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पसीने से भरा मई 30 April 2019


पसीने से भरा मई – उम्मीद के सफ़र के लिए सुनो पुकार
संदीप नाईक



सूरज लगता है सातवें घोड़े पर सवार होकर भुनसार में ही निकल पड़ता है अपने रथ पर सवार होकर वो गर्मी से त्रस्त और पस्त लोगों को सुबह - सुबह ही आंखें मलने पर मजबूर कर देता है, लोगों की नींद जैसे तैसे अभी अभी लगी ही थी कि किसी जमींदार की ठसक में अकड़े सूरज बाबू खबर लेने पहुंच जाते है, हाथ में तीखा ताप है और चहूँ ओर तपिश अपनी रश्मि किरणों के कौड़े लगाते वे सबको अपने प्रकाश से चुंधियाते हुए उठा देते है

लोग हैरान है कि क्या हुआ, अभी तो रातभर के संघर्ष के बाद हवा के ठंडे झोंको को तरसते हुए आंख लगी ही थी कि नींद उचट गई , अलसाते हुए आंखें मलकर उठ बैठते है और याद आता है कि पानी नही है, बगैर कुल्ला और ब्रश किये निकल पड़ते है हाथों में बाल्टी, ड्रम, हंडे, गगरे और वो सब उठाकर जो पानी समेट सकेगा - नल सूखे पड़े है, कभी टपकते है तो भीड़ लग जाती है, बोरिंग की जगह पर सुबह तीन बजे से लाईन लगी है - ऊंघते अनमने लोग सायकिल के कैरियर पर सिर टिकाए खड़े अपनी बारी की बाट जोह रहे हैं, दो ड्रम पानी इस समय रोज़गार, रोटी और बीमारी से बड़ी चिंता है, जिसको दो ड्रम मिल पानी मिल गया है इस भीड़ में वह कालजयी सम्राट है और उसके चेहरे पर जो स्निग्ध मुस्कान है उसका वर्णन अकल्पनीय है, कुछ  लोग है जो गड्ढों में उतरकर लोटा लोटा पानी सहेज रहें है , सूखी पड़ी नदियों में गर्म रेत के बीच सूरज डूबने के साथ अपने हिस्से के गढ्ढे खोद आते है, दो - दो हाथ और फिर सुबह से जाकर घर की स्त्रियां, बच्चे उन गड्ढो में अपनी मटकी, बाल्टी, हंडा या गगरा लेकर बैठ जाते है - मटमैला पानी निथारकर घर ले आए रहे है - हेण्डपम्प और कुएँ से भरोसा उठ गया है अवाम का, अब कुएं में झिर है ना हेण्डपम्प में पानी - चार सौ फीट नीचे से खींचने में हाथ टूट गए है कमाल यह है कि पानी पिलाना जहां पुण्य का काम था, प्याऊ लगते थे धर्मार्थ - अब उस देश में एक बूंद पानी कही निशुल्क नही है, नदियाँ, कुएं, बावड़ियां, तालाब चीख चीखकर पुकार रहें है कि सुनो भाई साधौ पर कही कोई नही सुनता ....

इन सब संघर्षों से जूझते हुए जैसे तैसे दोपहर बीताकर आप सोचे कि शाम किसी बगीचे में चले जाएं तो यह भी एक सपना ही है, ना वहाँ पेड़ है ना हवा - सूखे पड़े मैदान में पत्थर की बेंच पड़ी है, चाट वाले है, गन्ने के रस की मधुशाला लगी है और कुछ बच्चे है जो पीली जर्द घास पर खेल रहे है ये बच्चें एक भ्रम रच रहे है कि यह बगीचा है . पहाड़ी सूनी है उनके वक्ष पर पेड़ नही एकाध पेड़ दिखता भी है तो आस बंधती है कि अभी सब कुछ खत्म नही हुआ है , घरों में दफ्तरों में और खेत की मेड़ पर भी अब पौधे और पेड़ नही दिखाई देते, चिड़िया -बुलबुल या मैना का चहकना मानो सदियों पुरानी बात है , प्रचंड गर्मी का साम्राज्य है और इसमें सब पीस रहें है -कोस रहें है प्रकृति को पर एक बार अपबे गिरेबान में हम झांकते नही कि सिर्फ पेड़ पानी ना होने का जिम्मेदार कौन है 

