वैदिकाश्रम, गणेश मंडल, सोनार वाड़ा, महाराष्ट्र ब्राहमण सभा, सारस्वत समाज आदि वो जगहें जिन्हें मै बचपना से जानता हूँ इंदौर में और शायद ही कोई मराठी भाषी होगा जो इन जगहों को नहीं जानता होगा. मेरे अपने परिवार में दर्जनों शादियाँ, जनेऊ और ना जाने कितने पारिवारिक कार्यक्रम यहाँ संपन्न हुए है. आज एक ऐसे ही एक कार्यक्रम में मै इंदौर के सारस्वत समाज धर्मशाला में था तो देखा कि इस जगह की हालत बहुत खराब हो गयी है. इसी तरह से बाकी सब जगहें भी धीरे धीरे ख़त्म हो गयी है और जर्जर हालत में है. एक ओर अन्य समाजों के भवन जहां फाईव स्टार बन गए, एसी लग गए और बहुत सुविधाजनक हो गए वही मराठी समाज के ये सार्वजनिक स्थल क्यों ख़त्म हो गए. जब कुछ मराठी भाषी मित्रों और बुद्धिजीवियों से बातें की, तो उन्होंने जो बताया वो बेहद चिताजनक था. मै सिर्फ मराठी भाषी होने के नाते या ब्राहमण होने के नाते से नहीं वरन एक जागरुक समाज का सदस्य होने के नाते और एक मध्यमवर्गीय इंसान होने के नाते यह टिप्पणी बहुत गंभीरता से कर रहा हूँ.
यह बात उभरी कि मराठी समाज को पेढी, समाज, और अन्य ऐसी गतिविधियों से जोड़ा गया, साल भर चलने वाले कार्यक्रम और सांस्कृतिक उत्सवों के माध्यम से मराठी भाषी लोग अपने को क्रियाशील रखते है, संगीत, नाटक, ललित कलाओं में रूचि, समय और धन देने वाले ये लोग बहुत समर्पित भाव से समाज के कामों में लग जाते है. बाबा डिके, राहुल बारपुते, विष्णु चिंचालकर आदि ऐसे लोग थे जिन्होंने मराठी भाषीयों के बीच मानक स्तर का काम किया और इस बहाने से कई लोग जुड़े और इंदौर - देवास में रचनात्मक कार्य हुए. परन्तु "सानंद" के गठन के साथ यह प्रक्रिया सिर्फ अभिजात्य मराठी भाषी लोगों के साथ जुड़ने की शुरू हुई जिसने बहुत नुकसान किया. सानंद ने गत बीस वर्षों में इस मराठी भाषी समाज का जितना नुकसान किया उतना किसी ने नहीं किया. साल दर साल नाटक दिखाने के नाम पर महाराष्ट्र से नाटक बुलाते रहे, संगीत से लेकर तमाम तरह के कीर्तन और अन्य विधाओं के लोगों को बुलाते रहे और यहाँ का रूपया महाराष्ट्र में देते रहे. सानंद की वजह से स्थानीय नाटक के कलाकार उपेक्षित रहे और संस्थाएं दम तोड़ती रही, सानंद ने जो चन्दा इकठ्ठा किया उसका हिसाब कभी अपने सदस्यों को नहीं दिया यहाँ तक कि माई मंगेशकर हाल को भी कुछ आर्थिक सह्योग नहीं किया, ऊपर वर्णित संस्थाओं की यदि सानंद खैर खबर लेता, तो शायद ये भवन और संस्थाएं आज अलग हालत में होती, आज भी सानंद देवी अहिल्या विवि के प्रेक्षागृह में कार्यक्रम करता है जबकि चंदे के नाम पर लाखों रूपये प्रतिवर्ष लिया जाता है.
इसमे कोई शक नहीं कि सानंद ने अच्छे गंभीर नाटको का स्वाद इंदौर वासियों को चखाया है पर सानंद ने इंदौर के नाटक कर्मियों की घोर उपेक्षा की और स्थानीय कला भवनों की भी भारी अनदेखी की है. अब समय है कि सानंद में नए लोग आये, नेतृत्व बदले और स्थानीय कलाकारों और संस्थाओं को प्रश्रय मिलें, महाराष्ट्र में कमाने वाले और देखने वाले प्रोत्साहन वाले बहुत है. इंदौर की गौरवशाली नाट्य परम्परा को, संगीत और संस्कृति को ज़िंदा रखना है तो सानंद को बाहर वाले प्रेत से मुक्ति की जरुरत है और स्थानीय कलाकारों को बचाने और खासकरके पुराने भवनों को जीर्णोद्धार करके संरक्षित करने की तुरंत आवश्यकता है. समझ रहे है ना सानंद के माई बापों !!!
