Ravi Sinha's lecture in Bhopal
कल न्यू सोशल इनिशिएटीव्स की एक गोष्ठी , जो भोपाल के आईकफ आश्रम में आयोजित थी, में रवि सिन्हा ने "लोक जीवन और लोकतन्त्र" विषय पर एक अच्छा व्याख्यान दिया। सबसे अच्छा लगा कि वामियों को अपने ब्लैक स्पॉट दिखाए और गरियाया भी। उन्होंने प्रस्थापना रखते हुए कहा कि लोकतन्त्र को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से खतरा है और यह खतरा लोक जीवन से आता है। यह एक तरह से आत्म चिंतन था जिस पर 36 धड़ों में बंटे कम्युनिस्टों को सोचना चाहिए।
मजेदार यह है कि चन्द अंग्रेज और मुगलों ने यही के लोगों को अपने साथ जोड़कर यही की संस्कृति को ओढ़कर यही के लोगों पर कब्जा कर लिया। रवि ने कहा कि यदि जनता के बीच कुछ मुद्दों को आज ले जाए तो इन मुद्दों को सांविधानिक स्वीकृति मिल जायेगी जैसे जाति प्रथा, सामन्तवाद, बाल विवाह, सती प्रथा या विधवा विवाह को रोका भी जा सकता है। जनता मूर्ख नही है धर्मांध है और इसी जनता ने ट्रेड यूनियन या अपने हकों की लड़ाई में वामपंथ को साथ दिया था पर सत्ता कभी नही दी। इसलिए दक्षिण का जो उभार है और हम 31 % की भूल मानकर उम्मीद करते है वह हमारी मूर्खता है।
हमे मानना चाहिए कि यह उभार भारत से लेकर दुनियाभर में हुआ है और जनता दोषी नही बल्कि जबरजस्त जागरूक है। वामपंथियों ने यु पी ए से हटकर भी गलती की थी यह बात भी विस्तार से रखी। उन्होंने कहा कि जो मुसलमान यहाँ 14 से 15 % है वह आजीवन लड़ाई के लिए पर्याप्त है यदि ये 2 या 40 %भी होते तो बहुत कम या बहुत ज्यादा होते और फिर लड़ाई का मुद्दा ही नही रहता इस बात को उन्होंने रवांडा जैसे छोटे से देश में दो आदिवासी कबिलों के उदाहरण से बताया कि कैसे 85% आदिवासियों से शेष 15 % को हिंसक गतिविधियों से उपेक्षित और हैरास किया, और इसका असर महिलाओं और बच्चों पर सबसे ज्यादा पड़ा। जिन 85 % ने 15 % कबिलों की महिलाओं से शादी की थी उन्हें समाज में ज़िंदा रहने के लिए अपनी पत्नियों और बच्चों को मारना पड़ा और इस तरह से डेढ़ से दो लाख लोग मारे गए जो मात्र 15 % थे। भारत में ये हिन्दू मुस्लिम मुद्दों को समझने का अच्छा उदाहरण है।
रवि ने गांधी के महात्मा होने की बात भी ठीक रखी। अधनंगी जनता को देखकर मगा गांधी ने भी आधी धोती पहनी तो जनता ने उन्हें महात्मा कह दिया, देश आजाद हुआ तो राष्ट्रपिता कह दिया और अब इस राज में चतुर बनिया कह रहे है। कुल मिलाकर यह एक रोचक और विचारोत्तेजक व्याख्यान था जो खत्म हुआ था इस नोट पर कि अब जिन्हें आस्थाएं है मार्क्सवाद पर वे ही जद्दोजहद करें अन्यथा छोड़ दें। भोपाल के मार्क्सवादी और साहित्यिक धुरन्धर बहुत पचा नही पाये और बाहर आकर चा में लग गए थे।
