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Man Ko Chiththi 17 to 20 Dec 2024

लगातार सफ़र करना और सफ़र में रहना भी एक भोग है, एक तरह का योग है और यह सिर्फ़ बिरलों को ही नसीब होता है - सफ़र से सीखने की प्रक्रियाएँ आसान हो जाती है, मनमिली जगहों, खिलंदड़पन, बेलौसपन, बेख़ौफ़ रहना और अपनी मनमर्जी से जीवन शैली विकसित करना - खासकरके यह उन लोगों के लिये बहुत उपयोगी है जो अपने उसूलों और सिद्धांतों पर बग़ैर किसी तानाशाही और अनुशासन के जीवन को निर्मल बहते पानी की तरह धारा के साथ या धारा के विरुद्ध जीना चाहते है
लम्बी यात्राओं के बाद अब भीतर की ओर चलना शुरू किया है इस बीच नए रास्ते, नए दुख दर्द और नये पड़ावों के साथ नए संगी साथी होंगे - देखना है कि एक यात्रा खत्म कर फिर एक यात्रा जो शून्य से आरम्भ हो रही है उसका अंजाम क्या होगा, अनुभवों ने परिपक्व तो नही पर जिज्ञासु जरूर बनाया है और शायद यही अब कुछ सीखा सकें तो शायद उद्धार हो
***
असफलताओं ने ज़िन्दगी को रफ़्तार दी और इस सबकी इतनी आदत पड़ गई - अब कोई बाधा आती है तो लगता है यह सब तो हिस्सा ही है अपने होने का - अस्मिता की लड़ाई, जिजीविषा का संघर्ष, जीने की होड़, अपने सिद्धांतों और उसूलों पर काम करने की आदत से आजीविका के स्थायित्व पर सतत उठने वाले प्रश्न, उपेक्षा के साम्राज्य और लगातार पिछड़ने की इतनी बुरी तरह से आदत हो गई है कि अब लगता है जीवन नर्मदा नदी के किसी चौड़े पाट की तरह है - जिसमें तमाम तरह की चीज़ें बहती रहती है और इस सबके बाद भी नदी अपने उद्दाम वेग से बहते हुए, अपनी खूबसूरती के संग - साथ अपनी मनमिली जगहों से गुजरते हुए एक दिन विशाल सागर में मिल ही जाती है
आएगा वो एक दिन भी
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समय धीरे - धीरे सब तो क्या एक भी घाव नही भरता, हर क्षण नये पुराने मासूम और गम्भीर ज़ख्मों को कुरेदता रहता है, हर बार मन की देहरी पर आकर ठकठकाता है - जिससे स्मृतियाँ किसी रिसाव की तरह से उभरती है, दुख देती है और घाव नासूर होते जाते है जो ताउम्र बने रहते हैं - असल में एक दिन सब कुछ ठीक नही होता, बल्कि सब खत्म हो जाता है और हम समय के आईने में एक चेहरा बनकर झूल जाते हैं
***
शिकायतें है ज़िन्दगी तुझसे कई
पर जो दाँव लगाया वो जीतकर जायेंगे ही
●◆●
हमने बातचीत के रास्ते, सोचने - समझने के अवसर और बेतकल्लुफ़ी खत्म कर दी है और अब इसके भयानक दुष्परिणाम देखने को मिल रहे हैं
मुझे याद नही आ रहा कि किसी दोस्त से बगैर मतलब के पिछ्ले 3 - 4 वर्षों में बात की हो, मुझे याद नही कि किसी दोस्त से रात दो बजे तक गप्प लगाई हो या किसी के घर जाकर चाय का प्याला पीते बैठा हूँ देर तक बिना किसी मक़सद के
सबसे ज़्यादा जीवन में अफ़सोस यह है कि जिस शिक्षा और एनजीओ के क्षेत्र में जीवन के 40 साल गुजार दिए, हजारों बच्चों के जीवन को तथाकथित रूप से सँवारा हो या कुछेक एनजीओ खड़े करके, काम करके हजारों युवाओं को इस क्षेत्र में खड़ा किया, छोटे आंदोलनों से लेकर अधिकार और जागरूकता के वृहद कार्यक्रमों में लोगों को जोड़कर खुद ने अपना सर्वस्व दे दिया - वहाँ आज एक छितरा सा कोई कोना नही - जहाँ जाकर बात की जा सकें
