जूलिया रॉबर्ट्स के शब्दों में बहुत गहरी सच्चाई है। वह कहती हैं कि जब लोग आपको छोड़ देते हैं, तो उन्हें जाने देना चाहिए। आपकी नियति कभी भी उन लोगों से जुड़ी नहीं होती है जो आपको छोड़ देते हैं, और इसका मतलब यह नहीं है कि वे बुरे लोग हैं। इसका मतलब सिर्फ इतना है कि उनकी भूमिका आपकी कहानी में समाप्त हो गई है।
इन शब्दों से हमें यह याद दिलाया जाता है कि हमारे जीवन में आने वाले सभी लोग हमेशा के लिए रहने वाले नहीं होते हैं। लोग हमारे जीवन में विभिन्न कारणों से आते हैं, जैसे कि हमें सबक सिखाने, अनुभव बांटने या हमारे साथ कुछ मौसमों में चलने के लिए। लेकिन जब वे जाते हैं, तो यह महत्वपूर्ण है कि हम यह पहचानें कि उनकी भूमिका हमारी यात्रा में पूरी हो गई है, और हमारे रास्ते अब अलग होने चाहिए।
उन लोगों को पकड़ना जो जाने के लिए बने हैं, आपकी वृद्धि को देरी से रोकता है और आपको अपनी नियति की पूर्णता में जाने से रोकता है। यह उन लोगों को अस्वीकार करने या दोष देने के बारे में नहीं है जो जाते हैं, बल्कि यह समझने के बारे में है कि आपकी कहानी उस अध्याय से आगे जारी रहती है जिसमें वे थे।
कभी-कभी उनका निकास नए अवसरों, गहरे संबंधों और अपने आप के नए पहलुओं की खोज के लिए रास्ता देता है। जाने देना हमेशा आसान नहीं होता है, लेकिन यह आवश्यक है।
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कभी - कभी मन बेचैन होता है तो ऐसे शब्द किसी गहरे घाव पर रूई के फोहे सा असर डालते है और थोड़ी ही देर के लिये सही, पर शांति मिलती है
जाते हुए साल के अपने दुख और आने वाले साल की अपनी उम्मीदें और आशंकाएँ - बस देखना यह है कि कैसे बैलेंस करके जीवन का यह साल गुज़रेगा
दिलासा देता हूँ अपनी तमाम कमज़ोरियों - खूबियों, तमन्नाओं - डर, निराशाओं - आशाओं और महत्वकांक्षाओं को कि
"मैं लौट कर आऊंगा शाखाओं पर खुशबू लेकर,
पतझड़ की जद में हूँ - जरा मौसम बदलने दो"
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अप्रैल '25 में 58 का पूर्ण हो जाऊँगा और इसके बाद अब यह तय किया है कि कोई औपचारिक पढ़ाई नही करूँगा और ना ही तनाव लेने वाले कोई भी काम, सफ़र ज़्यादा करूँगा, लोक में ज़्यादा रचूंगा और बसूंगा, और शेष बचा जीवन और ज़्यादा आत्म केंद्रित होकर जियूँगा, बहुत पढ़ लिया, डिग्रियों की माला अंगुलिमाल की तरह लटकाकर घूमना तो है नही, एक बात ईमानदारी से कहता हूँ कि जो खुशी 1983 में ग्यारहवीं बोर्ड [मप्र मा.शि.म.] की परीक्षा पास कर हुई थी और जो सीटी मारी थी लम्बी - वह खुशी जीवन में फिर कभी नही हुई
पिछले दो माह में नर्मदा किनारे रहा हूँ लगभग - नेमावर, होशंगाबाद, पिपरिया, सांडिया, डिंडौरी, अलीराजपुर, बड़वानी, राजपुर, बड़वाह, खण्डवा और जबलपुर - बहुत मन है कि माई के किनारे छोटी - छोटी यात्राएँ करूँ जैसे कुछ मित्र कर रहें हैं और प्रकृति के सानिध्य में रहूँ, बहुत घूम लिया शहर, नगर और मॉल्स, सब देख लिया और अब इन सबसे वैराग्य हो गया है