बहुत दिनों बाद भोपाल के साथियों से रूबरू होने का मौका मिला शायद 2010 के बाद, यह उष्णता और स्नेह बहुत ही ऊर्जावान था। राजेश जोशी, रामप्रकाश त्रिपाठी, विजय बहादुर सिंह, हरदेनिया जी, अनवर जाफरी, राम नारायण स्याग, सुभाष गाताड़े, कंचन, प्रदीप, राजू कुमार, अंजू, राहुल शबाना, स्मिता, सुमित, ईश्वर सिंह दोस्त, मनोज निगम, वाल्टर पीटर, सर्वेश, ब्रजेश, विशाल, भारतेंदु, राकेश मालवीय, कार्तिक, अरघा, दीपा, विष्णु, चन्दन से लेकर कई पुराने साथियों का मिलना एक ही जगह पर अनूठा था।
जावेद और उपासना ने जिस जतन से आयोजक की भूमिका भोपाल के साथियों के साथ निभाई वह सराहनीय है। सांगठनिक क्षमता के धनी ये दोनों लोग गजब के इंसान है।
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आंद्रे कर्तेश
महान हंगेरियन फोटोग्राफर
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लोग बड़े होने के बाद फोटोग्राफर बनते हैं, लेकिन मैं फोटोग्राफर के रूप में ही पैदा हुआ था। ऐसा कह सकते हैं कि आंखें खोलते ही मैंने अपनी दृष्टि से पहली तस्वीर खींच ली थी। यह बात और है कि मैंने छह साल की उम्र में पहली बार तस्वीरें देखीं। मैं अपनी बुआ के घर गया था। वहां अटारी पर कई पत्रिकाएं पड़ी थीं। मैंने कभी पत्रिकाएं नहीं देखी थीं। उनमें तस्वीरें देखकर मैं स्तब्ध रह गया। उसी समय मैंने सोच लिया था कि मैं बड़ा होकर दृश्य को इस तरह पकड़ूंगा।
पर मैंने बड़े होने का इंतज़ार नहीं किया। उसी दिन से मैंने अपने दिमाग के भीतर कैमरे का आविष्कार कर लिया था। उसके बाद से मैं हर दृश्य को एक तस्वीर की तरह देखता था। पहले मैं हाथों के सहारे एक चौखट बनाता था। उसमें से झांककर देखता था। बाद में वह चौखट मेरे दिमाग में बन गया। ज़ाहिर है, लोग मुझे सनकी समझने लगे थे।
कुछ ही समय बाद मुझे डायरी लिखने की आदत पड़ गई। मैं उनमें अपने दिन की घटनाएं नहीं लिखता था, बल्कि चित्र लिखता था। दिन में मुझे कोई दृश्य पसंद आ गया, तो मैं मन ही मन उसकी तस्वीर खींचता था। फिर शब्दों में उसके कंपोजीशन को व्यक्त करता। मुझे चित्र में क्या-क्या रखना है, क्या हटा देना है, किस पल को पकड़कर शाश्वत बना देना है, ये सब बातें उस डायरी में पूरी तफ्सील से होतीं। तब तक मैंने कैमरा छूकर भी नहीं देखा था। इतने पैसे ही नहीं थे कि कैमरा खरीदा जाए, न ही किसी मित्र-रिश्तेदार के पास कैमरा था। लेकिन उसके बाद भी मेरी डायरी मेरे खींचे चित्रों से भरी हुई थी। आज मैं अगर कहता हूं कि सफल फोटोग्राफर बनने के लिए आपको कैमरे की ज़रूरत नहीं पड़ती, तो इसके पीछे बचपन के मेरे वे अनुभव ही हैं।
जब मैं पंद्रह का हुआ, तो पार्ट-टाइम नौकरियों से पैसे बचाकर मैंने अपना पहला कैमरा खरीदा। उसके बाद मैंने खूब तस्वीरें खींचीं। उनमें से अधिकांश को मैं बचा नहीं पाया। लेकिन अब भी तस्वीरें पहले मेरे मन में खिंचती थी, उसके बाद ही उपकरण पर आती थीं।
