पढ़ाई का संघर्ष, जीवन का संघर्ष, दिल्ली में दर-बदर, फिर दिल्ली से हैदराबाद, फिर दिल्ली, फिर दिल्ली में घर बदलना और वर्षों बाद पीएचडी की डिग्री मिलना
इस बीच अपनी शुगर, इन्सुलिन और दवाइयाँ और एक स्थाई नौकरी का ना होना कितना दुखद था जीवन - फेसबुक से लेकर घर परिवार में माँ या रिश्तेदारों से भिड़ जाना भी उसके संघर्ष में था, हम दोनों इन्सुलिन के आदतन शिकार थे और जब बात होती तो कहती अरे खाओ पियो इन्सुलिन को भी शरीर में जाकर कुछ काम करने दो, आप तो आ जाओ आज बढ़िया मछली बनी है - जब हैदराबाद में थी तो वहाँ के चावल वाले व्यंजनों की बात और उनके अनूठे स्वाद की बात होती थी
ऐसे ही किसी रविवार को वो लम्बी बात करती थी फोन पर कि आज हैदराबाद में फलानी जगह डोसा खाकर आयें, दिल्ली विवि में फलानी महिला प्रोफ़ेसर की क्या सोच है, अलाने - फलाने बड़े कवि की कहानियाँ थी उसके पास, किसने अपनी निजी ज़िन्दगी में पत्नी को संत्रास दिया और कैसे सार्वजनिक जीवन में महिला समता की बात कर रहा है,आज जो जर्मनी अमेरिका में है हिंदी के नाम पर इसके धत कर्म क्या है, खूब बातें करते और सुख-दुख बाँटते पर वह कभी दुखी नही होती
बोलते-बोलते थक जाती थी, मुझसे भी बड़े अधिकार से लड़ती थी कि आपका रवैया महिलाओं को लेकर सही नही है, ज़्यादा मुंह मत लगाया करो इन जेंडरियो को, आपकी उस पोस्ट में तथ्य ठीक नही है, फिर कहती आप दिल्ली आ जाओ घूमेंगे, हैदराबाद आये नही, जयपुर में थी तो भी मिल नही पाया और दिल्ली जब भी गया हमेंशा दूरी के कारण टालता रहा कि अगली बार एक पूरा दिन रखकर आऊँगा, लौटने में मैं स्टेशन पर ट्रेन में होता या एयरपोर्ट और उसका फोन आता कि कन्नी काटकर फिर जा रहे हो आपसे तो इंदौर वाले आपके दोस्त अच्छे है जो मिल तो लेते है हम लोगों से और मैं शर्मिंदा होकर कहता कि सॉरी बॉस अगली बार पक्का
इतनी जल्दी चली जाओगी पता ही नही था, सबसे गुस्सा होती , अभी जब दो बार अस्पताल में भर्ती रही तो दोस्तों पर गुस्सा निकाला कि किसी ने खबर नही ली, दो माह गायब रही फेसबुक से तो कोई पूछ भी नही रहा कि कहां हो, मैंने कहा यह सब नकली रिश्ते है तो खूब ज़ोर से हँसी और बोली "आप भी तो पिछले आठ दस वर्षों में मिलें नही, अब हम लोग ही आते है, थालीपीठ खाना है , पूरण पोळी भी और बताईये क्या लेकर आऊँ इस बेदर्द दिल्ली से, उज्जैन घुमाएंगे ना, इंदौर की चाट का बहुत सुना है"
नूतन यादव को बहुत करीब से जानता था और वह एक दोस्त ही नही कई मुद्दों पर बेहतरीन मेंटर थी, यादव समाज से लेकर बाकी सामाजिक, राजनैतिक और दिल्ली के सम सामयिक साहित्यिक परिदृश्य पर वह जिस तरह से टिप्पणी करती थी वह अप्रतिम हुआ करती थी
नूतन का जीवन इतना विचित्र, संघर्षमयी और प्रेरणादायी था कि मेरा बस चलता तो उसकी जीवनी आज पाठ्यक्रम में लगवा देता, बहुत सारी बातें है पर वो सब नही लिखूँगा पर इतना ज़रूर कहूँगा कि वो एक मिसाल रही जीती जागती और मेरे लिए, दोस्तों के लिये भी और हमारे बीच अब ज़्यादा रहेगी
अलविदा दोस्त, भौतिक रूप से ना सही पर संघर्ष, विचार और साथ में तुम हम सबके साथ हो , उन सबके लिये प्रार्थनाएँ जो उसके बेहद करीबी थे और मरने तक उसके साथ रहें, उसे साथ दिया और उसकी हर बात प्यार से मानते रहे
6 दिसम्बर की रात्रि को उसके दुखद निधन की सूचना से दुखी हूँ और मेरे पास से लग रहा शब्द चूक रहें हैं
डॉक्टर नूतन यादव तुम यही हो इसी जगह हम सबके साथ, किसी हेड मास्टरनी सी डांटती हुई...
