Narendra Modi's 5 Country Visit and Poor India.
(अंधभक्त, चापलूस, और कमजोर दिल वालें ना पढ़ें और उल्टी करना मना है, यह पोस्ट सिर्फ भारत देश से प्यार करने वालों और देशहित में सोचने वालों के लिए है. सोचा था कि अब मोदी पर अपना समय जाया नहीं करूंगा पर कल की नौटंकी देखकर लगा कि एक पोस्ट तो बनती है -देश बदल रहा है)
भाषण की तारीफ़ करना होगी और खासकरके इस बात के लिए कि अंगरेजी में बोले वे, देश की उजली तस्वीर सामने रखना गुनाह नहीं है और नाही इस उजलेपन से आती हुई ग्रांट यानि अनुदान का रुपया, एनजीओ इस काम में बेहद माहिर होते है, गरीबी परोसकर करोड़ों रुपया लाना आसान है. परन्तु मोदी जी जिस उजलेपन की तस्वीर के सहारे देश में संडास से लेकर एनएसजी की सदस्यता तक के लिए देश के आर्थिक, सामाजिक और विकास की बेहद उजली तस्वीर सामने रखकर संविधान की दुहाई दे रहे है क्या वह वाकई में इतना उजला है. जब वे वहाँ लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई दे रहे थे ठीक उसी समय पहलाज यहाँ घोषणा कर रहे थे कि "वे चमचे है- मोदी जी के" यह किस संविधान और देश की तस्वीर है. लोग तारीफ़ कर रहे है भाषण की, मुझे भी अच्छा लगा परन्तु फिर किसान आत्महत्या का क्या, रीवा सतना में मीजल्स और कुपोषण से आठ बच्चे मर जाते है, लोग आज भी पंद्रह किलोमीटर दूर से पानी ला रहे है पीने को, शहरों से बिजली सारा - सारा दिन गायब है, देवास जैसे औद्योगिक शहर में कोई सुनने वाला नहीं है, यहाँ के अंधभक्त अभी यहाँ ज्ञान देने चले आयेंगे पर करेगा कोई नहीं कुछ.
देश यकीनन बदल रहा है, जीडीपी के आंकड़ों के फरेब में और विकास की झूठी गाथा सुनाकर, गली मोहल्लों में शिवाजी के हथियार दिखाकर, भगवान की मूर्ति को संघ का गणवेश पहनाकर, पाठ्यक्रम से लेकर इतिहास तक में बदलाव करके और पिछड़ा वर्ग के पदों पर पिछले दरवाजों से एंट्री मारकर आरक्षण खत्मकर देना, बिहार में शिक्षा का सरेआम मजाक, किशोरों की आत्महत्याएं, स्वास्थ्य, शिक्षा और सर्विस डिलेवरी जैसी सेवाओं का बजट खत्म कर, रेल किरायों में भयानक बढ़ौत्री करके, बसों का निजीकरण करके (हरदा जैसे कसबे में यादव बस सर्विस को ही सिर्फ इंदौर तक बस ले जाने और लाने की इजाजत है, बाकी किसी और को नहीं), इंदौर से भोपाल तक एसी बसें चल रही है और देवास से भोपाल जाना हो तो कोई बस नहीं है कारण सब बाहर से चली जाती है, देश यकीनन बदल रहा है - बलात्कार से लेकर सब कुछ तेजी से बढ़ रहा है, क्या अच्छा होता कि महाप्रभु NCRB के आंकड़े वहाँ रख देते, कर्ज और भूखमरी के खेल भी वहाँ रख देते, न्यायाधीश और गडकरी की लड़ाई वहां रख देते, सीना ठोंककर कहते कि रोबर्ट वाड्रा को गिरफ्तार किया है, स्विस बैंक से काला धन लाया हूँ, सोनिया की नागरिकता खत्म कर इटली भिजवा दिया है वापिस, राहुल को मानहानि के मुकदमे में जेल करवा दी है, और कम्युनिस्टों को काला पानी भिजवा दिया है, बलात्कारी निहाल्चंद्र को राष्ट्रपति क्यों नहीं बना देते
जिस देश में सत्ता बनाए रखने के लिए आप ममता से लेकर महबूबा और अब मायावती से समझौता कर लो, प्रज्ञा से लेकर गोधरा के अपराधियों को छोड़ दो, एक नरसंहार के नायक को पार्टी प्रमुख बना दो उससे बड़ा विकास क्या हो सकता है, आपके लोग आंबेडकर को गाली दें, नेहरू को कोसे, महात्मा गांधी के हत्यारे के मंदिर बनाने की बात करें, अपनी तुच्छ महत्वकांक्षा में जीते जी अपने मंदिर बनवाने में आपकी मौन स्वीकृति हो, एक बारह साला धार्मिक मेले में सरकार पांच हजार करोड़ रुपया फूंक दें और आपका पार्टी प्रमुख दलितों के साथ नहाने-धोने और खाने की नौटंकी करके समाज में फूट डालने का काम करें, लोगों के आयोजन पर शिवराज जैसे व्यापमं के अघोषित नायक अतिक्रमण कर लें और राजकाज और राज्य के भयानक सूखे पर ध्यान देने के बजाय निकम्मे, तुंदियल साधू संतों के तलवे चाटते रहें तो देश सचमुच बदल रहा है मित्रों
आईये मोदीजी के लौटने पर वन्दनवार सजाएं, धूप आरती करें, उन्हें डिठौना लगाएं और देश के संसाधनों को अम्बानी, अडानी के बाद दुनियाभर के उद्योगपतियों के लिए खोल दें- आईये स्वागत करें, यशगान गायें और कहें कि देश बदल रहा है.