कुछ बरसों बाद मैं हंगरी सेना में भर्ती हो गया। प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ चुका था। हम हमेशा मोर्चे पर ही रहते। मैं लगभग अकेला ऐसा सैनिक था, जिसके एक कंधे पर रायफल और दूसरे कंधे पर कैमरा टंगा होता। शुरू में अफसरों ने मुझे टोका, पर जल्द ही उन्होंने मेरा हुनर जान लिया और मेरा सम्मान करने लगे। युद्ध ने दृश्यों की संरचना के मेरे अभ्यास को मजबूत किया और मैंने तस्वीरों में जीवन की दार्शनिकता को छूना शुरू किया।
एक बार बमबारी में मैं बुरी तरह घायल हो गया। मैंने छर्रों से अपना कैमरा बचाया। मैं बिस्तर पर पड़ गया। मेरे बायें हाथ और बाकी शरीर ने काम करना बंद कर दिया था। पर मेरे पास एक हाथ बचा हुआ था। मैं अस्पताल में उसी हाथ से फोटो खींचने लगा। यह मेरे जुनून की हद थी। उस समय मेरी समझ में आ गया कि मैं सबकुछ छोड़ सकता हूं, फोटोग्राफी नहीं छोड़ सकता। सेना छोडऩे और पेरिस पहुंचकर अपने चित्रों के लिए नाम कमाने में मुझे पूरा एक दशक लग गया। युद्ध के दौरान व हंगरी में खींची तस्वीरों को आज मास्टरपीस माना जाता है।
मैं हमेशा कंपोजीशन को महत्वपूर्ण मानता हूं। किसी भी कला में यह सर्वोपरि है। आप अपने दृश्य में क्या रखना चाहते हैं और दुनिया को उसे किस एंगल से दिखाना चाहते हैं, यह पहले खुद आपको स्पष्ट होना चाहिए। चित्रों में बहुत सारे बिंदु होते हैं, पर एक बिंदु सबसे अहम होता है। आपको उस बिंदु को पहचानना आना चाहिए। तभी कला संपूर्ण बनती है।
बाद के बरसों में मुझे दुनिया के बहुत सारे फोटोग्राफर मिले। वे अक्सर मेरे सामने अपने हुनर का प्रदर्शन करते थे। सड़क पर मेरे साथ चलते हुए तस्वीरें खींचने लगते। वे एक ही दृश्य की बीस तस्वीरें खींच लेते, फिर बाद में उसमें से अपने काम की एक तस्वीर छांट लेते। मेरा मानना है कि ऐसे लोगों के मन में कोई कंपोजीशन नहीं बनता, वे बस कैमरे के साथ तुक्का खेलते हैं।
मुझसे हर बार पूछा जाता है, आप तस्वीरें कैसे खींचते हैं? मैं बताता हूं, मैं एक दृश्य की सिर्फ एक ही तस्वीर खींचता हूं। दूसरों की तरह बीस-पचीस क्लिक नहीं करता। तस्वीर खींचने से पहले मेरे दिमाग में देर तक उसकी कंपोजीशन बनती रहती है। मैं उस पर घंटों, कई बार महीनों सोचता हूं। और सही पल आने पर क्लिक करता हूं। क्योंकि कला को सबसे पहले हमारे दिमाग में जन्म लेना चाहिए, उसके बाद उपकरणों से बाहर आनी चाहिए। स्वत:स्फूर्त क्षणों के लिए भी हमारे दिमाग को ऐसा अभ्यास हो जाना चाहिए।
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आंद्रे कर्तेश (1894-1985) को सार्वकालिक महान फोटोग्राफरों में से एक माना जाता है। उनकी श्वेत-श्याम छवियों ने बीसवीं सदी के मध्य में कला-जगत में वैसा ही सम्मान पाया था, जैसा पिकासो के चित्रों और स्त्राविन्स्की के संगीत ने। यह टुकड़ा कर्तेश लिखित 'हंगेरियन मेमरीज़', पीयर बोरहन लिखित 'हिज़ लाइफ एंड वर्क' तथा अन्य निबंधों से चुनकर बनाया गया है. यह 2013 में नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ था.
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