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औचित्यहीन होती संस्थाएं और साक्षरता



देश  में साक्षरता के नाम पर खोले गए राज्य संसाधन केन्द्रों का अब क्या ओचित्य बचा है। बेहतर होगा कि यहाँ तबले बजा रहे लोगों और मोटी तनख्वाह पा रहे लोगों को स्कूलों और दीगर काम करनेवाली जगहों पर लगा दिया जाए। फ़ालतू के कामों, अनुपयोगी सामग्री और साक्षरता के नाम पर कार्यशालाएं और देश भ्रमण पर अब रोक लगानी चाहिए। 

जिला  कलेक्टर कार्यालयों में इन कर्मचारियों की ज्यादा जरुरत है जो दक्ष, कुशल और परिपक्व है। ये बहुत देशी किस्म के खांटी लोग है जो जिला पंचायत मे बैठकर काफी काम अच्छे से कर सकते है।

राज्य  संसाधनों केन्द्रों के भवन जो सुसज्जित और सुविधायुक्त है उनका उपयोग और बेहतर ढंग से किया जा सकता है अभी तो ये एनजीओ के मठ बने हुए है। नई सरकार फिर से इनका मूल्यांकन करें और सही काम लें या बंद कर दें

यह  देश का दुर्भाग्य ही है कि सन 1990 से साक्षरता के नाम पर पुरे देश को बेवक़ूफ़ बनाया गया। सिर्फ ढाँचे खड़े किये गए, अरबों रूपया बर्बाद हुआ और राज्य संसाधन केंद्र जैसे मठ खड़े किये गए जहां बेहद संभावनाशील लोग भर्ती किये गए थे कि वे पुरे आन्दोलन को एक दिशा देंगे। एनजीओ को इनकी जिम्मेदारी गयी थी पर कितना पतनशील समाज है हमारा कि आज ये लोग केंद्र सरकार की Liabelity बन गए है और सिवाय समय, धन और संसाधनों कीबर्बादी के कुछ नहीं कर रहे। 

लोग
 कहेंगे कि और विभाग भी काम नहीं करते , फिर दोष सिर्फ हमें क्यों तो भैया आप देश को साक्षर करने का ठेका लेकर आए थे आपको बीस सालों से तनख्वाह इसीलिए दी जा रही है आज आप खुद से पूछे कि क्या किया आपने , सिवाय अपने खुद के नाम , संस्था का नाम और बैलेंस बढाने के?? 

सिर्फ
 कार्यशालाओं, देश भ्रमण और सामग्री के नाम पर कूड़ा छापने के सिवायक्या काम किया आपकी टीम ने। हर माह देश के हर प्रांत के हर केंद्र में चार चार दिन तक सेमीनार होते है, क्या फायदा है इनका सिवाय आपके तीर्थाटन के ? मानव संसाधन मंत्रालय में नाते रिश्तेदार सलाहकार के नाम पर निकम्मों की तरह बिठा रखे है जो हवाई यात्राएं करते है और काम के नाम पर कुछ नहीं। इन केन्द्रों में कुछ काम नहीं और बीस से तीस कर्मचारी या तो टेबल पर तबला बजाते है, लड़ते-भिड़ते है या अपनी दुकानदारी में लगे रहते है। भवनों में एसी लगे है गाड़ियां दौड़ रही है डीजल फूँका जा रहा है और नतीजा शून्य है। 

इस  
देश को अब ना साक्षरता की जरूरत है ना किसी तरह की जागरूकता की, और जहां जरुरत है वहाँ तो ये वीर सिपाही सात जन्मों में जा नहीं सकते। समय है कि संसाधनों की बर्बादी रोकी जाये, यहाँ के कर्मचारियों को जिनमे अधिकांश में जंग लग चुका है, और भयानक रूप से मानसिक बीमारी के शिकार होकर डिप्रेशन में चले गए है, को जिले के ब्लाक मे स्थित जनपद कार्यालयों में मे भेज देना चाहिए ताकि थोड़ा काम करें और इस बहाने से वे स्वस्थ रह सकें,जो मोटी चमड़ी काया पर चढ़ गयी है वह थोड़ी उतर सकें और जनपदों को इनकी योग्यता का फायदा मिल सकें। 

तीसरा
 इन संसाधन भवनों का शासन अधिग्रहण कर लें मुझे आशंका है कि एनजीओ इन्हें अपने कब्जे में लेकर निजी संपत्ति बना लेंगे। वैसे भी ये भवन देशी विदेशी ग्रांट से बने है और इस नाते यह सरकारी और सामाजिक संपत्ति है जिस पर समुदाय या सरकार का हक़ है। इन भवनों में आश्रम शाला या आदिवासी लड़कियों के लिए होस्टल खोले जा सकते है जहां दूर दराज से आई लड़कियां रहकर पढ़ सकती है। 

तुरंत  
प्रभाव से सेमीनार, यात्राओं और प्रकाशन पर रोक लगाई जाए और कर्मचारियों का मूल्यांकन किया जाकर युक्तियुक्तकरण से इनकी उपयुक्त जगहों पर नियुक्ति की जाए। नई मानव संसाधन मंत्री इस मुद्दे पर गंभीरता से ध्यान देंगी यह मेरा विश्वास है और यह मै देश हित में लिख रहा हूँ किसी दुर्भावना वश नहीं , ना ही पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर।

Comments

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (09-08-2014) को "अत्यल्प है यह आयु" (चर्चा मंच 1700) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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