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Showing posts from August, 2013

भोजन का अधिकार पारित होने पर.

मेरी आज की एक टिप्पणी भोजन का अधिकार पारित होने पर. "भोजन के अधिकार वाले देखते रह गये, हर्ष मंदर, एन सी सक्सेना और सुप्रीम कोर्ट में बरसो से पेंडिंग याचिका धरी रह गई, तमाम राज्यों में फैले हुए सलाहकार कुछ नहीं कर पाए और सब आंकड़े और रणनीतियाँ भी खोखली साबित हो गई. हाँ हुआ यह कि इस बीच एक्शन एड से लेकर कई दीगर संस्थाओं और तथाकथित कंसल्टेंट्स ने खूब माल, नाम, जमीन बंगलें और यश बटोर लिया ........खाद् य सुरक्षा के नाम देश में इतने वर्कशॉप और सेमीनार पिछले दस बरसों में हुए है कि एक पूरा प्रदेश कम से कम पांच साल खाना खा सकता था बैठे बैठे, हवाई यात्राएं और बाकि छोटे मोटे खर्च तो अलग है कुल मिलाकर सब फेल, सरकार पास..." Sachin Kumar Jain  "संदीप भाई, आपकी एक पोस्ट के सन्दर्भ में कुछ सूचनाएं देना चाहता हूँ ताकि कोई गताल्फह्मी न रहे. आपने सर्वोच्च न्यायालय आयोक्तों और सलाहकारों के बारे में अपने मत व्यक्ति किये हैं. तथ्य यह है कि पिछले १३ सालों में आयुक्तों ने अपने काम के लिए कोई मानदेय या वेतन नहीं लिया है; सलाहकारों की भूमिका और काम भी अवैतनिक है. इतना ही नहीं कोई भी सलाहकार इस क...

ज़िंदगी में दौडते दौडते इतना थक गया हूँ

ज़िंदगी से जब सब कुछ खत्म हो जाता है तो एक विदूषकीय चरित्र बन जाता है अच्छा भला आदमी, बेहतर है इसे खुद स्वीकार लें बजाय इसके कि कोई और कहें. नहीं, मेरा दर्द तुम कभी नहीं समझ पाओगे, एक दिन तुम्हें कहूँगा कि संदीप नाईक के खिलाफ संदीप नाईक का मुकदमा लड़ो संदीप नाईक........... ज़िंदगी में दौडते दौडते इतना थक गया हूँ कि अब कही थक कर बैठने से डरता हूँ कि खामोश देखकर मौत अपने पंजे ना फैला दें और ठीक इसके विपरीत दौडते दौडते स्वप्नों की अंधी दौड़ में शामिल ना हो जाऊं कही.......... किसी से क्या नाराज होना, अपने आप से नाराज होकर अगर हम मोक्ष का सोच रहे है तो क्या गलत है............और फ़िर वही तो करना है जो बसका अंत में होगा, बेहतर है चुन लें अभी से बजाय घसीट घसीटकर जीने से.............. हम सब लौटना ही तो चाहते है इसी ओर, इसी दिशा में, इसी प्रारब्ध की ओर फ़िर काहे को संकोच , फ़िर काहे का लोभ और माया, फ़िर काहे की देरी.............चले आओ, लौट आओ, बस एक बार सिर्फ एक बार लौट आओ........ सुनो जीवन यही से शुरू होगा फ़िर एक बार सुना है ना फीनिक्स पक्षी के बारे में...............??? लौट आओ, बस एक...

