स्त्रियों को अपनी कविता में घर गृहस्थी से, प्रेम के उलजुलूल बिम्बों और आत्ममुग्ध सौंदर्यबोध से बाहर निकलना होगा क्योकि यह सब लिखकर वह कुल मिलाकर पुरुष को ही सम्मोहित कर रही है और कविता की पितृ सत्ता उसकी इस कमजोरी का फायदा लेकर उसे पुनः उसी श्रृंगार और छायावादी युग ने धकेलने का कुचक्र रचता है जहां वह कहती रहें - मैं नीर भरी दुःख की बदली। स्त्रियों कविता लिखने के नए बिम्ब चुनो और सदियों पुराने अनुष्ठानिक उपक्रमों को तोड़कर नया रचो वरना सभ्यता की दौड़ में तुम फिर एक काँधा ही तलाशती रहोगी और शिकारी कहानियाँ लिखते रहेंगे तुम्हारे सर्वस्व समर्पण की।
****
कविता में स्त्री को अब चूल्हा, चौका, रोटी- माटी या बेसन की गन्ध, फूल पत्ती से आगे आकर लिखना होगा क्योकि अब स्त्री भी बदली है बहुत। जीवनानुभव की चौहद्दी में रहकर शोषण, पीड़ा और काल्पनिक दुनिया में उपेक्षित रहने का उपक्रम बहुत हो गया। आज वस्तुस्थिति यह है कि पुरुष की दुनिया भी उतनी ही एकान्तिक, शोषित और पूर्वाग्रहों वाली है तो क्या पुरुषों ने दीगर विषयों पर लिखना छोड़ दिया है - नहीं बल्कि वे ज्यादा मुखर और प्रखर होकर आवाज उठा रहे है विविध विषयों से।
****
हिंदी में कविता पाठ की शैली मंचीय कविताओं के हवाले कर देना चाहिए जहां तालियाँ है, वाह वाही है, देश भक्ति या श्रृंगार की बहुलता हो. गंभीर किस्म की कविताओं का आस्वाद सिर्फ पढ़कर लिया जाता है, यदि कविताएँ अच्छी हो और बहुत तल्लीनता से लिखी गई हो तो गोष्ठियों में फोटो कॉपी करवाकर बाँट दो, पोस्टर बना दो, छोटे कागजों पर प्रिंट करके टांग दो - लोग बारी बारी से तसल्ली से पढ़ लें पर यदि इन कविताओं को कवि मंच से माइक पर किसी अभिनेता सा पढेगा, समझ की उम्मीद करेगा, और तालियों की बाट जोहेगा तो माफ़ कीजिये वह कविता की यह निर्मम ह्त्या कर रहा है और शायद अपने अन्दर के कवि के वजूद की समाप्ति भी. ध्यान रहें कि अच्छी कविताओं को अच्छे कवि ही खत्म करते है और पाठको से दूरी बनाने के वे अजेय दुर्ग साबित होते है.
कविता में एक उम्र होती है जो बिम्ब, उपमा, शिल्प और लय के साथ धीमे धीमे खत्म हो जाती है और बहुधा यदि इसे समय पर नहीं समझा गया तो कवि हंसी के पात्र हो जाते है. बुढापे में युवाओं के साथ साथ अपने पाठकों की स्मृति में वे विदूषक बन जाते है और उन्हें विद्रूपता के साथ याद किया जाता है. बेहतर है कि एक समय के बाद कवि लिखना भी बंद करें, यहाँ वहाँ जाना भी और सार्वजनिक कार्यक्रमों में मंच से अपनी भद्द भी पिटवाने से बचें - अन्यथा इतिहास में जो भी चंद कागज़ आपके नाम पर दर्ज थे वे भी कालिख की शक्ल में जमा हो जायेंगे.
*****
___________
________
__________
दरअसल में कविता को छोडकर कवि सब कुछ लिखता है और फिर उसकी बेचैनी और भटकन ही उसे अपयश देती है , यह शब्दों के घातक उपयोग, जबरजस्ती से प्रयोग, अतिवाद और लिखते समय यश की कामना ही एक खराब कविता को जन्म देकर कविता को दिव्यांग बनाता है.
