जीवन बहुत छोटा है और बहुत सरल है - जन्म और मृत्यु बस, पर दिक्कत यह है कि हम सब अपने सपनों और ज़िद के बुरी तरह से शिकार है - लिहाज़ा ताउम्र भुगतते रहते हैं और इन दो ध्रुवों के बीच से गुज़रने वाले सुगम मार्ग को कष्टप्रद बना लेते हैं
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यह पूरा संसार माया, प्रलोभन, अनाचार, आसक्ति, तमाम तरह की वासनाओं, और गलाकाट होड़ से भरा पड़ा है - आवश्यकता इस बात की है कि हम बग़ैर किसी से तुलना किये और दूसरों की चकाचौंध से प्रभावित हुए बिना अपने सिद्धांतों, मूल्यों और न्यूनतम आवश्यकताओं को अपनी सीमाएँ पहचानकर पूरा करते हुए जीवन के दुर्गम पथ पर चलते रहें
जब लगें कि भोग - विलास और दूसरों की जीवन शैली, सुख और माया आपको बेचैन कर रहें हैं तो उस मार्ग से विमुख हो जाये, ऐसे रिश्तों को भी विलोपित कर दें और अपना मार्ग अपनी चादर के अनुसार प्रशस्त कर आगे बढ़ें - जीवन तुलना करके या नकल करके कभी सिद्ध नही हो सकता किसी का भी - यह सर्व मान्य निराली बात है और हमें ज्ञात है
यह परम सत्य है कि सबका अंतिम ध्येय और मंज़िल वही है - जहाँ मैं जा रहा हूँ बाकी सब व्यर्थ है, हर कोई अपने लिये नही बल्कि अपने पीछे आने वाली पीढ़ी के लिये कष्ट करके वह सब निर्मित कर रहा है जिसका उस पीढ़ी को कभी एहसास भी नही होगा कि कितने दारुण दुख उठाकर मेरे लिये यह सब रचा और बुना गया था
हम जानते है कि कोई भी माध्यम और साधन कभी प्रारब्ध नही हो सकतें एवं यह अपने आप को बार - बार याद दिलाने की जरूरत है ताकि जीवन में हम तटस्थ रहकर निरपेक्ष भाव से अपने जीवन को सम्पूर्णता प्रदान कर सकें
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मिट्टी में ढेरों बीज पड़े थे, सबमें अकड़ थी, अपने आकार - प्रकार, रंग रूप, गुण धर्म से लेकर अनूठेपन तक , हर बीज में पौधे से आसमान छूते पेड़ बनने के स्वप्प्न थे - चमकीले और युग दृष्टा बनने की उमंग, अश्वमेघ यज्ञ से लेकर हर तरह के युद्ध जीत लेने के सुनहरे ख़्वाब उन्हें मिट्टी में सोने ना देते
बरसात हुई, खाद पानी, हवा - रोशनी, धूप सबको समान मिला, बीजों ने आँख खोली, अंगड़ाई ली और सूरज की चमकीली धूप में अपने - अपने तरीके से निकल पड़े मिट्टी को रौंदते हुए, सारे नवांकुर कोमल - कपोल थे, नवनीत की भाँति नर्म, ताज़े और दिलकश, हर किसी की नजरों में स्नेहिल और दैदीप्तमान, असँख्य सम्भावनाओं से भरे हुए, कोई छोटा, कोई बड़े घेरे में, कोई लम्बा - और लम्बा होते ही आसमान छू गया, कुछेक की छाँह घनी थी ऐसी कि मुसाफ़िर सुस्ता लेते और पानी से अपना हलक गीला कर लेते, कुछ लम्बे थे कि पक्षियों को बड़े और लटकते घोंसले बनाने को वायवीय सहारे मिल गये, कुछ सघन झाड़ियों ने चींटी, दीमक, चूहों से लेकर उन सबको आसरा दिया जो अति निकृष्ट थे संसार में
सबके अपने घमंड थे और अपने पैमाने, अपने सुख थे और अफ़साने, सबकी अपनी मजबूत ज़मीन थी और अपनी गहराई - पर अफ़सोस जड़ों का अनुमान किसी को नही था, वो कहाँ से सींचकर खाद - पानी लाती, ये उन पौधों या पेड़ों को नही पता था, झूमती हवा में इठलाते और बल खाते उन सब पर एक अजीब नशा तारी था, पर हरापन भी कहाँ टिकता है - ऋतुओं के चक्र आते जाते और सबके कवच - कुण्डल चढ़ते - उतरते रहते
और फिर एक दिन आँधी चली, बवंडर उठा, तूफान आया, भूकम्प से धरती हिल उठी, सब काँप गया - सबने देखा आहिस्ते - आहिस्ते सब धराशायी हो गये - जिस मिट्टी से जन्मे थे, जिस मिट्टी के खाद पानी और लवणों से बड़े हुए थे - उसी मिट्टी में सब आ गिरें धम्म से, स्वरूप बड़ा था, बीज नही थे कि सब समा जाते पर अंत बुरा था
थोड़े ही समय में सड़ कर विलीन हो गए, काल का गाल इतना विशाल है कि इसमें कितने लोग आये और समां गए, ना बीज याद रहें किसी को - ना उनकी ऊँचाई या सघनता और ना गुण - दोष, कबीर कहते है ना -"मत कर काया का अभिमान", एक दिन हँस को उड़ जाना है - सब यही छोड़कर और पीछे जो यश भी रहेगा - वह तब तक ही है जब तक बीज को जानने और पहचानने वाले है, उसके गुण - दोष का ज़खीरा भी कोई संग - साथ नही ले जा रहा, तो ज़ाहिर है संगत का कोई असर नही पड़ने वाला, गुरू की करनी गुरू जानेगा - चेले की करनी चेला
मिट्टी से सब जन्में है हम सब और मिट्टी में ही मिल जाना है - बस गुनते रहिये और कहिये
निर्भय, निर्गुण, गुण रे गाऊँगा - निर्भय, निर्गुण
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