Amar Ujala, Lucknow, 12 Aug 2013

http://blog.amarujala.com/%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%89%E0%A4%97-%E0%A4%9F%E0%A5%89%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%95/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF/%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%A8%E0%A5%88%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7/

गांधी का चरखा चबा गये, भरे पेट पर देश खा गये

इंदौर से निकालने वाले सर्वोदय प्रेस सर्विस मे अभी एक समाचार पढ़ा कि सरकार ने गांधी जी के समस्त कामों , यात्राओं और लिखे पढ़े को डीजिटाईजेशन करने के लिए बयालीस करोड दिए है और एक समिति बनी है. समिति के एक सदस्य ने यह जानकारी दी कि इस बयालीस करोड का क्या , कैसे इस्तेमाल किया जाएगा इसमे भारत सहित उन सभी देशों की यादों को भी एकत्रित किया जाएगा जहाँ जहाँ गांधी जी गये थे. मेरे दो-तीन मासूम सवाल है , यह समिति   किसने बनाई और कौन इसका निर्णय करेगा कि गांधी की वसीयत क्या है और अब उसमे और क्या दस्तावेजीकरण किया जाना शेष है क्योकि इतना लिखा गया है गांधी के नाम पर कि देश के पेड़ खत्म हो गये है कचरे को छाप-छापकर. दूसरा , आप कब तक इस देश मे गांधी और गांधी परिवार और गांधी के नाम का दुरुपयोग करते रहेंगे ? तीसरा आप कस्तूरबा स्मारक को करोडो की ग्रांट बजट मे देते है , गांधी शान्ति प्रतिष्ठान को पालते है , वर्धा मे गांधी के नाम पर बेमिसाल संपत्ति को ढोते है और उसे पालते पोसते है , मेंटेन करते है , और अब यह नया शिगूफा , आखिर क्या हो गया है इस देश को कब गांधी - गांधी चिल्लाकर रूपया ऐंठते रहेंगे ये गांध...

लौटना रुधिर होना है. लौटना पृथ्वी होना है.

प्रतीक्षा की बंद मुट्ठी में ललक के आकाश को भींचे लौट रहा हूँ. स्मृतियों के मौन युद्द्ध में लौटना एक संधि- प्रस्ताव है. एक शरणार्थी समय के अपदस्थ वर्तमान के बीच लौटना, माँ होना है. विवशताओं के नाखूनों से  आशाओं के ज़ख्म कुरेदती इस जानवर रात में लौटना, अपनी मनुष्यता की भोर में सभ्यता का जागना है. लौटना रुधिर होना है. लौटना पृथ्वी होना है. देवास लौट रहा हूँ. Subodh Shukla  की दीवार से स्टेटस को चोरी करते हुए माफी सहित..........

"इस बार फ़िर गलत होने को मन करता है"

अक्सर यह होता है कि चौराहों पर से  गुजरते हुए सही रास्ता जो मै सोचता हूँ  वो आगे जाने पर गलत निकलता है, जो उम्मीद मै लगाता हूँ वो अक्सर  नाउम्मीदी मे बदल जाती है मित्रों. जब भी कही कुछ अच्छा होने की  संभावना दिखती है वही सब चौपट  हो जाता है और सब कुछ नष्ट प्रायः सा  दूर कही से आते बादल पास आकर  एक धूल भरे बवंडर मे बदल जाते है. जब खेतों से गुजरता हूँ खड़ी फसलें बिछ  जाती है अक्सर सूख जाता है उनका रस  पानी के पास से गुजरता हूँ तूं तो रीत जाते है स्रोत  बस्तियों से गुजरता हूँ तो चीखें सुनाई देती है  प्यार की उम्मीद मे अक्सर जहर मिलता है.  छोटे बच्चों से मिलता हूँ प्यार से तो तडफ उठते है    गीत और सौग गाती महिलाएँ क्रंदन करने लगती है  हंसते लोग अक्सर दुखडा सुनाने लगते है  उडते पंछी लहुलूहान होकर गिर जाते है जमीं पर  मै अच्छा सोचता हूँ सबके बारे मे बावजूद इसके  अक्सर कहते है मित्र कि साला पनौती है शुभ मौकों पर दूर कर देते है मुझे मोहित कहता है काली जुबान अक्सर  घर द्वा...