कल जीवन की आख़िरी लिखित परीक्षा है, जो एक और योग्यता का तमगा छाती पर टांग देगी, हालाँकि मैं अब पास- फेल की माया से निकल चुका हूँ - बस चाहता हूँ कि यह अन्तिम वैतरणी पार हो जाये तो गधे - घोड़े गंगा नहा लिए
यारों सब दुआ करो
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सुबह अक़्सर लम्बी उम्मीदें लेकर आती है - आशा, उत्साह, जोश, नया सीखने और कुछ नया करने की ललक, नया पढ़ने और लिखने का लालच, अपने को व्यस्त रखकर थका देने का इरादा - मन प्रफुल्लित रहता है, पर धीरे - धीरे रूटीन वाले काम, विचार, सोच और प्राथमिकताओं के चयन में क्रमबद्धता का बिखराव दोपहर तक सारे मंसूबों पर पानी फेर देता है, दिमाग़ अपुष्ट आशंकाओं से भर जाता है और लगता है साँझ का क्या होगा, ये नैराश्य नही बल्कि व्यवहारिक समस्याएँ है जो प्रतिदिन झेलते हुए उम्र इस मक़ाम पर आ पहुँची कि अब लगता है ठीक है - जितना हो सकता है - करो, वरना छोड़ो ; ना पढ़ पाने का ग़म सबसे ज़्यादा सालता है इधर
आशा, उम्मीद और जोश भी सापेक्ष है परिस्थितियों के - यह मानना पड़ेगा
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लगातार सफ़र करना और सफ़र में रहना भी एक भोग है, एक तरह का योग है और यह सिर्फ़ बिरलों को ही नसीब होता है - सफ़र से सीखने की प्रक्रियाएँ आसान हो जाती है, मनमिली जगहों, खिलंदड़पन, बेलौसपन, बेख़ौफ़ रहना और अपनी मनमर्जी से जीवन शैली विकसित करना - खासकरके यह उन लोगों के लिये बहुत उपयोगी है जो अपने उसूलों और सिद्धांतों पर बग़ैर किसी तानाशाही और अनुशासन के जीवन को निर्मल बहते पानी की तरह धारा के साथ या धारा के विरुद्ध जीना चाहते है
लम्बी यात्राओं के बाद अब भीतर की ओर चलना शुरू किया है इस बीच नए रास्ते, नए दुख दर्द और नये पड़ावों के साथ नए संगी साथी होंगे - देखना है कि एक यात्रा खत्म कर फिर एक यात्रा जो शून्य से आरम्भ हो रही है उसका अंजाम क्या होगा, अनुभवों ने परिपक्व तो नही पर जिज्ञासु जरूर बनाया है और शायद यही अब कुछ सीखा सकें तो शायद उद्धार हो
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असफलताओं ने ज़िन्दगी को रफ़्तार दी और इस सबकी इतनी आदत पड़ गई - अब कोई बाधा आती है तो लगता है यह सब तो हिस्सा ही है अपने होने का - अस्मिता की लड़ाई, जिजीविषा का संघर्ष, जीने की होड़, अपने सिद्धांतों और उसूलों पर काम करने की आदत से आजीविका के स्थायित्व पर सतत उठने वाले प्रश्न, उपेक्षा के साम्राज्य और लगातार पिछड़ने की इतनी बुरी तरह से आदत हो गई है कि अब लगता है जीवन नर्मदा नदी के किसी चौड़े पाट की तरह है - जिसमें तमाम तरह की चीज़ें बहती रहती है और इस सबके बाद भी नदी अपने उद्दाम वेग से बहते हुए, अपनी खूबसूरती के संग - साथ अपनी मनमिली जगहों से गुजरते हुए एक दिन विशाल सागर में मिल ही जाती है
आएगा वो एक दिन भी
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