पिछले दिनों मुम्बई में था एक लम्बे समय रहा तो कुछ नए कोण से मुम्बई को देखने की कोशिश की है
मुम्बई -1
रेंगने से जीवन निराकार होता है
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दुख वहाँ अमरबेल की तरह हर दीवार पर रेंग रहा था, सुख किसी घण्टी की तरह घर में बजता और चंद सेकेंड में बजकर खत्म हो जाता, दुख के आईनों में हर अक्स धुँधला जाता और सुख की धूप जब घर के फर्श पर पड़ती तो अवसाद की परछाईयाँ घनीभूत होकर यूँ निकलती मानो वे पसरकर अब ओर फैल जाएंगी
तीन प्राणी एक अर्धविकसित शैशव और आसपास अंगना चौबारे से जीवन के भयानकतम रूप में फैली आशाओं का उद्दाम समुद्र जो हर पल हर सांस और चलते फिरते क्षणों में दुआ माँगता रहता, जिंदगियां हर सांस में भरपूर उम्मीदों को लेकर जीने की हौस हादसों से घबराती और फिर रोज़ रोज उगते सूरज के संग एकाकार होकर शीतल चांदनी का इंतज़ार करती
एक अपाहिज व्यथा सी रिक्त होती आस्थाएं समय के दुष्चक्र पर दर्ज हो रही थी और दूसरी ओर विकास की घुड़दौड़ से पिछड़ा मानव तन मन अपनी वाणी को तो दूर स्पर्श, सुवास, देखने - सुनने से वंचित था और इसी लोक में बेचैन और उद्धिग्न होकर लगातार मन ही मन गूंथता बुनता रहा पर वे तार ना जुड़ पातें ना रेशा रेशा बिखर पातें - जो था वह यही था इन्ही सर्द गर्म दीवारों में और सब एक दूसरे की ओर टुकुर टुकुर से देखतें और दीवार पर बजने वाली घण्टी का इंतज़ार करतें
जीवन की शाश्वतता से इनकार नही किया जा सकता पर सुखी है वो लोग जो सांस लेते है, समझते - बुझते है और पांचों इंद्रियों को समझकर जीने का उपक्रम करते है, दुख को दुख मानकर दर्ज करते है और सुख की घण्टी को देर तक झंकृत होते सुनते है - यह दोनो चरम स्थितियां अगर आपने समझी हैं तो आप यकीनन उन सबसे परे है जो रोज के मायावी यथार्थ से दूर जाकर असलियत के पंजो पर खड़े होकर आसमान में अपने प्रारब्ध को खोजकर तसल्ली से लम्बा उच्छ्वास भरते हो और छोड़ कर नीचे लौट आते हो कि अभी सब कुछ खत्म नही हुआ है
मुम्बई - 2
हंसो कि जीवन बस अभी यही है
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हंसते जोड़े थे, युवा मन थे, एक मधुर मादक आवाज थी और सब झूम रहें थे उसके इशारों पर, थके मांदे लौटे थे आत्मा पर सदियों का बोझ लिए निस्पृह से और यहां आकर मदमस्त थे - एक सहकर्मी का बेटा एक साल बड़ा हुआ था इसी शहर में, उत्सव तो बनता ही था
कुछेक के बच्चे थे और बाकी इन सवालों पर कुछ नही बोलते थे मानो दूर दराज़ बसे अपने लोगों के दो जून की रोटी और इस माया के भंवर जाल में फंसकर अपने बीज को भूल ही गए हो
सप्ताहांत में होने वाले इन ठहाकों से लौटकर जब जीवन दस बाय दस के कमरे में रात दम तोड़ता तो दिमाग़ के कीड़े कुलबुलाते और फिर लगता कि एक झाग ही बस पर्याप्त है फिर मग में भरा हो या समंदर में
सुबह आँख खुलती तो उमस की चिपचिपाहट से शरीर की थकावट दूर होने के बजाय अठखेलियाँ करने को बेचैन हो जाती और फिर अस्त व्यस्त शरीर एक शरारत से नाचने को उन्मुक्त हो जाता - एक फोन घर लगाकर फुर्र हो जाते कि सब ठीक है - छुट्टी मिलेगी तब आ पाएंगें अभी तो बहुत कम है
