वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है - यह तो सर्व विदित तथ्य है ही, बस अफसोस यही है कि हमारे छोटे शहर भी दिल्ली बनते जा रहे है - दूरियाँ किलोमीटर में नही, दिलों में बढ़ गई है असल में - वरना तो हम भरे भीड़ ट्रैफिक में मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलोर, दिल्ली या न्यूयॉर्क तक पहुँचकर रिश्तेदारों, मित्रों या व्यवसाय के लिये मिल आते है
[ एक मित्र के लिये ]
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कुछ लोग हमें No Men's Land पर छोड़कर हमेंशा के लिये चले जाते हैं और फिर हमें उबरने में उम्र लग जाती है
यह सदमा नही, नासूर की तरह के घाव होते है जो सदा रिसते रहते हैं
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सबके होठों पर तबस्सुम था मेरे क़त्ल के बाद
जाने क्या सोच के रोता रहा कातिल तन्हा
◆ बेकल उत्साही
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असफलताएँ हमें यह सीखाती है कि सफलताओं की गलाकाट अंधी दौड़ में हमने अपनी कुशलताओं, दक्षताओं और ज़मीर को अभी तक अतिरिक्त रूप से अपवित्र नही किया है और दिखावा करने से बचे हुए हैं - शायद यही नैतिकता और ईमानदारी हमें सफल होने से बचायेगी ; दरअसल, सफलता के मायने और पैमाने आज जिस तरह से हो गए है - उस सन्दर्भ में हमें असफलता और नेकनीयती को बचाकर रखने की चुनौती स्वीकारना होगी और असफ़लता को भी नये मानवीय एवं न्यायोचित मानदण्डों पर तौलना होगा
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बार-बार सुनना चाहिये और गुनना चाहिये
दुर्भाग्य से हम एक देश, एक समाज और एक तंत्र के नाम पर फेल हुए है , 78 वर्षों के बाद भी हम वही है जहाँ थे
संवेदनशील होना बहुत अच्छा है पर धैर्य, ज्ञान, कुछ करने की ललक भी बहुत बड़े मूल्य और सिद्धांत है - अम्बेडकर ने जब भुगता तो संविधान के रूप में उनकी रचनात्मकता सामने आई, गांधी को जब ट्रेन के डिब्बे से उठाकर फेंका गया तो उन्होंने अंग्रेज़ों के सूरज को अस्त किया, सवाल यह है कि आपका विज़न क्या है और आप अंततः क्या पाना चाहते है , मैं ना तो ज्ञानी हूँ और ना ही अल्पज्ञ - मध्यम मार्गी हूँ क्योंकि इसके अलावा करोडों अरबों लोगों की तरह मेरे पास ना कोई विकल्प है और ना ही कोई रास्ता इसलिये जो है जैसा है उसे स्वीकार करो और यह भी जानता हूँ कि मैं या मेरे जैसे लोग कोई क्रांति नही कर सकते, मैं हर तरह के काम करने या निर्णय लेने के पहले अपने लिये और फिर अपनों के प्रति और अंत में दूसरों के लिये कन्सर्न रहता हूँ, बहरहाल
तीन चार दिन से कुछ लिख नही पा रहा और ना ही सोच पा रहा दिमाग़ पर जैसे ताला लग गया है, सुन्न हो गया है
उबरेंगें हम सब लोग धीरे-धीरे पर एक व्यक्ति, एक व्यवस्था और लोकतंत्र के नाम पर हमें सोचना होगा, विचारना होगा और तय भी करना होगा कि किस बात की क्या सीमा हो
हालाँकि स्व राहत साहब भी बहुत एक्सट्रीम पर जाकर बात कर रहें है पर यही एक प्रतीकात्मक लगा तो शेयर कर रहा हूँ
"हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है
हमारे मुँह में तुम्हारी ज़बान थोड़े ही है"
बस अभी इतना ही
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मैं बार-बार नतमस्तक होता हूँ उन सब लोगों के व्यवहार और ईमानदारी पर जो मान्य सामाजिक पैमानों पर तो छोटे लोग थे, मध्यमवर्गीय, पर उन्होंने जो जीवन में रंग दिये वो अनमोल हैं और ये सब सर्वहारा लोग बेहद सहज, कुशल और सामाजिक व्यवहार में दो टूक और निर्लज्जता से बात कहने वाले दक्ष या यूँ कहूँ कि अभिव्यक्ति में उनके जैसी साफ़गोई नही देखी और इसलिये जीवन के किसी मोड़ पर जब भी समस्याओं से घिरा, अपने को अँधेरों की जकड़ में पाया या कभी भ्रमित हुआ शिद्दत से तो इन लोगों से बात की, इनके पास जाकर बैठा, दो घड़ी सत्संग किया और मुझे दुनिया के रहस्य, कुटिलताएँ, षडयन्त्र और यवनिकाओं में छुपे राज मालूम पड़े और इस तरह मैं दुश्चक्रों में फँसने से बचा रहा, उन नैतिक और उच्च किस्म के जलसों और प्रदर्शनों में शो पीस बनने से बच गया - जहाँ इंसानी फितरतों की बोली लगाई जाती है, या औकात के हिसाब से लोगों को खानों में बाँट दिया जाता है
ये वो लोग थे - जो समझ और विचार के नाम पर शून्य थे और मेहनत - मजूरी के नाम पर मिसाल, ये लोग ना होते तो मिस्र और यूनान के गुलामों की तरह कभी का बिक जाता और गूंगा ही मर जाता, दुआ है कि पिछली सदी के पन्द्रह वर्ष पूर्व से शुरू हुआ अस्मिता बचाने और बनाये रखने का कारवाँ और इस सदी के नपे-तुलै ढाई दशक - कुल ये अनमोल चालीस बरस नसीहत देने को सबक बनें, उम्मीद है कि एक दिन कोई तो इन अनुभवों की थाती को सीख - समझकर अपने रथ के पहियों को सुघड़ करते हुए सही दिशा में हाँक ले जायेगा
कल किसी ने बड़ी अच्छी बात कही थी कि हमें वहाँ जाने की पगडण्डी खोजना चाहिये जहाँ ऊर्जा मिलती हो, जाने के बाद लौटने के रास्ते ना हो, कोई यू टर्न ना हो और ये पगडंडियाँ सबके लिये है भी नही पर हम रास्तों पर चलते है, वो खोजते है जहाँ क्षणिक सुख है, उकताहट है और असीमित मोड़ है इसलिये पगडण्डी खोजिये - रास्ते नही और सरल सहज लोग पगडण्डी पर मिलेंगें रास्तों पर भीड़ मिलेगी
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