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जो पहाड़ उठाकर लाया था...............



एक   पहाड़ जैसे उग रहा है अन्दर ही अन्दर और मै छुपता जा रहा हूँ इसके भीतर ही भीतर.पता नहीं कैसा लगा पर फिर लगा कि ठीक है- अपने अन्दर ही रहने दो यह सब, मै छुपा लेता हूँ खुद को तो तुम भी मेरे भीतर ही विलोपित हो जाओगे, इस तरह से हम एकाकार हो जायेंगे ठीक वैसे जैसे चट्टाने हो जाती है, जैसे बहता पानी बन जाता है झरना, जैसे पेड़ों के पत्ते बन जाते है चांदी की चमक, जैसे धुंध बन जाती है उसकी सांस, जैसे बादल बन जाते है उसका आईना, जैसे पक्षी बन जाते है रुई के फोहे, जैसे चांदनी गुम जाती है, अन्दर ही अन्दर चाँद छुप जाता है, धुप के सुनहरे गोशे बिखर जाते है ऊपर ही ऊपर, हवाएं यूँ गुजर जाती है मानो कही से आवारा मन बनाकर निकली हो.............

मै    तुम्हे इसलिए छुपा लेना चाहता हूँ कि कही किसी दरवाजे की आहट से सरसराती हुई साँसों की मंद रफ़्तार में वो अनहद कही बाहर ना बिखर जाए जो हम यहाँ किसी पत्थर में पैदा कर रहे है, जो बांस की बिन गांठों की सीधी डंडी से निकलती है और जो फूंकने पर बज उठती है मानो झंकृत कर देगी समूचे वातावरण को एक स्वर में, मै इसलिए तुम्हे अपने भीतर रखना चाहता हूँ कि ये झींगुरों का शोर मेरे रुदन को दबा ना दें,  फिर मै ना तुम्हे सुन पाउँगा और ना भज पाउँगा तुम्हे किसी कबीर की तरह, मै सिर्फ सुर बनकर तुम्हे गुनना चाहता हूँ, देखना चाहता हूँ तुम्हारी शरारतें और अठखेलिया, उन सुन्दर पांवों को जमीन पर देखना चाहता हूँ जो बहुत नाजों से कदम रखते है और जिसके लिए किसी ने कहा था कि ये सबसे सुन्दर पैर है जो एक दिन मकाम चूम लेंगे, सिर्फ महसूसना चाहता हूँ कि मेरी आत्मा को भी इस बात का एहसास ना हो कि पाप , पुण्य और सुकून से भरी दुनिया के परे एक दुनिया बिना किसी नाम और रिश्तों के बसाई जा सकती है, किसी अनजान से मुसाफिर के हौंसलों से एक मुर्दा कलुषित जीवन फिर से उद्दाम वेग से तरंगे मारता है और उमंगों से भर उठता है, सिर्फ एक सांस की दूरी से फिर अनंतिम साँसों का सफ़र पुनः शुरू हो सकता है, एक आदि से अनंत तक का वागर्थ प्रयोजन सिद्ध हो सकता है...यह पहाड़ ही था जो सब कुछ दे सकता था. 

मै   एक पहाड़ अपने अन्दर देखता हूँ जो किसी बारीक से स्पर्श से टूट जाए, बिखर जाए और हर कण से, हर संगत से, हर नाद से, और हर सुरीली तान से सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा नाम निकाले और मुझे यह लगे कि ये पहाड़ यकायक इतना बड़ा हो गया है कि इसने हम दोनों को छुपा लिया है ठीक विरह की तरह जिसे देख तो सब सकते है, सिर्फ इसे महसूस करने के लिए एक नदी होना पड़ता है.........एक पहाड़ इतना छोटा हो जाए कि मै उसमे इतना समा जाऊं कि मेरा दर्प क्षीण हो जाए और तुम्हारी महत्ता के आगे मै बौना साबित हो जाऊं, यह पहाड़  भीतर ही भीतर इतना विशाल हो जाए कि हम दोनों उसमे घुल-मिलकर तिरोहित हो जाए.........

ये   पहाड़ मै अपने अन्दर देखना चाहता हूँ, और जब मै कही से गुजरूँ तो सिर्फ और सिर्फ अपने साथ तुम्हे एक छोटी सी हरी पत्ती के रूप में देखूं किसी देवदार या चिनार के वृक्ष पर झूमते हुए और मै ऐसे रुका रहूँ मानो सदियों से इस नाजुक कोपल को संवारने के लिए ही पैदा हुआ था... बोलो मेरी धुंध में मेरे साथ हो ना तुम................???

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