अभी राजस्थान के थार रेगिस्तान से लौटा हूँ मानो काले पानी की सजा काटकर लौटा हूँ पर जो देखा वह अप्रतिम था, उनके पास अभी भी दो साला का पानी सिंचित है. वहां सात से दस इंच ही मानसून की बरसात होती है, कुछ इलाकों में तीन इंच जितनी कम भी, पर उन लोगों ने हर बून्द को ना मात्र सहेजना सीखा है बल्कि उसे संरक्षित कर अवेरने का भी बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया है और इस जल युद्ध की तैयारी आरम्भ होने का माह है मई - जैसे हमारे यहां किसान खरीफ की फसलों के बाद सूखे पड़े खेत में हाड़तोड़ मेहनत कर मिट्टी को भुरभुरा करता है बोअनी के लिए - वैसे ही वो लोग अपने तालाब, कुओं और पानी के संरक्षण के लिए परंपरागत स्रोतों को साफ करते है, छतों को साफ करते है ताकि मानसून की पहली बून्द भी जाया ना हो- मई जहां भयावह तपिश का माह है वही यह एक व्यापक तैयारी का भी माह है जब दुनिया झुलसते हुए अपने आने वाले स्वर्णिम समय के लिए पसीना बहाकर सूरज को ठेंगा दिखाकर एक नई दुनिया का वितान रचते है

मई माह दुनिया भर के मजदूरों का भी माह है जो इस माह के पहले ही दिन मनाया जाता है , दुनिया में श्रम की गरिमा को इस तप्त गर्म माह की पहली तारीख को मनाया जाना ही दर्शाता है कि परिस्थिति कितनी ही विपरीत हो - अँधेरी गुफाओं से निकलकर पहाड़ों को काटकर मनुष्य ने श्रम से दुनिया बदली है, आज दुनिया की जो खूबसूरत तस्वीर दिखाई देती है वह पसीना बहाए मुकम्मल नही हो सकती थी, आज हमने प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करके पेड़, पौधे और पानी सब खत्म कर दिया, अब मेहनत ज़्यादा करना पड़ रही है - एक सांस लेने में और हलक तर करने में, पर अभी भी समय यही है कि हम सम्हल जाए और मई में सब पसीना बहाने को तैयार हो तो कोई समस्या मनुष्य बल के सामने बड़ी नही है. हमारे झाबुआ के आदिवासी जो पेड़ रोपने का काम सामूहिक रूप से इसी माह में करते है या जोधपुर बाड़मेर में लोग मेहनत करते है - पानी की हर बून्द को सहेजने की या अब कई जगहों पर कुएँ, तालाब , बावड़ी को साफ करने की - वह सब सीखने योग्य है, पेड़ जलाने से पेट और चूल्हे की आग तो शांत होगी पर पेड़ लगायेंगें नही तो अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या देंगे विरासत में, मॉल  में जाकर एसी में घूमना ठीक हो सकता है पर एक बार सिर्फ दो मिनिट के लिए कमरे के बाहर लगे एसी के सामने खड़े होकर देखा है कभी

मई माह किसान, मजदूरों से प्रेरणा लेकर पसीना बहाते हुए अपने जीवन के आने वाले सुहाने दिनों का माह है वो कहते है ना सफलता का कोई शार्ट कट नही और सफलता पसीना बहाए बिना आ नही सकती, ये माह विश्व को वैज्ञानिकता से ओत प्रोत बुद्ध धर्म देने वाले गौतम बुद्ध के जन्म का भी माह है जिन्होंने सब कुछ त्यागकर संसार को नई दृष्टि दी और आज तक विकास और धर्म की नई राह दिखा रहें है, और ध्यान रहें कि बुद्ध को बोधिसत्व के पेड़ के नीचे ही मिला था किसी मंदिर या गिरजे में नहीं इसलिए पेड़ है पानी है तो जीवन है धर्म और आस्था है.




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