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कितनी रातों को
चैन की नींद आ गई
चैन की कविता
नही आई
अनुज Mudit Shrivastava को लम्बे अरसे से जानता हूँ - एक बेहतरीन युवा दोस्त, बाल साहित्य पर पकड़ रखने वाले व्यक्ति, कुशल संगठक और एक अच्छे प्रशिक्षक के रूप में, पर एक कवि के रूप में व्यवस्थित तब जाना जब मेरे हाथ में उनका संग्रह "तभी हमने अपना पेड़पन खो दिया" हाथ में आया
120 पृष्ठों में फैले हुए इस संग्रह में उनकी कविताओं का विस्तार और संसार नजर आता है, मूल रूप से छिंदवाड़ा से आने वाले सिविल इंजीनियर बाबू, मुदित लंबे समय से भोपाल में काम कर रहे हैं ; चकमक और फिर बाद में अभी "रंग संवाद" में वे सहायक सम्पादक के रूप में काम कर रहे हैं
मुझे याद है उन्होंने भोपाल में अपने घर पर हर रविवार को युवा कवियों के साथ गोष्ठी की शुरुआत की थी और कविता सुनने - सुनाने के साथ-साथ वे उन पर टिप्पणियां भी करते थे, धीरे-धीरे यह मंच और काम इतना लोकप्रिय हुआ कि उन्हें "निंबोली क्रिएटिव" नाम की संस्था शुरू करना पड़ी, हम मित्र लोग मुदित को "बोलता कागज़" के रूप में भी जानते है , वैसे भोपाल में वे सबके लिए संकट मोचन भी है, आधी रात को मदद के लिए तैयार रहते हैं
सबसे अच्छी बात यह है कि मुदित को कैरियर के लिए अपने पसंद का न मात्र क्षेत्र मिला - बल्कि वे वही काम कर रहे हैं जो वे करना चाहते थे, इस संग्रह में उनकी वे सारी कविताएं शामिल है जो शुरुआती दौर की हो या अब परिपक्वता की ओर जा रही है, वे कहते हैं - "जिसे मैं अभी तक मिला, वे सभी मेरे भीतर हैं, मेरी स्मृतियों में उनकी भी स्मृतियां शामिल है, मैं जो कहता हूं उसमें उनकी भी आवाजें हैं, मेरे सपनों में उनके सपने भी शामिल हैं, मैं एक अकेला उन तमाम लोगों से मिलकर बना हूँ - जो अभी तक मुझसे मिले हैं", नवीन सागर से वे प्रभावित हैं और अपनी कविता में वह बहुत नए तरह की बातें करते हैं, उनकी कविता परंपरागत शिल्प तोड़कर नया फ्रेम बनाती है, और नया रचती है
इस पुस्तक का आमुख गीत चतुर्वेदी ने लिखा है, गीत कहते हैं - "इन कविताओं में विराट शब्द नहीं, छोटी इच्छाएं हैं जो अपनी नेकनीयती और आकार से विराट को प्रश्नांकित कर देती है, वह महत्वाकांक्षाओं के नहीं सहजता और संभावनाओं के पंख लगा कर उड़ती है, इसमें किफ़ायत की भाषा है और संवाद की शैली है"
सबसे अच्छी बात मुझे यह लगी कि मुदित ने लिखा तो बहुत है परंतु पहले संग्रह में मात्र 65 कविताओं के साथ वे अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं - बजाय अपना सारा कुछ एक ही किताब में समेटने के और यह कितना मुश्किल रहा होगा मैं समझ सकता हूँ - क्योंकि अपनी कविताओं में से संग्रह के लिए कविताएं छाटना बहुत दुष्कर कार्य है और कवि के लिए तो यह ज्यादा मुश्किल हो जाता है - जब उसे अपनी हर कविता अपने ही पुनर्जन्म के रूप में लगती है
मुदित का यह संग्रह उम्मीद जताता है कि उनमें बहुत सारी संभावनाएं हैं और हिंदी साहित्य के फलक पर वे आगे आकर अपना नाम अपनी कविताओं के जरिए ही रोशन करेंगे
बहुत सारा स्नेह और ढेर सारी शुभकामनाएँ इस उम्मीद के साथ कि वे खूब लिखे, खूब रचे और देश भर में जा - जाकर कविता के नए पाठक और नए कवि तैयार करें
सुकामनाएँ
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