__________
इंसानी फितरत है या यह प्राकृतिक है कि हम अक्सर चीजों को, अपने आसपास को प्रायः खांचों में ही देखते है और यह बात को सोद्देश्य नही बल्कि अपने आप होती है इसलिए जब साहित्य को भी हम इसी तरह से विभिन्न विधाओं में बांटकर देखते है और उसमें भी छिद्रान्वेषण करते हुए काल, वाद, अदलित और दलित के रूप में बांट देते है तो यह विभाजन कविता के लिए थोड़ा मुश्किल या भारी हो जाता है। इसमें भी दिक्कत नही पर जब यह कविता के बहाने वर्ग, वर्ण या इंसानी बंटवारे पर आता है तो सबसे ज्यादा नुकसान होता है। इससे बाकी तो सब गड़बड़ होता ही है पर सबसे ज्यादा मोल कविता को चुकाना पड़ता है।
*****
*****
सुरा, सुंदरी और कविता का सहसम्बन्ध हमेशा से ही समानुपातिक रहा है इसलिए यदि कविता गोष्ठी, कविता पाठ, कविता पर बातचीत या कविता के अनुशीलन की मीमांसा हो या निकष की बात हो तो आप मानकर चलिये यह कविता के बहाने व्यक्ति विशेष, किसी सुंदरी या समुदाय के चारित्रिक गुण दोषों तक जाकर खत्म होगा। मजेदार यह है कि बेचारी कविता या विचारधारा व्यर्थ ही माध्यम बनते है - जबकि यह नितांत कवियों के आपसी निजी मुआमले होते है - व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा और अहम तुष्टि या जातिवादी मुद्दे होते है जिसे कवि शाब्दिक चतुराई और धूर्तपन से कभी शिल्प, बिम्ब , उपमा के बहाने सामने रखता है या विचारधारा के नाम पर दूसरे की अवमानना करता है। इस सुरा की लौ में बहते हुए वह नए नवेले कवियों के सामने पूरी मर्दानगी साबित करने के लिए वह होश खोने का नाटक करते हुए उन सब कवियों को भी महफ़िल में जीवित कर देता है जिनकी चार घटिया कविता छपने के बाद षोडशी की जरूरत पड़ गई थी। कविता की ये कलुषित छबि घातक ही नही बल्कि शर्मनाक भी है।
कविता छूटने लगे और कवि चुकने लगे तो फिर वह निरापद हो जाता है और सिर्फ अध्यक्षीय वक्तव्य, बीज वक्तव्य या गपोड़ी की भूमिका निभाने के लायक रहता है कुल मिलाकर वह एक गेरू पुता निर्लज्ज पत्थर हो जाता है भेरू, जिसे कही भी किसी भी हालात में बैठाया जा सकता है। हिंदी में इन दिनों बहुतेरे ऐसे कवि है जो निरापद है, इनके पास सिर्फ अतीत की वीभत्स कहानियाँ है। गपोड़ी किस्म की हरकतें झेलने, घर से बाहर दूसरे शहर में रात बिताने और इनकी भड़ास सुनने के लिए एक अवांगर्द भीड़ की इन्हें जरूरत होती है। अनुभव और बातचीत के नाम ये कविता की हत्या कैसे की गई और तत्कालीन साहित्य में कवि और कविता की छिछालेदारी कैसे , किसने की यही शेष होता है। विचित्र है कि इन्हें महान कहा जाता है समकालीन समय मे।
*****
लेखन एक शौक, एक अदा, एक अभिव्यक्ति, एक तरह का प्रतिपक्ष रचना और अपनी बात कहना है और इसे यदि हम अपने रोज के कार्यकलापों के साथ कर पाए तो बहुत बड़ी और सम्मानजनक बात है और मेरी नजरों में आप बहुत संवेदनशील और जवाबदेही से परिपूर्ण शख्स हो - मानवता से ओत प्रोत व्यक्तित्व है, पर यदि आप इसी लेखन को चाहे वो लेख, शोधपरक लेख, कहानी, आलोचना, ललित निबंध, उपन्यास या कविता को ही अपना धन्धा बनाकर बाजार में दुकान जमाकर बैठ जाओ, बेचने लगो और हर जगह मुंह मारकर पुरस्कारों की जुगाड़ और फिर पुरस्कार या घर वापसी में जुगत जमाकर समाज मे महान बनने की घटिया कोशिश कर रहे है या कर चुके है और अन्य बुरी आदतों की तरह इसके अभ्यस्त हो चुके है तो मुआफ कीजिये आप अपने जीवन का मूल मकसद खो चुके है , आपको किसी डॉक्टर शाहनी या चोपड़ा की जरूरत है । मेरी नजर में आपकी औकात दो कौड़ी की नही है।
