तादेउष रोज़ेविच
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हमारी मां की आंखें जो हमारे दिल और दिमाग़ को चीरकर भीतर तक घुस आती हैं, वही आंखें दरअसल हमारा ज़मीर हैं. वही हमें प्यार करती हैं, वही हमारे सही ग़लत का आकलन करती हैं. जब बच्चा पहला डग भरता है, तो मां की आंखें उसे देखती हैं. वही आंखें उसे देखती हैं, जब वह सबकुछ छोड़कर दूर जा रहा होता है.
काश, मेरी आवाज़ उन सब मांओं तक पहुंचे, जो अपने बच्चों को सड़क किनारे कूड़े के ढेर के पास लावारिस छोड़ जाती हैं या काश, मेरी आवाज़ उन बच्चों तक पहुंच जाए, जो अपने मां-बाप को वृद्धाश्रमों और अस्पतालों में भूल आते हैं.
मुझे याद है, मेरी मां ने मुझसे सिर्फ़ एक बार कहा था, सिर्फ़ एक बार, तब मेरी उम्र पांच साल थी. मां ने कहा था- "तुम बहुत शरारती हो, देखना, मैं तुम्हें छोड़कर चली जाऊंगी, चली जाऊंगी और फिर कभी लौटकर नहीं आऊंगी."
मुझे याद है कि मेरे दिल से खून बहने लगा था. हां, ऐसा ही कहना चाहिए, दिल से ख़ून. मैंने ख़ुद को खालीपन और अंधेरे में पाया था. मां ने तो सिर्फ़ एक बार कहा था, मैं सारी उम्र इस बात से डरा रहा कि मां चली जाएगी.
और एक दिन मां चली गई. लेकिन जिस समय उसने कहा था, उस समय नहीं गई. ना ही उस तरह से गई. वह इस तरह गई कि मैं यह कह सकता हूं कि वह हमेशा मेरे साथ है. मां की आंखें मुझे लगातार देख रही हैं. किसी दूसरी दुनिया में बैठकर वह मुझे देख रही हैं. मैं दूसरी दुनिया में यक़ीन नहीं रखता. सिर्फ़ पहली दुनिया मानता हूं. पहली दुनिया में मारकाट मची हुई है. लोग एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हैं.
मैं एक कवि, मैं आधी सदी से अपनी दुनिया बना रहा हूं. मेरी दुनिया मकानों, अस्पतालों और मंदिरों के मलबे के नीचे धंसी हुई है. मेरी दुनिया टूट रही है. इंसान मर रहा है. भगवान मर रहा है. इनके साथ उम्मीदें मर रही हैं. इनके साथ प्रेम मर रहा है. जब मैं छोटा था, तो विश्वयुद्ध हुआ था. रातों को भयानक सपने आते थे. उसी उम्र में मैंने तय किया था कि इस सारे विनाश के बीच मैं एक कवि बनूंगा- सृजन का कवि. मैं कविता की रोशनी में जाऊंगा और वहां से और रोशनी लाऊंगा. उस भयंकर विनाशलीला के बीच भी मेरे भीतर उम्मीद की यह रोशनी क्यों आई थी? क्योंकि मां की आंखें मुझे देख रही थीं. मां की देखती हुई आंखें हमारी उम्मीद होती हैं. आज जब मैं 77-78 साल का हो चुका हूं, दुनिया में वैसी ही मारकाट मची हुई है. मैं आज भी उम्मीद से भरा हूं. क्योंकि मां की आंखें मुझे देख रही हैं. जाने कहां से. जाने दूसरी दुनिया से. पर मां की आंखें अपने बच्चे को हमेशा देखती रहती हैं. तुम पर अपनी मां की आंखें हैं- यह अहसास जैसे ही तुम्हें होता है, तुम ख़ुद को उम्मीद और साहस से भरा हुआ पाते हो. मैंने आधी सदी यह उम्मीद और साहस पाया है.
मैं अपना सिर घुमाता हूं, अपनी आंखें खोलता हूं, मुझे रास्ता नहीं सूझता, मैं गिर जाता हूं. खड़ा होता हूं. ऐसे में मुझे अपना बचपन व मां याद आती है. लोगों के दिलों में नफ़रत भरी रहती है, उनके शब्दों में बारूद जमा रहता है, मैं अपनी मां की याद के बीच लोगों से कहना चाहता हूं- पोलिश, जर्मन, यूनानी, यहूदी सोचकर नहीं, इंसान को इंसान मानकर प्यार करो. और कुछ न मानो. नीला, पीला, हरा, काला, न मानो. इंसान को इंसान मानो. अगर मां का प्यार तुमने दिल से महसूस किया है, तो तुम जीवन-भर इस प्यार में यक़ीन रखोगे और लोगों से नफ़रत नहीं करोगे.
अगर इस प्यार को हमने महसूस नहीं किया, तो हम कैसी दुनिया बनाएंगे? एक ऐसी दुनिया, जहां हम शैतान को फ़रिश्ता मान लेंगे. एक ऐसा नर्क, जहां किसी के पास रूह न होगी. हमारा स्वर्ग खो चुका होगा. उसमें अवसाद और पीड़ा का प्रसार होगा. राजनीति कबाड़ बन जाएगी. प्यार, पोर्नोग्राफ़ी बन जाएगा. संगीत बेवजह का शोर बन जाएगा. खेल, वेश्यावृत्ति बन जाएंगे और धर्म, विज्ञान बन जाएगा.
अगर तुम्हारी मां तुम्हारे सामने नहीं है, तो भी महसूस करो कि उसकी आंखें तुम्हें हर घड़ी देख रही हैं.
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तादेउष रोज़ेविच पोलैंड के महान कवि थे. ये अंश उनकी आत्मकथात्मक पुस्तक 'मदर डिपार्ट्स' से लिए गए हैं. यह अनुवाद 2014 में 'नवभारत टाइम्स' में छपा था.
Geet की वाल से साभार
शाम की मेढ़ पर ढलते सूरज ने जाते हुए स्मृतियों की एक चादर ढँक दी कि हवा के झोंकें रात को कालिमा से ना पोत दें।
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