जनसत्ता मे 10 अगस्त को बी ए पास बनाम वक्त का दस्तावेज.................

http://epaper.jansatta.com/146120/Jansatta.com/10-August-2013#page/6/1

मदरसों मे गीता के बहाने नैतिक शिक्षा की पडताल.

शिक्षा मे नैतिक शिक्षा, मूल्यों की शिक्षा की बहुत बात होती है. और अक्सर इसे धार्म से जोड़कर देखा जता है, मुझे याद है जब मै आर्मी स्कूल मे था तो अक्सर नवमी के बाद बच्चे यह कालांश गोल कर देते थे और जब उनसे मै पूछता था कि क्या बात है क्यों गोल कर दिया तो कहते थे अरे सर वो......मेडम तो कल रात मे ऑफिसर्स क्लब मे फलाने ब्रिगेडियर के साथ  दारू मे झूम रही थी और आज सुबह हमें नैतिक शिक्षा पढायेगी, देवास के विन्ध्याचल अकादमी मे था तो बच्चे कहते थे वो सर क्या गरीबों से हमें सीखने की सलाह देते है जो खुद कार मे आते है और थोड़ा सा भी पैदल नहीं चल सकते. दूसरा छोटी कक्षाओं के बच्चे अक्सर आदर्श और वास्तविकता मे बहुत अंतर् पाते है, हम कहते है झूठ मत बोलो और घर मे पापा मोबाईल पर अक्सर कहते है कि आज कानपुर मे हूँ या दिल्ली मे हूँ, तो अब सवाल यह है कि नैतिक शिक्षा क्या किताबों से मिल सकती है ,  इसमे यह भी ध्यान रखना होगा कि पाठयपुस्तकों के अलावा स्कूल ये किताबें बहुत महंगे दामों पर पालकों को खरीदने के लिए मजबूर करते है और इसका मोटा कमीशन स्कूल संचालक या प्राचार्य को सीधे सीधे जाता है अब यहाँ से ...

अमर उजाला 7/8/2013

अमर उजाला मे मेरा सात अगस्त को छपा ब्लॉग.जो सर्वाधिक पढ़ा गया. http://blog.amarujala.com/%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%89%E0%A4%97-%E0%A4%9F%E0%A5%89%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%95/%E0%A4%AC%E0%A5%80-%E0%A4%8F-%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B8-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A6-%E0%A4%95%E0%A5%8B/

मृत्यु जीवन के सबसे सुन्दर भाग से भी खूबसूरत है

आशिकी दो देखी ................हीरो का मर जाना मुझे सबसे अच्छा लगा. जीवन की सबसे अच्छी सखी मौत ही हो सकती है और अगर घसीट- घसीट कर जीना पड़े तो मौत स्वीकारना बुद्धिमता है. इसकी समीक्षा मे इसके सिवा और कोई बात नहीं है.... ज़िंदगी का असली सच मौत से मिलना और ज़िंदगी का सबसे बड़ा कर्म अपने आपको उस मौत से गले लगाना है जिसके लिए ताउम्र मेहनत करते है.  दरअसल मे राहुल का मरना हो या हर्ष का मरना (मुझे चाँद चाहिए) दोनों ही हीरो है दोनों ही जीवन की उन परिस्थितियों मे से गुजरते है जहाँ जीवन और मौत एक हो जाता है, जीवन और मौत के घालमेल मे जीवन मे सुख का पलडा भारी हो यह बिलकुल गलत है और ऐसे मे अगर हर्ष और राहुल मौत को जितने गर्व से गले लगाते है वो कोई गलत नहीं बल्कि मेरे लिए यह एक मात्र आदर्श स्थिति है जहाँ जीने के बजाय या घिसटते जाने के बजाय सहज और सम् पूर्ण हो जाता है.  मै इसी को चौरासी करोड योनियों से मुक्त होने का फल मानता हूँ अगर यह मान्यता है तो. जैसे गुनाहों के देवता का हीरो बिनती के साथ ही शेष बचा जीवन जीने को अभिशप्त रहता है. जीवन से सुधा का जाना, आरोही या वर्षा का सफल होना - एक...