***
कुंठित वासनाओं, अतृप्त दमित इच्छाओं, अधूरी शिक्षा, भयावह बचपन, छोटे कस्बों के दंश, महानगरों के सीखे कुसंस्कार, विलोपित सी शब्द सम्पदा, किसी भी स्तर पर पारंगत ना होने का भान, अपढ़ अभिभावक, पहली शिक्षित पीढ़ी होने का गुमान, अंग्रेज़ी ना आने का गहन अपराध बोध, निम्न आर्थिक स्थिति, गहरा काला या गेहुआँ रंग, ऊंचे सम्पर्कों का अभाव और उच्च महत्वकांक्षाएं एक कमजर्फ शख्स को कविता में ले आती है खासकरके सन 1975-80 के बाद का परिदृश्य यही कहानी बयां करता है। ठेठ ग्रामीण या कस्बाई संस्कृति से आये कवियों में ये भाव व्यवहार में कम उनकी गंवई कविता में ज्यादा दिखते है और तीस पर त्यौरी ये कि कुछ महानगरों में धँसकर कुलीन भी हो गए कुलटाओं की तरह। हिंदी कविता की झिर इन्होंने बन्द करके नया पानी कुओं में आने से रोका है।
***
कविता आग्रह की वस्तु है जैसा सदवाक्य बोलकर, लिखकर कविता की पोटली लेकर घूमने वाले इस संसार मे बहुतेरे है जो मौका मिलते ही दाग देते है बदबूदार कविताएं और पूरे वातावरण को दूषित कर देते है। ये कवि आपको बाजार से लेकर हलवाई के बूचड़खाने तक मिल जाएंगे और अपनी किताब को मरघट में कपाल क्रिया का इंतज़ार कर रहे लोगों को बेचने से भी परहेज नही करेंगे और यदि आपने कुछ बोला तो अपने ख़ौफ़ज़दा चेहरे की कालिख को ताक पर रखकर विचारधारा के पक्षधर बनते हुए अपने को क्रांतिकारी और आपको बुर्जुआ या दक्षिणपंथी घोषित कर देंगे। अपंग, लाचार, साहित्य या प्रशासनिक सेवा के रिटायर्ड खब्ती बूढ़ों के काँधों पर पैर रखकर अपनी हांकने वाले ये कवि नही वस्तुतः भाट और चारण है।
***
जो लोग अपने व्यक्तिगत जीवन मे अपने घर, परिवार, बीबी, बच्चे या शहर कस्बे से एकसार ना हो सकें, जहाँ नौकरी की - वहाँ प्रतिबद्धता या इंटिग्रिटी नही दिखा सकें, बेहद अश्लील किस्म का व्यवहार करते हुए अलग दिखने के अपराध बोध से ग्रस्त रहते हुए भोग विलास में लिप्त रह रहे है और विचारधारा के नाम पर देश प्रदेश और अबोध युवाओं को ज्ञान का रायता पिलाने का स्वयंभू ठेका लेकर झंडाबरदारी कर रहे हो - जिनसे ना गद्य सधा, ना कविता - वे कविता में विचार और विचार में व्यभिचार पर ज्ञान दे रहें है , कमाल ये है कि ये कामरेडी तड़का दाल से मंचूरियन और खीर से आइसक्रीम में भी लग रहा है, हिंदी कविता को इन सड़कछाप ठेले वालों कवि टाइप लोगों से बचना चाहिए जो खाते तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की है शोध अध्ययन के नाम पर और बात करते है मजदूर और सर्वहारा की।
***
जीवनभर सरकार, पब्लिक सेक्टर, बनियों ,साहूकारों, बीबियों और नगद नारायण की गुलामी करते हुए जो लोग घर - बाहर , दफ्तर और बाजार में लोगों का शोषण करते रहें, नौकरी छोड़कर कविता , कहानी और साहित्य की सेवा के नाम पर संगठन बनाकर यूनियनबाजी करते रहें वे हिंदी कविता के अश्लीलतम लोग है और इन लोगों को सिर पर बैठाकर इनकी हवाई कविता से आप उम्मीद करते है कि ये लोग अपनी ऐयाशी और कम्फर्ट ज़ोन छोड़कर हिंदी के आखिरी सिरे पर खड़े आदमी के लिए कविता लिखेंगे तो जनाब आप भी इनकी महफ़िल में जाकर जॉनी वाकर का एक पेग लगाइए और भावनाओं का दरिद्र व्यापार करने वाली कविता लिखिए और सरकार के मुखिया को जनपक्षधरता दिखाते हुए जनता को बरगलाइये किसी बांध या विस्थापन को लेकर - बस जॉनी वाकर सरकार प्रायोजित हो।
_________
महाकवि कहलाने की होड़ में कितने नीचे गिर जाते है - लोग जो विचारधारा के पहरुए बने फिरते है वे आम लोगोँ सा जन्मदिन मनाते है, मनवाते है और उद्घोषणाएं करवाकर अपने को महान सिद्ध कर ही लेते है भले ही दो कौड़ी के किसी अख़बार में टुच्ची सी नौकरी करते हुए उस दरुए मालिक के सामने पिद्दी बने रहते हो पर बाहर आकर यूं दहाड़ते है जैसे कोई बड़ा युग दृष्टा आगाह कर रहा हो , ये महाकवि दुर्गुणों की खान में ही खप जाते है क्योकि इनके आस पास वाले इन्हें महान बनाने से ज्यादा इनके मरने का इंतज़ार करते है। इन पर भरोसा करना यानी अपनी इज्जत दांव पर लगाना है पर एक बात है इनके चाटुकारों की जमात कविता ही नही, कहानी , उपन्यास और प्रकाशकों की गिद्ध बिरादरी में भी है।