फिर सब भूलकर कही दूर निकल जाते सामान बिखराकर दिल में शेर सा हौंसला लिए कि जो अतृप्त होगा जीवन में वही मरेगा सुखी और फिर काया का क्या है तन का सुख सारे अवसाद, प्रलाप और तनावों से बड़ा है - इतना कमाकर जब संसार के सुख सबको जुटाकर दे रहें हैं तो अपने लिए एक चिथड़ा सुख भोग लेने में क्या हर्जा है
मुम्बई - 3
सपनों में अपने
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थकान से बड़ी उम्मीद आशा की प्रसव पीड़ा थी जो निर्मोही शहर में सबको सबसे जोड़ती थी, यह उन सबके पेट से ज्यादा दिमाग़ में थी जो परदेसियों को एक बहुत कोमल किंतु शुष्क रेशे के बंधन से हवा में बांधती थी
इलाहाबाद के शुक्लपुर नामक गाँव से आये हुए दस साल बीत गए एक दिन घर से भागा था ट्रेन में और यहां आकर गटर के पाइप में आंख खुली तब से जीवन उस पाइप से लेकर अभी के पक्के चौड़े मोटे मुंह वाले पाइप भर में बदला है
एक सपनों की दुनिया है विवियाना और तीसरे माले पर दो कुर्सियां जो दिनभर में सैंकड़ों लोगों को हाथ, पैर, कमर, घुटने, टखनों और काँधों का मसाज देकर रात बारह से सुबह ग्यारह तक सोती है और गयादीन भी - पाइप से निकलकर रास्ते में दो वडापाव खाकर सीधे ऊंघते हुए यही आ जाता है
जमाने के थके, मोटे, तुण्दियल और हाथ मे रोटी लपेटे चीज़ चाबते लोग जब मसाज करवाने जो ग्यारह से बैठते है तो रात बारह बजे तक धरती की थकान भी नही मिटती, दिन में एकाध सड़े आलुओं का बेक समोसा और रात चौबीस रुपया देकर बेस्ट की ठंडी बस में दहिसर के उस पाइप जिसे वह घर कहता है, में लौटता है
एक सस्ती सी शराब और पोल्ट्री फार्म के खराब अंडों या लगभग बदबू मारते मुर्गे को खाते हुए दस बरस बीत गए - हाथ पांव गल गए और आंखें धंस गई है, हंसता है फिर भी और हाथ उठाकर नमाज के बखत अल्लाह का और किसी भी मन्दिर या गेरू पुते देवता रूपी पत्थर के आगे सिर झुकाता है
बड़बड़ाता है या बुदबुदाता है नही पता पर एक बात कहता है गांव में बाप - महतारी को बहिना के ब्याह के लिए बिला नागा रुपया भेज रहा है, तीन साल से गया नही घर , एक लड़की थी जिसे बहुत प्यार करता था उसकी भी खबर नही कोई - कुर्सी पर कोई बैठा होता है मसाज करवाते तो एक बार चिकट बटुए में देख लेता है तस्वीर उसकी, अबकी बार बोरीवली गया तो तस्वीर फिर बनवाऊंगा और दादर के फुटपाथ से नया बटुआ खरीदूंगा
जीवन मसाज की कुर्सी, पाइप का घर जो दहिसर नाके के पीछे है, विवियाना , वडा पाव और इलाहाबाद के शुक्लपुर के बीच खप गया है - उसके ख्वाबों में गांव की लड़की आती है - अपने कमरे में वो एक साढ़े तीन लाख की कुर्सी लेकर बैठा है लड़की मुस्कुरा रही है कि उसके तलुओं में गुदगुली हो रही है वह स्पीड बढ़ाता है और अचानक लड़की को करंट लगता है और वह चीखती है - गयादीन नींद से जागता है और अपने ही पसीने की बदबू से परेशान होकर हंस देता है - साला क्या चुतियापा है, वो लड़की क्यों आएगी यहां मसाज करवाने और अगर आ भी गई तो क्या मुझसे मिलेगी और मिली भी तो क्या मैं उससे सौ रुपये लूंगा - नही, नही , नही