"एक स्थगित होती दुनिया की कविता"

शाम होते ही शाम ढल जाती है और रात की शुरुवात मे ही रात भयवह लगने लगती है और फ़िर शुरू होता है एक दुष्चक्र, एक युग से लडने का, एक दृष्टा बनकर सब कुछ सहने का और फ़िर इंतज़ार एक भोर का जो शायद उजाला लेकर आये.......... . जब तक सोचता हूँ कि कुछ करूँ  तब तक रेल के हजारों यात्री देश के दूसरे कोने मे पहुँच जाते है  जब तक उठकर चलना शुरू करता हूँ  तब तक कई हवाई जहाज पूरी  पृथ्वी का एक चक्कर लगा लेते है  जब तक कुछ करता हूँ शुरू  दुनिया मे लाखों लोग अपनी अंतिम सांस ले चुके होते है अपनी ज़िंदगी की लड़ाई हार चुके होते है मै बहुत कुछ करना चाहता हूँ पर हर बार देर हो चुकी होती है दोस्तों से बात करने लगता हूँ तब तक आधी दुनिया आपस मे लड़ चुकी होती है एक बड़ी जंग अपने दुश्मनों से लडने की रणनिती बनाता हूँ तब तक लाखों बच्चे एक उम्मीद के साथ जन्म ले चुके होते है और करोडो फूल खिल चुके होते है कितना कुछ स्थगित कर रहा हूँ मसलन मिलना- जुलना लड़ना- भिडना, रोना मुस्कुराना लिखना- पढ़ना और वो सब जो जीवन जीने के लिए जरूरी होता है पर अब फ़िर से सोचता हूँ कि इस बार यह आर-पार का मामला ब...

हंस की गोष्‍ठी पर वरवर राव का खुला पत्र

अपूर्वानंद-जनसत्‍ता के तर्क ''उदार लोकतंत्र'' की सड़क को हाइवे बना देने की शुरुआत हैं: वरवर राव का दूसरा बयान ''मित्रो, 31 जुलाई 2013 को प्रेमचंद जयंती पर हुए कार्यक्रम में आयोजकों द्वारा सिद्धांतविहीन तरीके से एक हिंदू साम्‍प्रदायिक व्‍यक्ति व वैश्‍वीकरण के समर्थक  एक  कॉरपोरेट साहित्‍यकार को तर्कहीन बहस खड़ी करने की मंशा से मंच पर वरवर राव के साथ बैठाने का जो असूचित फैसला किया गया और जिसके कारण वीवी ने इसका बहिष्‍कार किया, उसके बाद शुरू हुई बहस के संदर्भ में उन्‍होंने अपनी दूसरी टिप्‍पणी भेजने के लिए मुझे कहा है। इस बात को लेकर काफी अटकलबाज़ी हुई है कि आयोजकों ने उन्‍हें यात्रा का खर्च दिया था, इसलिए यहां यह मसला साफ कर दिए जाने की ज़रूरत है। वीवी ने आयोजकों से यात्रा का कोई खर्च नहीं लिया था। उन्‍हें टिकट बुक करवा कर आयोजन में आने को कहा गया था। उन्‍हें आयोजन के स्‍वरूप के बारे में पहली बार तब पता चला जब आयोजकों ने उन्‍हें लाने के लिए कार भिजवाई। कार में उनकी सीट पर एक आमंत्रण पत्र पड़ा हुआ था जो उसमें बैठते ही उन्‍हें दिखा। वे जैसे ही ग...

जनज्वार मे मेरा आलेख........