_________
प्रकाशक किसी भी रचना का नियंता नही हो सकता, विशुद्ध रूप से वह वणिक बुद्धि का वाहक है जो रचना को सिर्फ पाठक तक ले जाने का माध्यम है। कवियों का आधा समय इस प्रकाशक नामक धूर्त प्राणी को रिझाने में चला जाता है जो पृष्ठों की संख्या या ले आउट के हिसाब से कतर ब्यौन्त करता है और कई बार तो इतना दुस्साहसी हो जाता है कि कविता के भाव ही बदल देता है और कवि उसके आश्वासनों पर - कि किताब की बिक्री दस लाख से ज्यादा करवा दूंगा, मर मिटता है और अपनी कविताओं की हत्या की सुपारी होशो हवास में इस प्रकाशक नामक सीरियल किलर को दे देता है।
_________
कवि को कविता से दिशा देने या सीधे कहूँ तो काडर बनाने की कोशिश छोड़ देना चाहिए, ये काम उन लोगों को करने दें जो सिर्फ और सिर्फ अपने को इतिहास के हर्फ़ों में जमा करने के लिए अपने ही ताबूत में कीलें खोंस रहे है यहां वहां मुखौटे लगाकर । ये लोग साहित्य के काँधे पर चढ़कर अपनी छबि बनाकर लाशों का सौदा करना जानते है जो दूसरों की इमेज बिगाड़कर ही हो सकता है। कविता का काम इस सबसे आगे का है - जो मूल रूप से चेतना जागृत करने का है और कवि को यही करने का भरसक प्रयास करना चाहिए।
_________
जो लोग कविता से सामाजिक, आर्थिक या राजनैतिक लक्ष्य हासिल कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते है वे सिर्फ बकैत ही हो सकते है, ये वो कवि है जो खुद तो गले गले तक तो अनाचार, पाप, तिकड़म, मक्कारी, वासना और साहित्य के कुटिल साम्राज्य के मकड़जाल में फंसे है पर ज़माने से ईमानदारी की उम्मीद कर रहे है कि वह कविता जैसे भोंथरे हथियार से बदलाव की बयार ला दें।
__________
कहानीकार और उपन्यासकार की भांति कवि भी अपने को स्वघोषित रूप से महान बनाने की अंधी दौड़ में लगा है पर वह यह नही जानता कि उनकी तरह से वह कविता में किसीको चीट नही कर सकता, कहानीकार और उपन्यासकार को यह छूट है कि वह कुछ भी वाहियात या अति लिखकर जमाने को बरगलाता रहें और घूम घूमकर अपनी महानता के किस्से छाती से चिपकाकर बांटता रहे पर कविता में बहुत थोड़े शब्दों में सच कहना होगा और कम से कम किसी आत्म दुष्प्रचार से बचना ही होगा।
__________
हिंदी कविता को भड़भूँजो से बचाने की बेहद जरूरत है जो भाड़ खोलकर बैठे है और जैसा ग्राहक मांग रहा है- वैसा भूनकर दे रहे है और दिक्कत उनकी भी यह है कि ग्राहक भी पसेरी भर ज्वार, मक्का, बाजरा, धान या देसी चने छोड़कर हाईब्रीड सोयाबीन से लेकर खेसारी दाल ला रहे है भुनवाने के लिए, बाजार नकली और मिश्रित दलिया के गुणों की चारण परम्परा का राजधर्म निभा रहा है और इसमें सब कुछ झंझावात में पड़ गया है - ऐसे में जाहिर है श्रोता, पाठक, पुस्तकों, पत्रिकाओं और कवि के सामने चुनौती का गम्भीर सवाल है ।
__________
कविता को कुछ लोगों से वाकई बचना चाहिए खासकरके उन लोगों से जो कविता को नुमाइश समझते है, कविता कोई पोस्टर या ब्रोशर नही है ना ही किसी की उम्र का हिसाब करने का पैमाना कि आप दस बरस से चालीस , सत्तर साला वय सन्धि पर शरीर का नख शिख वर्णन करते हुए लिखते जा रहे है, खासकरके स्त्रियां इसमे ज्यादा मुखर होकर सामने आई और कुछ स्त्रैण कवि भी । कविता की दुर्दशा यह तो नही है अगर दिशा ना भी हो तो !!!
