दारिद्र और विद्या
{हमारे संस्कृत के गुरु बिंदुमाधव मिश्र की बातें , जिसे मैंने कविता मे बांध लिया है.}
तम्बाकू निगल लिया हो भैया जैसे
अपना जीवन बस
ऐसे ही बीत गया.
साल दो साल जो और है
ऐसे ही निबट जायेंगे वह भी.
दो जून का चून
लकड़ी-कपडा-तेल-नून
बखत पर मिल गए
अपने लिए पर्व हो गया.
कितना कुछ करने को रह गया
जीवन जुटाने मे ही लग गया
जीने के उपकरण
हजार किये खटकरम
कट गयी जैसी कटनी थी
तुम बताओ
क्या क्या पढ़ रहे हो?
उससे भी बढ़कर
लिख क्या रहे हो बन्धु आजकल
और यह क्या
इतने दुबलाते क्यों जा रहे हो
काठ जैसे दिख रहे है हाथ
जरा दही-दूध पिया करो
घी खाओ
में तो नहीं हो पाया तुम्हारा
चक्रपाणि ब्रह्मचारी
मगर तुम्हे मेरा महापंडित जरूर बनना है.
बोलो बनोगे की नहीं
हड्डियाँ अपनी मजबूत करो
देखो कितनी भूमि कितना विस्तार
पड़ा है
जहाँ आदमी के पैरों की नहीं है छाप.
{ चक्रपाणि ब्रह्मचारी-महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन की आत्मकथा 'मेरी जीवन यात्रा' के एक पात्र है.}
नदी में दोलते है सहस्रों सूर्य,
स्वच्छ दर्पण झिलमिला रहा हैं.
मुख न देख
पाओगी तुम स्नान के पश्चात्,
छांह ज्यों ही पड़ेगी
सूर्य का चपल बिम्ब घंघोल
देगा आकृति,
पुतलियाँ ही दिखेंगी तैरती मछलियों सी,
इस वर्ष वर्षा बहुत हुई है इसलिए
अब तक ऊपर ऊपर तक भरी है नदी.
पूछता हूँ
'नदी का नाम लखुंदर कैसे
पड़ गया?'
युवा नाविक बता नहीं पाता
'लखुंदर' का तत्सम रूप
क्या होगा...
नांव हो जाती है
तब तक पार
दिखती हैं मंदिर की ध्वजा
अगली बार
'नहाऊंगा नदी में' करते हुए संकल्प
चढ़ता हूँ सीढियां.
पीछे जल बुलाता हैं.
महानदी
मध्यदेश का सीना
ताम्बई, स्थूल व रोमिल. पड़ी
है महानदी उस पर,
पहनकर वनों की मेखला
घिसे रजत की श्याम
द्रोण के सूती नीलाम्बर से
ढंके देह मेदस्वी,
बाट जोह रही सूर्ज की.
मछलियाँ पेट में कर
रही है निरंतर उत्पात. दिनों
से मछुआरों का दल
नहीं आया. उदबिलावों
का झुण्ड ही उदरस्थ
करता हैं शैतान मछलियाँ पर
यह तो सहस्र हैं. अब
सहन न होती यह चपलता.
कब आएँगी यहाँ
घनचुम्बी पालों वाली नांवें,
डालेंगी जाल, तब
आराम से सोऊँगी मैं.
कीच में गिरी गेंद
सी मैली और बैचैन महानदी
पार की छत्तीसगढ़
में, जाता था जब बंगाल.
भाषा, भूगोल और रसायन-शास्त्र
तुम शब्दों में
मगर नहीं तुम तो
छीन लेती हो अर्थ मेरे शब्दों से
तुमसे मिलने के बाद
मेरे शब्द रह जाते हैं
महज वर्तनी.
