनी में रहने वाले एक परिवार के मुखिया की रात 2:30 पर मौत हो गई, उनकी 23 साला बिटिया देर रात अकेले ही अपने मरीज पिता को एक्टिवा पर बैठाकर सरकारी अस्पताल ले गई थी, निजी असप्तालो ने हाथ खड़े कर दिए, सरकारी अस्पताल में कोई विशेषज्ञ नही था, ड्यूटी डाक्टर को समझ नही आया, कोई प्लेन एमबीबीएस बैठा होगा ऊंघता हुआ कमबख्त, निजी अस्पतालों ने मना कर दिया, उस ड्यूटी डॉक्टर ने इस केस को इंदौर रेफर कर दिया और मरीज की एम व्हाय तक जाने के पहले ही रास्ते में मौत हो गई, शुक्र यह कि एम्बुलेंस मिल गई थी
क्या कलेक्टर, मुख्य चिकित्सा अधिकारी या राज्य शासन इस हत्या के लिए दोषी नही - सवाल यह है कि मुख्य स्वास्थ्य एवं चिकित्सा अधिकारी ने 2016 से अभी तक नर्सिंग होम की जाँच क्यों नही की और हर साल इन सबका रिन्यूवल कैसे कर दिया - बगैर मौका मुआयने के या लिफाफा समय पर पहुंच जाता था
देवास का जिला सरकारी अस्पताल हरामियों का अड्डा बन गया है, बरसों से लोग यही पड़े है, एक भी डॉक्टर उपलब्ध नही होता, करोड़ो रूपये का बजट बर्बाद होता है, विशेषज्ञ है ही नही - जो है वो बिल्ली के गू है - लिपने के ना छाबने के, आखिर क्यों जिला स्तर से प्रसव या दिल , किडनी फेल्योर, लीवर या कैंसर के मरीज का रेफरल इतना ज़्यादा है, और हमेंशा का यह रोना है - क्यों ना रात में उपलब्ध ड्यूटी डाक्टर और सिविल सर्जन की सेवाएं समाप्त कर दी जाए तत्काल प्रभाव से
जब इतना बड़ा जिला अस्पताल नही था - तब भी यही हाल थे और अब नब्बे के दशक से यह अस्पताल बना, फिर भी यही हाल है ; होने को तमाम नाटक मसलन ट्रामा सेंटर से लेकर कार्डियक केयर यूनिट, ब्लड बैंक आदि सब है पर कुछ काम नही करता, सुबह कभी जाईये ओपीडी के समय तो अराजक स्थिति होती है डॉक्टर्स सीट पर नही और पैथोलॉजी लेब के आगे भीड़ का अंबार
उल्लेखनीय है कि कोरोना काल में इसी जिला अस्पताल में कम से कम दो चार हजार लोग मारे गए होंगे इलाज के अभाव में - जो दर्ज भी नही होंगे, स्थानीय जन प्रतिनिधि के बारे में कहना - सुनना बेकार है , जो लोग सामंती है - राजे रजवाड़ों और ऊँचे महलों में रहते है उन तक एक बिटिया के आंसू और क्रंदन कैसे पहुंचेगा और जनता की बात करना बेमानी है - हम देवासी गुलाम है - महल के पाँव पडूँ संस्कृति के वाहक है - 40 साल से एक ही राजपरिवार और वंशवाद को बढ़ावा दे रहे है और कोसते कांग्रेस को है - धिक्कार और धिक्कार है सब पर
शर्म मगर उनको आती नही है
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बाल दिवस की शुभ कामनाएँ बच्चों के साथ उन्हें भी जो परिपक्व उम्र के बाद भी अपना बचपन सँजोये हुए है और यदा कदा बड़प्पन दिखाते है
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नेहरू को जितना कोसना है कोस लो, तुम मिटा नही पाओगे और ना कभी बराबरी कर पाओगे अनपढ़, कुपढ़, गंवारों और सत्ता के भूखों
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देश के गौरव सम्माननीय प्रधान मंत्री 15 नवम्बर को भोपाल आ रहें है हबीबगंज से देश को मुक्ति दिलाकर "रानी कमलापति स्टेशन", का नामकरण करने को - पर इससे पहले जरूरी बात कि
अबै ओये मप्र के हिंदी वालों, माड़साब, प्रोफ़ेसर साहेबान, कवि, कहानीकारों और संस्कृत, बौद्ध अध्ययन, पत्रकारिता के राष्ट्रीय और अटल बिहारी से लेकर एक्ट सेक्ट और रवींद्रनाथ विश्वविद्यालयों के बल्लमों