जिस तरह से एनजीओ का और शिक्षा का कार्पोरेटीकरण हुआ है वह वार्षिक आय को बेलेंस शीट में बढ़ाने के लिये प्रतिस्पर्धा के लिये ठीक है, सुंदर पोस्टर, बैनर, रिपोर्ट, ग्राफ़, कान्वा में बनें पीपीटी और किताबों के लिये तो ठीक है - पर समाज, गरीब, वंचित लोगों के लिये , समाजसेवा से जुड़े लोगों के लिये हानिकारक है, कोई माई का लाल छाती ठोककर नही कह सकता कि यह हमने किया - एक प्रोजेक्ट खत्म हुआ नही कि उसके पहले दूसरे की जुगत शुरू, स्कूल से कॉलेज, कॉलेज से विश्व विद्यालय बनाने की अंधी दौड़ और इस सबमें लोग एक नही दस - दस विवि के स्वयंभू कुलाधिपति बन बैठे और धँधा चला रहे हैं - आप बोलो तो जवाब मिलता है - "रायता मत फैलाइये"
हद यह है कि चिकित्सा, दो कौड़ी के हॉकर्स और डेस्क पर आने वाली न्यूज़ की मात्रा सुधारने वाले मीडियाकर्मी, इंजीनियरिंग, तकनोलॉजी, प्रकाशन और प्रबंधन के लोग शिक्षा और समाज सेवा में आ गए और पूरी बेशर्मी और नीचता से तनाव, अवसाद और घटिया माहौल पैदा करके लोगों का शोषण कर और जबरन के स्ट्रेस देकर काम करने ढकोसले कर रहें है - ना फील्ड है और ना ज़मीनी समझ - बस बड़े - बड़े कार्पोरेट हाउसेस के मानिंद दफ्तरों में योजना, क्रियान्वयन, प्रकाशन और बिक्री तक हो जाती है सब जगह सेटिंग और यारी - दोस्ती - सबके सब तगड़े पावर सेंटर बनकर बैठ गये है
इसलिये भी दोनों क्षेत्रों की छबि भी खराब हुई और काम तो हुआ ही नही - बस वार्षिक बैलेंस शीट्स बढ़ती रही, फ़ंडर्स की सँख्या बढ़ते हुए टर्न ओव्हर करोड़ो में हो गए - अंग्रेज़ी का मुलम्मा चढ़ाकर AI , Chat GPT और अंग्रेजीदाँ लोगों के सहारे शिक्षा - समाज कार्य का जितना सत्यानाश होना था हो गया
बस इस सबमें कोई बुरी तरह पिसा है तो वो है छोटे कार्यकर्ता या शिक्षक जो चार हज़ार से पचास - साठ हज़ार तक कमाने लगे थे और अवसाद, तनाव में घुटकर मर गये फिर वो प्रदीप हो या नूतन हो, कोई और या कोई और - और - और - पर अफ़सोस किसे है और कितना है
मेरा दृढ़ मानना है कि पीछे छूटे हुए लोग वंदनीय होते है - जो सब कुछ भूलकर पुनः - पुनः आजीविका के मुख्य मार्ग पर लौट आते है और जीवन को जीने का मजबूती से प्रयास करते है
जीवन अफ़सोसों से नही उम्मीद और मुस्कुराहटों से चलता है - आईये एक मुस्कान उनके नाम कर दें जो अपनी बात कहने के लिये तरस गये, अपनी खोखली मुस्कुराहट को ढोते रहें यह सोचकर कि कोई तो उनका दर्द समझेगा और साझा करने को तैयार होगा पर अब वे सब काल के विशाल गाल में समां गये और लौटकर कभी नही आयेंगे

कुछ लोग हमें No Men's Land पर छोड़कर हमेंशा के लिये चले जाते हैं और फिर हमें उबरने में उम्र लग जाती है
यह सदमा नही, नासूर की तरह के घाव होते है जो सदा रिसते रहते हैं

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