व्याकरण के नियमों की तरह
भरी हो तुम भाषा में
किन्तु कभी कभी बोलने की इच्छा
नहीं होती
और मूक मैं देखता रहता हूँ
तुम्हारी भंगिमाएं ध्यानस्थ
लौटता हूँ तो हो जाता हूँ
अकेला
और तुम कितनी भव्य हो
अकेली भी लगती हो जैसे भीड़ में हो
कोई भूगोलशास्त्री घंटों
पढ़ता रहता ग्लोब
जैसे देखता हूँ मैं
तुम्हारा मुंह कभी.
रसायनों की प्रयोगशाला सा
मेरा मन
भरा हैं
अनेक रसों से, पारे और
सीसें से, आब और नमक से
एक जरूर होगा
कोई विस्फोट और उड़ जाएगी
खिड़की की पाटी.
अग्नि हैं भाषा, पंख सा जलकर
भस्म हो जाऊँगा. नित्य सात बजे
सायंकाल फ्रांसीसी भाषा का प्रेमी
अपनी प्रेयसी की प्रतीक्षा
करता हैं, दिनभर की थकी, जिसका
मन बासे दूध सा फट फट
पड़ने को हैं, धीरज से क्रोशिया
बुनती हैं.
नित्य दिन के जाते जाते
फ्रांसीसी भाषा कहाँ खो जाती
हैं? शब्द गिनता हैं अँगुलियों पर वह,
मात्राएँ और उच्चारण में भेद भ्रमित
कर देता हैं अर्थ. यह भाषा जिसे सीख
रहा हैं प्रेयसी से, गद्य में, अपने अनर्थ में
भी कैसी कविता लगती हैं. वह कहती हैं
हैं ''cava bien merci.'' चन्द्रमा निकल
आता हैं सुदी प्रथमा को ही. कहो तो
फ्रांसीसी में क्या कहते हैं चन्द्रमा को.
(परिचय)
शिशिर दिवस केश धो रही थी वह, जब मैंने
उसे पहली बार देखा था भरे कूप पर.
आम पर बैठे शुक-सारिकाएँ मेघदूत
के छंद रटते रटते सूर के संयोगों
भरे पद गाने लगे अचानक. केश निचोड़
और बाएं हाथ से थोड़े से ऊँचे कर
उसने देखा और फटी धोती के टुकड़े
से पोंछ जलफूल उठी नील लता सी. चली.
दो चरण धीमे धरे ऐसे जैसे कोई
उलटता पलटता हो कमल के ढेर में दो
कमल. कमल, कमल, कमल थे खिल
रहें दसों दिसियों. कमल के भीतर भी कमल.
केश काढना
{झगड़ा}
श्यामा भूतनाथ की केश काढती रहती
हैं. नील नदियों से लम्बे लम्बे केश
उलझ गए थे गई रात्रि जब भूतनाथ ने
खोल उन्हें; खोसीं थी आम्र-मंजरियाँ
काढतें काढतें कहती हैं 'ठीक नहीं यों
पीठ पर बाल बिथोल बिथोल फंसा फंसा अपनी
कठोर अंगुलियाँ उलझा देना एक एक
बाल में एक एक बाल. मारूंगी मैं
तुम्हें, फिर ऐसा किया तुमने कभी.
देखो कंघा भी धंसता नहीं
गाठों में'. 'सुलझा देता हूँ मैं', कह
कर उसने नाक शीश में घुसा
सूंघी शिकाकाई फलियों की गंध.
'हटो उलझाने वाले बालों
को. जाओ मुझे न बतियाना.' भूतनाथ ने
अंगुली में लपेट ली फिर एक लट.