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सुबह सवेरे अखबार को बंद करना
यानि मुक्ति पाना किसी आत्म मुग्धता से
भयानक अनियमित वितरण के कारण आने वाला अखबार "सुबह सवेरे" बंद कर दिया एक माह से। लगा था कि यह अखबार कुछ नयापन लिए होगा और सामग्री से लेकर विश्लेषण और जानकारी कुछ अलग होगी, कई बार संवाददाता के लिए भी बात की, विशेष संवाददाता के लिए बात हुई, फोटो वे जानकारी कार्ड के लिए भेजी, नियमित कॉलम भी लिखें और आलेख भी, वक्त बेवक्त समय निकालकर सामग्री भेजी , परंतु अंत में कुछ नही हुआ।
बहुत बारीकी से देखा और विश्लेषित किया तो पाया कि अपने आस पास के जमा लोगों के लेख से लेकर खबरें ही है और गाहे बगाहे अखबार का एनजीओकरण हो जाता है।
रोज मुखपृष्ठ से लेकर अंत तक अख़बार में काम करने वाले 8-10 लोग ही लिख, पढ़, समझ रहे है और फेसबुक पर शेयर कर रहे है। ख़बरों का हाल ये कि किसी शहर या कस्बे के लिए ना जगह निर्धारित ना पृष्ठ बस जो आ गया -जूना पुराना वही छाप दिया, कभी भी कही से किसी भी शहर की डायरी और खबरें।
समझ यह नही आया कि अच्छे लोग और बहुत करीबी मित्र जो पत्रकारिता के पारंगत और सिद्ध् हस्त है - वहाँ कार्यरत है फिर ऐसी दुर्गति क्यों, मुझे अखबार का कार्ड ना मिलने का कारण तो साफ़ समझ आया कि महीने में लाख के विज्ञापन नही जुटा सकता और ना ही किसी बिकाऊ चैनल का राज्य प्रतिनिधि हूँ जिसे उपकृत किया जा सकें पर अखबार सिर्फ अखबार की तरह ही अच्छा लगता है। जैसे चाय दूध पानी शक्कर चाय पत्ती से ही अच्छे से बनती है उसमे इलायची तक ठीक है पर नवाचार करते हुए आप लाल मिर्च और लहसून का छौंक लगा देंगे तो वह फिर चाय तो नही होगी।
दूसरा लेखन का कोई पारिश्रमिक नही, इंदौर के एक तथाकथित बड़े लेखक ने झगड़ कर अपना पारिश्रमिक माँगा तब उन्हें भेजा गया, कितना, यह पूछने पर वे चुप्पी साध गए, उनका साफ़ कहना था कि इसी लेंथ के लेख के जनसत्ता या नईदुनिया रूपये 3000 देता है तो फिर फ्री में क्यों लिखें । बात सही थी, सो अपुन ने भी भेजना बंद कर दिया वैसे भी जिस जगह 20-35 प्रतियाँ ठीक से बंट नही पाती उस अखबार में लिखना व्यर्थ है।
दुर्भावना नहीं है, ना उत्तेजित हूँ ना किसी की आलोचना है पर अखबारों के निकलने के निहितार्थ समझने होंगे और यह भी जानना होगा कि तमाम घाटों और नफ़ा नुकसान के बाद भव्यता कैसे मेंटेन होती है ? बाकि सब तो हो रहा फिर लेखकों को एक प्रति भी नही देंगे पारिश्रमिक तो दूर !!!
मेरी शुभकामनाएं सभी के साथ है पर अब फेसबुक ज्यादा बेहतर और प्रभावी माध्यम है और सार्थक भी कम से कम मन में अपेक्षा और जुनून तो नहीं है।
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