__________
जब तक कवि अपने संत्रास, अवसाद, पीड़ा, संताप, अपराध बोध और जलन जैसी स्वाभाविक प्रवृत्तियों से मुक्त नही होगा तब तक वह कम से कम कविता तो नही लिख सकता। प्रेम, देह, फूल, पत्ती, जुल्फों, घटाओं और ज्यादा से ज्यादा शोषण और स्त्रियों के शरीर पर भले ही कुछ बकवास जैसा लिख लें या अपने अतीत को शब्दों की बाजीगरी में उलीचकर उल्टियां करता रहें उससे कविता तो नही बनेगी।
__________
कविता करना और कविता को जीना सिर्फ मुहावरा नही वरन एक शाश्वत सत्य है, इसके लिए विभिन्न प्रकार के अंतर आनुषंगिक सम्बन्ध, अनुशासनिक विषय और भाषाओं को सीखना होगा, खुद आगे होकर नया सीखने, पढ़ने, गढ़ने और रचने की तार्किक क्षमता बढ़ानी होगी, उम्र के लिहाजों से परे जाकर खुले दिल और उन्मुक्त दिमाग़ से सबको समझना और स्वीकारना भी होगा, आप सस्ते शब्दो, कुंद और जाले लगी मानसिकता से एक ही भाषा और पुरातन पंथी इतिहास के बरक्स अपने को महान मानकर कविता रचते रहेंगे तो वह कूड़े के अलावा कुछ और हो भी नही सकता।
___________
लोकप्रियता और पैठ तक जाना कविता के दो आयाम है, सड़क छाप कवि सम्मेलनों में भी कविता पैठ तक जाती है और लोकप्रिय होकर भी असर नही छोड़ती। कवि को यह तय करना होगा कि वह क्या और क्यों लिख रहा है अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए कविता के काँधे पर रखकर बंदूक चला रहा है या एक परस्पर जलन और पीड़ा में लोकप्रियता हासिल करने के लिए बेहद घटियापन पर उतरकर अपने झंडे गाड़ना चाहता है या सच मे कविता को एक परम्परा में पैठ करने की हद तक पहुंचाने की सम्यक दृष्टि से लिख रहा है।
____________
कविता और सामाजिक बदलाव का कोई सह सम्बन्ध नही है, यह बात कवियों को गांठ बांध लेना चाहिए । जिस दुष्यंत, गोरख पांडे , पाश या लाल सिंह को पढ़कर जोश में आये , कइयों ने एक्टिविज़्म की राह पकड़ी उनकी मौत की कहानी भयावह है। कवि या तो क्रांति लिखकर ये मौत को चुनें वरना श्रृंगार रस में रास रचें - सेनापति, बिहारी और रसखान बनकर इतिहास के सफों ने जगह पाएं, या फिर हिम्मत हो तो ग़दर बनकर लाखों की भीड़ के सामने गाने की हिम्मत करें और वरवर राव सा सीना रखें।
___________
हिंदी कविता से आप बदलाव की कोई उम्मीद ना करें और ना ही कविता किसी आंदोलन को लेकर लिखी जाती है नर्मदा आंदोलन जो तीस पैंतीस साल चला मुझे स्व श्याम बहादुर नम्र के अलावा कोई कवि याद नही पड़ता जिसने लाखों आदिवासियों की पीड़ा को साहित्य में दर्ज किया हो (और इस कविता को भी पाठकों ने दुर्लक्ष किया - सिर्फ एकलव्य नामक संस्था ने क़िताब छापी और फ्री में बांटी) जबकि मालवे में कवि इतने है कि पत्थर मारोगे तो ये उचक कर पकड़ लेंगे - जो नोबल लेने को बेचैन है ससुरे, पर निकृष्टता हमेंशा चरम पर रही है।