सिन्दूर लगाना
{डपटना}
घूँघरों में डाली तेल की आधी शीशी ,
भर लिया उसके मध्य सिन्दूर और ललाट
पर फिर अंगुली घुमा घुमा कर बनाया उसने
गोल तिलक. पोर लगा रह गया सिन्दूर
शीश पर थोड़ा पीछे; जहाँ से चोटी का
कसा गुंथन आरम्भ होता हैं, वहां पोंछ
दिया. उसे कहा था मैंने 'इससे तो बाल
जल्दी सफ़ेद हो जाते हैं.' हंसी वह. मानी
न उसने मेरी बात. 'हो जाए बाल जल्दी
सफ़ेद. चिंता नहीं कल के होते आज हो
जाए. मैं तो भरूंगी खूब सिन्दूर मांग
में. तुम सदा मुझ भोली से झूठ कहते हो.
कैसे पति हो पत्नी को छलते रहते हो
हमेशा. बाल हो जायेंगे मेरे सफ़ेद
तो क्या? मेरा तो ब्याह हो गया हैं तुमसे.
तुम कैसे छोड़ोगे मुझे मेरे बाल जब
सफ़ेद हो जांयेंगे. तब देखूंगी बालम.'
१.
दोपहर का खजूर सूर्य के
एकदम निकट
पानी बस मटके में
छांह बस जाती अरथी के नीचे
थे जब
तुमने देखा
शंख में भर गंगाजल भिंगोया शीश
गुलाबी रंग
सांवले कंधे और चौड़े हो गए
भरने को दो स्तनों को ऊष्ण
स्वेद से खिंचे हुए
खिंचे हुए भार से
कास लेने को
जब निदाघ में
और और श्यामा तू मुझमें एक हुई
पका, इतना पीला
कि केसरिया लाल होता हुआ
रस से
फटता, फूटा सर पर खरबूज
कंठ पर बही लम्बी लम्बी धारें
सबसे ऊंची ईमारत की छत से
रेत का देह.
और फल पकने लगा भीतर ही भीतर
सूर्य पर टपकने लगी
नीम्बू की सुगंध
जिसमें वह कसमसा रहा हैं अब तक
जैसे दुनिया
धूज रहा हूँ मैं बज रहीं हैं हड्डियाँ
यह वहीँ हड्डियाँ हैं
जो तुमसे मिलने के बाद
पतवार सी छाप छाप करती हैं
शरीर नौका हो गया हैं
इस बात को दोहराता हूँ मैं
मुझे दोहराने दो यह, तुम
यदि डिस्तुर्ब होते हो
या धक्का दे दो किसी खाई में
को कुछ सुनायी नहीं देता.
मैं कुछ सूंघ नहीं पाता मोगरे के
अलावा. नमक और गुड का अंतर
ख़तम हो गया हैं मेरे लिए
इस छूने के लिए मैं जल चुका हूँ
पूरा का पूरा.
इन दीदाहवाई घटाओं की कोई दरोगा रबड़ी क्यूँ नहीं घोंट देता? दिल निचोड़े देती हैं.
हमारे सब यारों को रोजगार ने इधर उधर कर दिया जानो तकिये की रुई बखेर दी. वरुन हीरो बनने दुबैया उड़ गए और निखिल ने रेडियो पे गाने बजाने की लिए पुने की बस पकड़ी. दीपक मुनिराजू जंगली हिमाले पर जाने को सामान बांधे बैठे हैं. जर्मनी को शशांक का हवाई जहाज़ एक टांग पर खड़ा हैं. साँची की रवानगी दिल्ली की और हैं, इस दिल्ली पर बजर गिरें.
ब्रिंदा रूठ गयी और बनारसी बाबू आरम्भ मुंह चढ़ाये चढ़ाये फिरते हैं. दीपक गर्ग अपने आईवरी टावर की किवारियां ओंट खुदा जाने कौन सी खिचड़ी पकाने में मशगूल हैं. रुचिरा ने ध्यान लगा कर जोगनियाँ का भेष ले लिया और बंगाली मोशाय अभिसेक हेरोइन ढूँढने को मारे मारे भटकते हैं.
हाय! हमारी तो महफ़िल ही उजड़ गयी.
