घोड़े पर बैठे कलेक्टर की याद - अलविदा जोगी
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जगह जगह दुर्गा की मूर्तियां स्थापित है, प्रशासन चेतावनी देता है कि इनका विसर्जन कर दें परन्तु दुर्गा समिति के लोग नही मानते, रात को अचानक पुलिस की गाड़ियां आती है और सारी मूर्तियां उठा ले जाती है और क्षिप्रा नदी में विसर्जित कर आती है
यह शायद 1984 - 85 की बात है बाबरी मस्जिद ध्वंस के लिए माहौल बन रहा था धर्मांधता चरम पर थी, दोनो ओर से फासीवादी ताकते एक हो रही रही थी, देवास में लोग धमकी देते है कि जुलूस निकालने की इजाजत दी जाए या जितनी जगह मूर्तियां स्थापित उतने ही स्थाई मंदिर बन जाएंगे
देवास में एसडीएम सुश्री मधु कपूर थी जो बाद में मधु हांडा बनी और नरोन्हा अकादमी के महानिदेशक पद से सेवानिवृत्त हुई , वे अजीत जोगी के नेतृत्व में फ़ौज लेकर आती है रातम रात मूर्तियां उठवा ली जाती है और मूर्तियों को ससम्मान विसर्जित भी कर दिया जाता है क्षिप्रा नदी में - सुबह सब ताकते रह जाते है
उस रात मधु कपूर को और इंदौर कलेक्टर को घोड़ो पर रात भर शहर में घूमते हुए देखा था, थोड़े दिनों में ही अखबार में पढ़ा था कि वे राज्यसभा के सदस्य मनोनीत किये गए थे जब इंदौर कलेक्टर से इस्तीफा दिया था करोड़ों के भ्र्ष्टाचार का आरोप था उस जमाने मे
छत्तीसगढ़ जाने पर बालौदा बाजार से लेकर बस्तर, कौन्डागांव, किरंदुल, गरियाबंद , दंतेवाड़ा, जगदलपुर, विश्रामपुर या सुकमा या दुर्ग, अंबिकापुर, भिलाई , मनेन्द्रगढ़ में उनके किस्से सुनाई देते थे, रायपुर के मित्रों से सुना भी और देखा भी कि कैसे रायपुर - बिलासपुर पिछड़े थे पर उन्होंने चमकाया और आज देश के उन्नत शहर है
कांग्रेस को साफ करने में भी उनका हाथ था यह भी बुदबुदाहट थी पर प्रशासनिक अधिकारी से मुख्यमंत्री तक पहुंचने वाले पहले ब्यूरोक्रेट थे देश के, अपनी बेटी की लाश को तीन चार साल बाद खोदकर छग ले गए थे इंदौर से , पत्नी का मेडिकल कालेज इंदौर से रायपुर ट्रांसफर करवा लिया था , आखिरी दिनों में राहुल और सोनिया से अनबन
एक बार मिला था दो वर्ष पहले कोरबा में रात को गेस्ट हाउस में साथ खाना खाया था, तब याद किया था देवास के तत्कालीन कलेक्टर मिथन सिंह जी को और केपी कॉलेज के पूर्व प्राचार्य कर्नल खोचे को
एक आदमी के इतने किस्से कि कागज और शब्द कम पड़ जाए और आखिर वो सीमा आ गई कि इन सबको विराम देते हुए कहा जाए
"अलविदा अजीत जोगी"
जीवन के भरपूर 74 वर्ष जिये और अपने हिसाब और पूरी ठसक के साथ - तारीफ तो बनती है बॉस - जोहार
नमन और श्रद्धांजलि
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40 दिनों के खर्च का रुपया 25 दिन में स्वाहा :
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कहने की बात है -लॉक डाउन में सब्जी वालों ने, मुहल्ले के किराने वालों ने सबसे ज्यादा कमाया है मनमाँगे दामों पर सामान बेचा है -सब्जी वालों को चलो बख़्श दें पर इन छोटी दुकानों को माफ़ करना मुश्किल है थोड़ा
अभी तीन माह के खर्च का विश्लेषण कर कुछ लोगों से बात की तो लगभग यही निष्कर्ष निकलें है, अब मॉल खुलेंगे तो समझ आएगा इन्हें, एक मोटा अनुमान यह है कि "जितने खर्च में सवा माह का सामान आ जाता है डी मार्ट या अन्य मॉल से वही इन दुकानों से छुटपुट छुटपुट लेने पर यह सामान 25 से 26 दिन के बराबर हुआ है यानी एक पूरे माह का भी नही"