मप्र के मंत्रियों को पति, पती और पटी में अंतर तो सीखा दो मालिक
ढेर पोस्टर आ रहें है सरकार के भी, पीआर एजेंसी के भी और गोलू, भोलू, लालू, कालू, टॉमी या चेरी दीदी - भैया टाईप भी - सबके पोस्टर गलत वर्तनी से भरे पड़े है कमबख्त मोदि भी लिखना नही आ रहा नरेंदर मोदि लिख रहे हैं
क्या है ना कि भाजपा सरकार और इनके आनुषंगिक संगठन संघ और विश्व हिंदू परिषद आदि संस्कृति, भाषा की शुद्धता, शुचिता पर बहुत जोर देते है, देववाणी पर फोकस रहता है पर अचानक खिचड़ी खाते हुए जैसे कंकड़ आ जाता है वैसे ही लगता है जब पढ़ता हूँ कि " रानी कमला पटी" तो शर्म आती है कि क्या स्तर है नेताओं, मंत्रियों और पीआर टीम का - अरे कुछ तो इज्जत करो और कुछ नही तो ढंग के आदमी से प्रूफ ही पढ़वा लो रिलीज़ करने के पहले
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हिंदी में या साहित्य में महान होना हो तो साहित्य, साहित्यकारों, हिंदी - अँग्रेजी, संस्कृत के माड़साबों से भयंकर दूर रहें, फिर सबसे पहले लेखक या साहित्यिक होने के मुगालते दूर करें, फिर सब साहित्यिक लोगों को अलविदा कहें और चुपचाप पढ़े लिखें और अंत में लिखें हुए पर बुकर, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, नवोदित टाईप जुगाड़ू या अंत में साहित्य का नोबल प्राप्त करें
[ भोत साल पेले मुक्तिबोध चच्चा ने बी येइज बोला था - "जो व्यक्ति साहित्यिक दुनिया से जितना दूर रहेगा, उसमें अच्छा साहित्यिक बनने की सम्भावना उतनी ही ज़्यादा बढ़ जायेगी साहित्य के लिए साहित्य से निर्वासन आवश्यक है" ]
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क्या पढ़े विजय बागची ने पूछा
मेरा जवाब - सबसे सही है पढ़ना बन्द कर दो खासकरके समकालीनों को, हिंदी के प्राध्यापकों को जिनकी हर माह किताबें आ रही है मानो पापड़ बड़ी उद्योग चला रहे है, सम्पादकों को भी मत पढ़ो क्योकि अब ना वो सम्पादक रहें ना उनकी समझ, ये प्रकाशक की लाइन पर चलते है, समकालीन कहानीकारों, कवियों को भी मत पढ़ो - दस अध नंगे फोटो डालकर बीच मे एक कविता फंसा देना और लोग बंधुआ की तरह उसे भी लाइक करके कवि को महान बना देते है, कम से कम ऐसे प्रकाशकों को तो बिल्कुल मत पढ़ो जो हर माह सौ शीर्षक छाप रहें है - पच्चीस हजार लेकर या हिंदी के प्राध्यापकों को उपकृत कर रहें हो, कवयित्रियों के लटके झटके सहकर छाप रहें है
बस क्लासिक्स पढ़ो, दूसरी भारतीय भाषाओं का अनुदित क्लासिक्स पढ़ो, विश्व साहित्य सुगमता से उपलब्ध है, उसे पढ़ो, खुद लिखो खूब लिखो बार बार उसे पढ़ो, सम्पादित करो, परखो फिर फिर लिखो - एक कविता, एक कहानी के कम से कम दस ड्राफ्ट बनाओ ना कि हर किसी को दीवाली से लेकर मैय्यत विशेषांक के अंक में सप्लाय करने को कच्चे माल की तरह हर किसी को कुछ भी भेजते रहो, घटिया पत्रिकाओं और रोज टनों कचरा छापने वाले पोर्टल में भेजना बन्द कर दो - इन्हें पत्रिका, अख़बार या पोर्टल का पेट भरना है रोज - रोज क्योकि इनका ये धँधा है अपना नही
मैंने इधर यही किया है, रिश्ते खराब होते है पर मुझे कौनसी किसी विवि में नौकरी करनी है या पुरस्कार लेना है जमीर बेचकर, या अपनी पीएचडी करनी है या सेटिंग करना है
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