पर फिर जवान होती बहन का चेहरा घूमता है वह उदास होता है - एक आवाज अपने आपको देता है जल्दीकर नई तो 65 नम्बर निकल गई तो साला ऐसी में जाने कूँ पड़ेगा और फोकट में टाइम भी खोटी होयेगा और मस्का चाय वाला बी निकल जायेगा
अपनों की दुनिया के सपने आना जीवन को ईच बर्बाद करने जैसा है, इधर ही घर बसाने का है अपुन को, एकाध खोली वाली कोई लड़की है क्या खोपोली से लेकर वसई गांव या घोड़बंदर गांव ने भी चलेगी, रोज मस्त मसाज कर दिया करूँगा उसकी
मुंबई - 4
इंसानों से ज़्यादा चौपहियों की जातियाँ
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मुम्बई की जात क्या है - नीली, हरी, भगवा या लाल , याद रखिये देश प्रेम का झंडा किसी के डंडे में नही है, कल नीले और भगवा का सम्मिश्रण था, एक अवांगर्द भीड़, बैंड, खुली जीप, कानफोड़ू डीजे और नाचते थिरकते युवा, गहरे अवसाद में डूबे लोग, पसीना चूहाते लोग, रंग बिरंगी चश्मे पहने लोग, बेहद काले, पर उज्ज्वल कपड़े और मुंह में गुटखा ठूंसे सड़े दाँत और ट्यूबवेल के समान पेट से निकली लार को यहां वहाँ थूकते लोग
बाला साहब के फोटो सँग भीमराव का फोटो, हर चौराहे पर हैसियत, औकात और चंदे की प्राप्ति अनुसार भीमराव का पुतला रखा था, ये पुतले बिल्कुल दुर्गाउत्सव या गणेश उत्सव के पहले ही बिकने लगते है - हर बाज़ार और हाथ ठेलों पर, टेंट सजे है संकरी सड़कों को घेर लिया है ट्राफिक जाम है, भोंगे लगे है
खुली जीप, बसों , बाइक्स, सायकिल और फुटपाथ पर झंडे लगे है - किसने कब लगाएं मालूम नही पर "वर्गनी घेऊन जातात , काय करतात माहित नाही रे बाबा, कुण विचारेल, सेना देवरस ची असो कि भीमराया ची - अपुन को गोंधळ में पड़ने का नई, सौ दो सौ देने का और अलग होने का"
नौवारी साड़ी से लेकर एकदम आधुनिक साड़ी पहने चश्मा लगाए बैठी है औरतें, सड़क पर झांझ भी बजा रही है, हाथ मे नंगी तलवार जिसमे गुलामी का जंग लगा है पर ठसक है - पीछे सेना की ताकत और भीमराव के दिये अधिकार
रैली है, चौराहों पर आरती, प्रसाद, भंडारे, फूल मालाएं, आमदार - खासदार और वार्ड मेम्बर घुले मिलें है लोगों से - ये लोग चुनाव में ऐसे रच बस गए हैं कि लगता है अभी जादू की झप्पी ले लेंगे चाहें बुरी तरह बासते मच्छी वाले हो, जूते सुधारने वाले हो या वृहन्नमहानगरपालिका के सफाई कर्मचारी हो - एक कोने पर भगवा ध्वज लहरा रही गाड़ी की जातियाँ इंसानी खांचों से ज्यादा हैं रोल्सरॉयस से लेकर पोर्श, बी एम डब्ल्यू, मर्सिडीज, ऑडी से लेकर दलित मारुति 800 तक - जो औकात एक झटके में तय कर दे रही थी
इस सबसे दूर अंग्रेजीदाँ नॉन मुम्बईकर घृणा से देख रहें थे - इन जाहिल, गंवार और घाटी लोगों को जो "साले यहाँ आकर गंदगी फैला जाते है, ट्रैफिक जाम कर जाते है, वाट द हैल दिस सेना एंड अंबेडकराइट्स - अ बिग मैस इंडीड एंड वी द टैक्स पेयर्स , दिस ब्लडी इंडिया, द गटर गाईज़ आर एंजोयिंग आवर मनी, आय विश आय कूड़ किल ओर गिव देम अ बिग फक "