जनज्वार मे मेरा आलेख........ स्पर्म डोनेशन को लेकर बनाई गई फिल्म ‘विकी डोनर’ जहाँ एक ओर पतन और निराशा के माहौल में एक अच्छे सार्थक काम की शुरुआत बनकर आई थी, वहीं ‘बीए पास’ हमारे समाज के नपुंसक हो जाने और पतन की पराकाष्ठा को दर्शाती है. यह कहानी युवा के शोषण की कहानी ही नहीं, बल्कि देश में फ़ैल रही बेरोजगारी और कुछ न कर पाने की बेबसी में फंसे युवाओं के विकल्प खोजने की कहानी भी है. http://www.janjwar.com/2011-06-03-11-27-26/2011-06-03-11-46-05/4227-mard-ko-bhi-dard-hota-hai-by-sandip-naik-for-janjwar

यह स्कूल नहीं रसोइघर है - मनोज बोगटी

यहाँ किताब जलने के बाद चावल पकता है  यहाँ पेन्सिल जलने के बाद दाल पकता है  आप का ताकतवर कविता लिखना कोई बड़ी बात नहीं इस चुह्ले में आग का जलना बड़ा बात है सर, यह स्कूल नहीं रसोइघर है। ओला को नंगे पैर रौंदते हुए गरपगरप यहाँ आ पहुंचना  आंख खुले रखकर उन्होनें देखा है सपने। वे मरे हुए सपनों की पूजा करनेवाला जाति हैं  वे निरक्षर देवताओं के भक्त हैं  वे जंगल-जंगल कन्दमूल खुदाइ करते हुए यहाँ आ बसे हैं उन के पगडंडी हैं ये नद-नदी  उन के पदचिह्न हैं ये गावं अक्षर के पहुंचने से पहले यहाँ उन का गाना आ पहुंचा  गानों के आने से ही तो हिल पड़े थे नथनी अक्षर के आने से पहले यहाँ आ पहुंचा उन का खून  खून के आने से ही पहाड़ी गर्भवती हुई। खून से लथपथ गीत गुनगुनाकर उन्होनें गावं का बुना हुआ बांस के थैली जैसे टेंड़ेंमेंड़े रास्तों पे उन्होनें पेशाब किया है कन्दमूल के खतम होते ही मां ने पेट में बांधी थी लुंगी की फेर। उस दिन से ही ये गावं उस लुंगी की फेर को बाँधा हुआ है लुंगी की फेर बांधा हुआ ये गावं जिस दिन नंगे पै...

बी ए पास के बहाने से "मर्द को भी दर्द होता है"

"मर्द को भी दर्द होता है", यह सिर्फ एक डायलाग नहीं बल्कि उस पूरे भारतीय  फ़िल्मी इतिहास को चुनौती देकर नया कुछ कर गुजरने की तमन्ना है, जो भरत शाह और अजय बहल "बी ए पास"  जैसी फिल्म लेकर आये है. दरअसल मे यह फिल्म एडल्ट क्यों है मुझे समझ नही आया , इसे 'यु' प्रमाणपत्र देने की आवश्यकता थी क्योकि आज के किशोर जितने इन मुद्दों से दो चार होते है वो हमारे उम्र के प्रौढ़, वयस्क या बुजुर्ग शायद ही होते हो. और फ़िर सब कुछ तो इस समय खुला खेल है फ़िर प्रमाण पत्र देने से भला कौन इसे नहीं देखेगा. यह फिल्म  इस समय की हकीकत नहीं बल्कि गुजरते समय की मांग, बाजार, भोग, रूपया, सूचना प्रौद्योगिकी, महानगर, मध्यमवर्गीय  चेतना, युवाओं की लगातार बढती जा रही जिम्मेदारियां, सामाजिक ताने बाने मे पड़ते जा रहे खलल और बाजार का हस्क्षेप, महिला मुद्दें, असुरक्षा, शिक्षा के नाम पर पसरे अड्डे, और छात्रावासों मे होते अवैध धंधों की कहानी है. रितेश शाह ने "रेलवे आंटी" नामक कहानी का बहुत ही अच्छा स्क्रीन प्ले लिखा है और उसे परदे पर उतारने मे जो मेहनत शादाब कमाल ने की है और अजय बहल ने निर...