अब किसके मुंह लगे और किससे तमाम रात बहस करें. किसके गले में बांह डाल कनबतियां करें और हँस हँस के लोट-पोट हो. किसकी छाती पर मूंग दले और किस पर दिखाए तेवर.
निखिल के बिना अब कौन उठाये हमारे नखरे और सहे नाज़ुकमिजाजी. चाय के कप औंधे पड़े हैं और चौराहे से दौड़ दौड़ कर व्हिस्की लाने का कोई सबब नहीं. मुनिराजू की अब्सेंस में कौन कमबख्त गांजा पी पीकर कमरे को धुंवे से भरे और आरम्भ की रंग-बिरंगी चड्डियों की झंडियों के बगैर हमारा यह सूना कमरा कैसे गुलजार हो.
मस्खरियों और प्रेंक्स के ज़माने हवा हुए और उस पर उनकी यह अर्ज़ के मियाँ ज़रा सिनेमा के लिए लिखों, अब उन्हें यह कौन बतलाये के हाँ हमारी जिंदगी की सिनेमा एकाएक ब्लेक एंड व्ह्यइट हो गयी और आवाज़ फुर्र.
अब किसके लिए बम्बई आये? उसपर यह बरसात और मानसून का मनहूस ग्रे रंग, जी डूबा डूबा जाता हैं और आँखों की पुतलियाँ बिछोह की मारी खुद को ही देखने लगती हैं.
भूतनाथ की संस्कृत कवितायों का अनुवाद
अनुष्टुप आदिकवि का छंद हैं, यहाँ मैंने अपने पड़दादा श्री बद्रीनारायण पाण्डेय कविनाम भूतनाथ {१९१०-१९३९] की संस्कृत कवितायों का अनुष्टुप में ही अनुवाद किया हैं.
रूप
विरोध करता हूँ मैं,
सदैव रूपवाद का
किन्तु बंध गया रूप
से तुम्हारे. लगी सदा
ही मुझे तुम ज्यों अर्थों
में अर्थों की तहें. भरी
तब भी अभिधा से. ज्यों
हो बिम्बित परस्पर
दर्पण दो. निराला की
कविता पढ़के मन
में भींग हल्दी गांठें
होती कोमल हैं, दृगों
में छांह छवि की वैसी
हैं तुम्हारी. असंख्य हैं
ध्वनियाँ मन में. मिट्टी
की हांडी में हुई पक
पक के गाढ़ गन्ने के
रस की खीर. प्रेम भी
मेरे भीतर वैसा ही
जलता हैं, सुनों तुम.
मूढ़मति मैं
जल में हिलती क्षिप्त
मन के छवि. वीचियों
में लावण्य घुला ही हैं
दिनों से. तुमने मथा
विक्षेप में पड़ा चित्त
भी बार बार. बिम्बन
सूर्य का स्थिर जैसे हो
एकाग्र कुंड में तुम
वैसी लोलमना हो. जो
बड़ी स्थिर प्रतीत तो
होती हैं किन्तु होती हैं
पकड़ से सदा परे.
मैं मूढ़मति मोहों में
पड़ता हूँ. निरुद्ध क्यूँ
वृत्तियाँ हो नहीं पाती?
रहता हैं बना भ्रम.
पौष की पूर्णिमा
धूल धंस चुकी भू में
स्वच्छ हैं शिव की जटा.
निकट आ गए तारें
करों से दूर थे सब.
चन्द्रमा थिर हैं जैसे
मांजकर कमंडलू
भर लिया सुधा से, हैं
रात्रि लम्बी. हवा थिर.
सुनाई पड़ते भैसों
के श्वास. सो रहे सभी
प्रानी. भुवन तीनों में
जाग कोई रहा यदि
ब्रह्मराक्षस अश्वत्थ
वृक्ष पर. दरी पर
भूतनाथ. सिराओं में
मस्तिष्क की हलाहल
चढ़ा जीवन-मृत्यु का.