अंबेडकर जयंती पर मुम्बई एक घेराबंदी है सभ्य, कुलीन और शिक्षित समाज की - देश और प्रदेश भर से आये मैले - कुचैले , काले बासते लोग जब अपने परिश्रम के पसीने का हिसाब मांगने आते है - तो शिक्षित वर्ग की हवा टाईट हो जाती है, सड़कों पर आते - जाते इन्हें देखिये - कितनी घृणा है मुस्कुराहटों के पीछे , दूरदराज से आये लोगों को ये गोली मार देंगे मानो
संविधान , शिवसेना और दलितों के बीच नागरिक अधिकार और संविधान की प्रस्तावना के बीच जूझती मुम्बई - उफ़
रास्ता लम्बा है - शिक्षितों के लिए, अनपढ़, गरीबों और दलितों के लिए रास्ता नही है और आदिवासियों के लिए यह देश भी देश नही बचा है
कोई कुछ अब नही कहता , बस मोदी ही आएगा - यह केंद्रित बहस है पर मोदी ने क्या किया, क्या करेगा - कोई सच में कुछ नही कहता
मुंबई - 5
इतना प्यार - सम्मान दें कि वे भर जायें
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छोटे कस्बों देहातों से आये तो पढ़ने थे, बीबीए किया, एमबीए किया, बी ई किया और ना जाने क्या क्या नही किया पढ़ाई में
मेहनत कर एक गाड़ी खरीदी जिसे बाइक कह लो, एक्टिवा या स्कूटी और ज़िंदगी दौड़ने लगी , जो घर से सक्षम थे थोड़े भी बाप - महतारी ने कर्जा देकर, फसल -जमीन बेचकर बबुआ को गाड़ी ले दी कि जब लौटेगा बम्बई से तो घर भर देगा धन धान्य से और खुशियां लौंटेगी घर आंगन ओसारे में
यहां बबुआ रोज सायन, दादर, कुर्ला , दहीसर, भांडुप और अँधेरी में खो गया नौकरी लगी ही नही, कॉलेज के जमाने में हुए इश्क से कविता और तुकबंदी सीखकर शेर पढ़ने लगा, चंद अशआर समझ कर लिखने लगा तो ओपन माईक में 100 - 50 रूपये देकर जाने लगा - एक सर्किल बना - दोस्ती बढ़ी और वह फिल्मों के स्क्रिप्ट - लेखन में घुसने के ख्वाब देखने लगा
एक था इंस्टाग्राम, एक फेसबुक, एक योर कोट और बस धीमे धीमे अपने परिचय में मुम्बई में लेखक , पटकथा लेखक, गीतकार, संगीतकार लिखकर "नेम - फेम" कमाने लगा, गांव देहात में जाता तो अपनी वाल पर चकाचक फोटो दिखाता तो गांव के लौंडे जलभुन जाते चंचलाओं के संग अपने हमउम्र को देखकर
एक से मिला मैं तो युवा लेखक महाशय ने दास्ताँ सुनाई तो होश उड़ गए, अधिकांश मित्र मंडली स्वीगी, जोमैटो, पित्ज़ा हट, कुरियर या ऐसी ही किसी कम्पनी में काम कर मुम्बई दर्शन कर रहे हैं , छपरा का रंजन झा या रांची का शोभित, बर्दमान का शुभेंदु या कालाहांडी का प्रसन्नजीत अब बाइक पर समय साध रहें है - आधे घँटे में डिलीवरी के चेलेंज और जीवन की मुठभेड़ में रोज दिन में पचास दफ़े मौत से मुलाकात होती है, रीवा का शुभम ठाकुर अब अवंतिका में एसी अटेंडेंट है - पर घर मे नही मालूम
