लक़ीर खींच कर जब खड़े हों
मिट्टी से बचना सम्भव नहीं ।
नक्सलबाड़ी का तीर खींच कर जब खड़े हों
मर्यादा में रहकर बोलना सम्भव नहीं
आक्रोश भरे गीतों की धुन
वेदना के स्वर में सम्भव नहीं ।
ख़ून से रंगे हाथों की बातें
ज़ोर-ज़ोर से चीख़-चीख़ कर छाती पीटकर
कही जाती हैं
वरवर राव
मिट्टी से बचना सम्भव नहीं ।
नक्सलबाड़ी का तीर खींच कर जब खड़े हों
मर्यादा में रहकर बोलना सम्भव नहीं
आक्रोश भरे गीतों की धुन
वेदना के स्वर में सम्भव नहीं ।
ख़ून से रंगे हाथों की बातें
ज़ोर-ज़ोर से चीख़-चीख़ कर छाती पीटकर
कही जाती हैं
वरवर राव
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