ऐसा गाढ़ा तिमिर था कि सुई से छेड़
दो. जो धातु टकराने से बजने लगे. काले पारे जैसा था
पर पोरों पर परस नहीं. जामुन जैसा जीभ पर
लगता हैं वैसा कोई स्वाद भी नहीं तिमिर में.
बागेश्री सा सुनाई भी नहीं देता.
उस तिमिर में सोलह बारियाँ फांद लाया हूँ चुराकर मैं
तुम्हारे लिए मेरी मल्लिका हरिश्चंद्र भारतेंदु का इत्रपाश.
देखो छूट गयी मुझसे भारतेंदु के
नाटक की हस्तलिखित पोथी और कलाबत्तू की टोपी
जो लगाये फिरता तो लोग समझते मुझे
आलिम-अहलदार-उस्ताद.
किन्तु तुम्हारे केशों के अन्धकार में
मैं अँधा हो चुका हूँ. चुराया तो चुराया इत्रपाश.
न मोती-पन्नों का बक्स न चांदी का पानदान.
परनानी मेरी सोते सोते नींद में में उठकर
जैसे कच्चे पान पर धरती थी तम्बाकू और बांधती थी चूना;
वैसी ही अर्धरात्रि वहां किसी अलसमाती ने मोगरे के फूल जैसी
बत्ती से छुवाई हो माचिस की जलती तीली.
मैं भागा. मुझे क्या पता था कि यह कवि-कथाकार उदय प्रकाश के
कैमरे का चौंध हैं. मैं भागा मल्लिका किन्तु पकड़ा ही जाऊंगा. मैं पकड़ा ही जाऊंगा मल्लिका;
कभी बच सका हैं इत्र का चोर.
वह देखो चौराहे पर मचा पड़ा हैं रौर. सिपाही-कोतवाल नोंच रहें हैं
ठाढ़ेश्वरी बाबा की जटाएं.
हाय, मैं तो कवि बनना चाहता था और तुम्हारे प्रेम में
इत्रपाश चुरा बन बैठा चोर.
से छुवाओ मोगरे, गुलाब, चमेलियाँ
हमें मारो गेंद बराबर गेंदा कुसुम से
ठगिनी ठुनके तो भी चूमों छिगुनियाँ
हमें दुराओ कहें तो न लगाओ छतियाँ. चिबु मसें
हमारे न हेरों, तकों तिल उसके बने कुंकुम से.
संग उसके दुलकियों में पड़ें रहों दिन रैन,
हम पंखा भी झुलायें तो हो उमसें.
हम लुरिआयें इतराओं न जागों हरजाई
वोह न जगाएं तो भी जागों उसके बिछुवें की रुनझुन से
उसकी सुधियाँ भी अंखियाँ फंसायें रक्खें,
हमसे मिलकर भी रहों गुमसुम से
बरौनियों तक.
पहले पड़ी बूंदें धीमे
कदम्ब के फूल जैसे
कोई जम्बुक तोड़ तोड़ कर फ़ेंक रहा हो.
तब अचानक
जैसे ही वह मुस्कुराती
बाहर निकली खरीदे सेर भर मिठाई
कैसे जोर से पड़ी बरखा.
देखते देखते उसकी कलफ दी
साड़ी हो गयी सोरबोर.
सिन्दूर नाक के किनारे किनारे बहता
जामुनी ब्लाउज की सफ़ेद किनोर तक बह आया.
केश भींज कर नागों से भारी
हो गए.
अंजन की रेखाएं फूल आई
जल में.
'लगती है यह बूंदें मुख पर
जैसे कंकर हो '
कहकर पतरे की आड़ में खड़ी
हो गयी मेरी प्यारी
भींजे बाजार की गंध से भरे थे नासापुट
भींजी, धूजती, मुग्ध वर्षा से
चूमता कैसे उसके नयन
भरी हाट में, चूमता कैसे उसके
वचन
भरी दोकान के बाहर.
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