नोएडा से आई उत्पला सिसक रही थी - अभी तीन दिन पहले उसका माशूक विक्रोली में मेट्रो के बनते रास्ते के ट्राफिक में निपट गया 'ऑन द स्पॉट' लाश जब घर भेज रहे थे उसके फ्लैट मेट्स तो वह पहुंच भी नही पाई ; बोली आधे घँटे में पित्ज़ा नही पहुंचा तो तनख्वाह से कट जाता है रुपया, एम्बुलेंस से भी आगे दौड़कर सामान पहुंचाने का हौंसला था उसमें - भरी भीड़ में बाइक का जादूगर था वो, पर उसके मरने पर उसे 108 भी नही मिली - क्यों , उत्पला के सवाल का मेरे पास जवाब नही था - वह सिसक रही थी और मेरे गालों पर आंसू कब सूख गए मालूम ही नही पड़ा मुझे
सॉफ्ट वेयर इंजीनियर है, वेटर है, कुरियर वाले है, मॉल में है, होटल में कुक है, ओला - उबेर चला रहे हैं, हीरानंदानी में लाखों प्रकार के काम है , ट्रेन में एसी अटेंडेंट बन गए है, कॉल सेंटर पर जागकर हाजमा खराब कर लिया है इन्होंने, हर जगह डांट खाते, गाली सुनते और चौबीसों घँटे काम और काम के तनाव में डूबे ये हमारे देश के सम्मानित नागरिक कितने संताप और दारुण दुख से भरे हैं - यह देखना हो तो एक बार बात कीजिये
जब आप मुम्बई, दिल्ली, चेन्नई, बेंगलोर, पटना, औरंगाबाद, बनारस, त्रिवेंद्रम, हैदराबाद, वारंगल, पणजी, पूना,गाजियाबाद, गुड़गांव, जबलपुर, नाशिक, इंदौर, भोपाल , जमशेदपुर, अहमदाबाद, बडौदा, गौहाटी या देवास में हो मेरी बात और अनुरोध को मानिए - उनसे प्यार से बात कीजिये - वे हमारे ही बच्चे हैं , युवा मित्र है, वे बहुत सुशील, संस्कारित और सभ्य है
वे हमसे हज़ार गुना ज्यादा संघर्ष कर रहें हैं महानगरों में, यहाँ के रास्तों के ठौर खोजना हो या मानवीय व्यवहार, दो जून की रोटी हो या वन बी एच के फ्लैट में आठ लोगों के साथ रहने, खाने, सोने और इस सबके बीच ख़ुश और सकारात्मक रहने की चुनौती, याद कीजिये क्या उन्होंने फोन पर अपने दुख बताएं आपको, हमेंशा हंसकर ही बोलें है
अपने बच्चों को प्यार कीजिये, दुआ दीजिये और उन्हें इतना सम्मान दीजिये कि वे इस कांक्रीट के जंगल में अपने आपको हजारों कोसों दूर रहकर भी अकेला ना महसूस करें उन्हें यहां आने पर भी इज्जत बख्शिएं - इतनी कि वे अपने सपनों को एक बार फिर बुनने लगें और अपने पीछे आपकी भौतिक उपस्थिति हर पल मान लें
आंखों में आंसू लेकर यहां से विदा हो रहा हूँ तो मेरे सामने पूरी मुम्बई ही नही देवास जैसे छोटे से कस्बे में डोमिनोज़, जोमैटो का सामान लिए आधे घँटे में पहुंचाने का चैलेंज लिए युवा घूम रहे है, उनके हलक में पानी नही गुर्र - गुर्र करता गुस्सा है , हथेली पर जान हैं और वे माँ बाप के सपनों को दिमाग़ में बसाए माशूका के प्यार की ताकत से सड़कों पर अंधी दौड़ में रेंग रहें है - ट्राफिक जाम में फंसे मोबाइल के हेड फोन पर सुन रहे हैं - कितना समय और लगेगा, वाट द फक, इट्स टू लेट, वी वोंट पे नाउ...
मेरा प्यार, सम्मान इन तक पहुंचे, जब भी अब कोई कुरियर बॉय या डिलीवरी देने आएगा - उसे एक ग्लास पानी और गुड की एक डली तो मैं दे ही सकता हूँ - शायद एक बेहतर दुनिया बनाने की शुरुवात तो ऐसे भी हो सकती है
मैं द्रवित हूँ पर बेहद आशान्वित भी कि सच में आयेंगे अच्छे दिन भी
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