इंदौर की सांसद सुमित्रा ताई से भी निवेदन है कि इन गौरवशाली भवनों के संरक्षण और जीर्णोद्धार के लिए अपने तई प्रयास करे और सांसद निधि से राशि देकर इन्हें दुरुस्त करें ताकि फिर से संस्कृति का बयार बह सकें और महंगे खर्च से बचकर और सानंद जैसे विशुद्ध व्यवसायी संस्थान से निकालकर आम लोग ललित कलाओं का रसास्वादन कर सके. ध्यान दें ताई, ये मराठी भाषी ही है जिन्होंने आपको इतने प्रेम, सम्मान और सहजता से बार बार संसद में पहुंचाया है. सानंद में कुछ लोग अच्छे है वे इस पर ध्यान दे कि अब सानंद की दिशा क्या है और वे किसलिए चले थे और कहाँ पहुँच गए है.
यह बात उभरी कि मराठी समाज को पेढी, समाज, और अन्य ऐसी गतिविधियों से जोड़ा गया, साल भर चलने वाले कार्यक्रम और सांस्कृतिक उत्सवों के माध्यम से मराठी भाषी लोग अपने को क्रियाशील रखते है, संगीत, नाटक, ललित कलाओं में रूचि, समय और धन देने वाले ये लोग बहुत समर्पित भाव से समाज के कामों में लग जाते है. बाबा डिके, राहुल बारपुते, विष्णु चिंचालकर आदि ऐसे लोग थे जिन्होंने मराठी भाषीयों के बीच मानक स्तर का काम किया और इस बहाने से कई लोग जुड़े और इंदौर - देवास में रचनात्मक कार्य हुए. परन्तु "सानंद" के गठन के साथ यह प्रक्रिया सिर्फ अभिजात्य मराठी भाषी लोगों के साथ जुड़ने की शुरू हुई जिसने बहुत नुकसान किया. सानंद ने गत बीस वर्षों में इस मराठी भाषी समाज का जितना नुकसान किया उतना किसी ने नहीं किया. साल दर साल नाटक दिखाने के नाम पर महाराष्ट्र से नाटक बुलाते रहे, संगीत से लेकर तमाम तरह के कीर्तन और अन्य विधाओं के लोगों को बुलाते रहे और यहाँ का रूपया महाराष्ट्र में देते रहे. सानंद की वजह से स्थानीय नाटक के कलाकार उपेक्षित रहे और संस्थाएं दम तोड़ती रही, सानंद ने जो चन्दा इकठ्ठा किया उसका हिसाब कभी अपने सदस्यों को नहीं दिया यहाँ तक कि माई मंगेशकर हाल को भी कुछ आर्थिक सह्योग नहीं किया, ऊपर वर्णित संस्थाओं की यदि सानंद खैर खबर लेता, तो शायद ये भवन और संस्थाएं आज अलग हालत में होती, आज भी सानंद देवी अहिल्या विवि के प्रेक्षागृह में कार्यक्रम करता है जबकि चंदे के नाम पर लाखों रूपये प्रतिवर्ष लिया जाता है.
इसमे कोई शक नहीं कि सानंद ने अच्छे गंभीर नाटको का स्वाद इंदौर वासियों को चखाया है पर सानंद ने इंदौर के नाटक कर्मियों की घोर उपेक्षा की और स्थानीय कला भवनों की भी भारी अनदेखी की है. अब समय है कि सानंद में नए लोग आये, नेतृत्व बदले और स्थानीय कलाकारों और संस्थाओं को प्रश्रय मिलें, महाराष्ट्र में कमाने वाले और देखने वाले प्रोत्साहन वाले बहुत है. इंदौर की गौरवशाली नाट्य परम्परा को, संगीत और संस्कृति को ज़िंदा रखना है तो सानंद को बाहर वाले प्रेत से मुक्ति की जरुरत है और स्थानीय कलाकारों को बचाने और खासकरके पुराने भवनों को जीर्णोद्धार करके संरक्षित करने की तुरंत आवश्यकता है. समझ रहे है ना सानंद के माई बापों !!!
इंदौर की सांसद सुमित्रा ताई से भी निवेदन है कि इन गौरवशाली भवनों के संरक्षण और जीर्णोद्धार के लिए अपने तई प्रयास करे और सांसद निधि से राशि देकर इन्हें दुरुस्त करें ताकि फिर से संस्कृति का बयार बह सकें और महंगे खर्च से बचकर और सानंद जैसे विशुद्ध व्यवसायी संस्थान से निकालकर आम लोग ललित कलाओं का रसास्वादन कर सके. ध्यान दें ताई, ये मराठी भाषी ही है जिन्होंने आपको इतने प्रेम, सम्मान और सहजता से बार बार संसद में पहुंचाया है. सानंद में कुछ लोग अच्छे है वे इस पर ध्यान दे कि अब सानंद की दिशा क्या है और वे किसलिए चले थे और कहाँ पहुँच गए है.
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