इसलिये अब साफ हुआ कि क्यों जनता मॉल में जाती है - ऊपर से स्थानीय दुकानों पर मनमाँगा सामान भी नही मिलता - ये लोग जो होता है वह थोपते रहें है इन 3 माह में - ऊपर से तुर्रा कि लेना हो तो लो , नही तो जाओ - ग्राहक मजबूर था और पुराना माल भी लेना पड़ा, और नगदी चाहिये, कार्ड नही लेंगे, गूगल पे या अन्य कुछ नही- पूरे डिजिटल की वाट डाल दी, अपने घर भरकर दो साल का शुद्ध मुनाफ़ा कमा लिया है इन्होंने यह अतिश्योक्ति हरगिज नही
किसी को जीएसटी वाला बिल दिया हो तो बताएं, क्या ये सरकार को टैक्स देंगे या इनके जीएसटी खाते भी है, घरों के आगे खुली शटर में जो सामान बेच रहे हैं वह कितना सही ग़लत नही मालूम, ना जलन या प्रतिस्पर्धा है इनसे ना कोई द्वैष है पर मानवता की उम्मीद सिर्फ मध्यम वर्ग से करेंगे कि वह स्तर भी मेंटेन करें, दान भी दें, उसे कोई सुविधा भी ना मिलें और वह चुपचाप अपना शोषण भी होने दें तो यह सब नही चलेगा - मध्यम वर्ग की आह सबसे बुरी होती है हुजुरे - आला, आत्मनिर्भरता का कोई अर्थ नही, मैं तो बिल्कुल हिमायती नही इस तरह के टुच्चेपन से - भाड़ में गया तुम्हारा आत्मनिर्भर का सिद्धांत - साला खुले आम लूटने लगे ये लोग और माल भी घटिया तो भाड़ में जाये आत्मनिर्भरता - हिंदुस्तानी आदमी की नीयत हमेंशा से ही टुच्ची रही है - मैं खुद भी टुच्चे पन में जीता हूँ इसलिये कह सकता हूँ - आखिर इस तंत्र और समाज ने ही इंजेक्शन दे देकर मुझे ऐसा बनाया है ना - क्या उखाड़ लेगा कोई
गैस की टँकी देने आया तो वह 50 /- अतिरिक्त की उम्मीद करें, सफाई कर्मचारी आये तो रोज कुछ उम्मीद करें व्यक्तिगत रूप से मासिक देने के बाद और उसे नगर निगम से तनख्वाह मिल रही है - अच्छी खासी, स्थाई कर्मचारी है वो, कचरा गाड़ी वाला कहता है दो किलो सब्जी दिलवा दो साहब, काम करने वाली बाई को तनख्वाह के अतिरिक्त चाहिये जबकि तीन माह से काम बंद है - यह सही है कि वह किससे अपेक्षा रखेगी पर अतिरिक्त कहां से दें भाई - वह भी यह कि किराना भर दें घर का या दो क्विंटल गेहूं भर दें , ढोल वालों से लेकर शनि महाराजों का क्रम नही टूटा और वे भी अतिरिक्त की डिमांड पर रहें - हमने मदद की जितना यथायोग्य हो पाया, यह समय उस सबको गिनाने का नही है , पर ये सब मध्यम वर्ग से क्यों - सरकार और अपने जनप्रतिनिधियों के गले क्यों नही पकड़े किसी ने जिन्होंने इन नालायको को वोट देकर जिताया - पार्षद, विधायक या सांसद के जो गायब है महीनों से और कही नजर नही आये कमबख्त
मैं मॉल कल्चर की पैरवी नही कर रहा पर सहानुभूति और सेवा के नाम पर कई लोगों ने इन छोटे दुकानदारों ने जमकर लूटा है - यह 100 टक्का सच है, बाजारीकरण और वैश्वीकरण के बाद इस मंदी में सबसे ज्यादा फायदेमंद ये लोग रहें है - रुपया कमाना ग़लत नही पर जिस तरह से कमाने की प्रक्रिया और विचार है वह बेहद गम्भीर और ग़लत है
गुस्सा हूँ और यह वाजिब गुस्सा है - छोटे कस्बों में यह सब ज़्यादा ही हुआ है और इंदौर जैसे शहरों में सब्जी के नाम पर नगर निगम ने लोगों को लूटा और संगठित बेईमानी करके अपने लोगों को फायदा पहुंचाया है
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आज कौन लाइव आ रियाँ है भिया और भैंजी लोग बता दो - रुपये एडबाँस में डाल दो जिसके आज दोपहर 1230 बजे तक मेरे अकाउंट में ई ट्रान्सफर हो जाएंगे उसके सामने अपून बैठ जाएगा - रेट याद हेंगे कि नई
भोत गर्दी रेती है दिनभर ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर करने कूँ भी टैंम नी मिल रियाँ है और अब तक 56 हजार खाते में आ गए हेंगे
हाँ तो बोलो आज कौन आ रियाँ है टैंम बताओ
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