___________
हिंदी कविता से आप बदलाव की कोई उम्मीद ना करें और ना ही कविता किसी आंदोलन को लेकर लिखी जाती है नर्मदा आंदोलन जो तीस पैंतीस साल चला मुझे स्व श्याम बहादुर नम्र के अलावा कोई कवि याद नही पड़ता जिसने लाखों आदिवासियों की पीड़ा को साहित्य में दर्ज किया हो (और इस कविता को भी पाठकों ने दुर्लक्ष किया - सिर्फ एकलव्य नामक संस्था ने क़िताब छापी और फ्री में बांटी) जबकि मालवे में कवि इतने है कि पत्थर मारोगे तो ये उचक कर पकड़ लेंगे - जो नोबल लेने को बेचैन है ससुरे, पर निकृष्टता हमेंशा चरम पर रही है।
___________
आज की कविता को चुके हुए और इतिहास हो चुके कवियों के शिकंजे से निकलना और निकालना बहुत जरुरी है क्योंकि ये पुराने लोग जो निहायत ही निठल्ले थे और रोज़ी रोटी की चिंता से मुक्त थे, फांकाकशी में भी निभा लेते है, सिर्फ कविता करते थे इसलिए बहुत लिख गए पर आज के कवि बाज़ारवाद से जूझ रहे है और इन्हें अपनी जिजीविषा इनके सारे साहित्यिक घटिया कृत्यों के साथ बनाये रखना है।
_____________
कविता का कोई धर्म नहीं होता - ना ही विचारधारा, वह सिर्फ कविता होने की मांग करती है पर हमारे कवि लट्ठ लेकर कविता में कविधर्म निभाते हुए विचारधारा का तडका लगाकर अपने को महान बना लेते है और इस तरह से कविता को खेमों में बांटकर कवि आत्ममुग्ध होता रहता है.
___________
हिंदी की कविता में लगभग तीस प्रतिशत योगदान प्राध्यापकों का है - कम से कम अस्सी के बाद की कविता में और इसमें भी अंग्रेजी पढाने वालों का और भी ज्यादा, इनके साथ दिक्कत यह है कि ये मानक अंग्रेजी से लेते है और घटिया कविता हिंदी में परोस कर भीड़ से अलग दिखने की कोशिश में वे इलियट या जॉन किट्स, कोल्रेज या वर्ड्सवर्थ को अपना आदर्श मानते है परन्तु इनके पास हिंदी का डिक्शन नहीं और प्रतीकों की तो स्पष्ट समझ भी नहीं है.
ज्यादा भाषाई होने से या एकदम कम भाषाई होने से भी कविता का लालित्य और फ्लो खत्म होता है, हिंदी का कवि अपना ज्ञान या शेखी बघारने के चक्कर में ये दोनों भूलें अक्सर करता है और फिर फ्रस्ट्रेट होता रहता है, कुढ़न में कुंठित होकर आखिर में अपने आप को खत्म करता है.
कविता का लिखा जाना एक घटना नहीं एक सायास षड्यंत्र है साहित्य में, इसकी व्यूह रचना से लेकर इसे पोषित करने और खडा कर परोसने में कवि माहिर ही नहीं निष्णात भी होता है.
दरअसल में कविता को छोडकर कवि सब कुछ लिखता है और फिर उसकी बेचैनी और भटकन ही उसे अपयश देती है , यह शब्दों के घातक उपयोग, जबरजस्ती से प्रयोग, अतिवाद और लिखते समय यश की कामना ही एक खराब कविता को जन्म देकर कविता को दिव्यांग बनाता है.
__________
कविता को पढ़ना गुनना या ज्यादा उत्साही होकर अमर बनाने से उसे वर्तमान के सापेक्ष देखना जरूरी है , अक्सर कवि अतीतजीवी होते है जो ना खुद प्रासंगिक हो पाते है ना कवित्व कर पाते है
__________
भाषा, शिल्प, अलंकार, उपमा और शब्द खो देने पर कवि के पास कुछ भी नही बचता सिवाय निंदा, जलन , ईर्ष्या और कुंठा के और यह क्रमिक मौत की शुरुवात है .
Comments