"कि मैंने रतन टाटा को देखा है...."
2006-07 में मैं भोपाल में द हंगर प्रोजेक्ट में काम करता था, शिक्षा में काम करके आया था - स्कूल में शिक्षक, आर्मी स्कूल में प्राचार्य, एकलव्य में नवाचार आदि का लम्बा अनुभव था, भोपाल वाला काम जम नही रहा था - तो शिक्षा का काम खोज रहा था
भाई हिमांशु का दफ़्तर वही था, लोकल में घूमते हुए हम वहाँ पहुँचे, हिमांशु मुझे छोड़कर अपने काम पर निकल गया, बॉम्बे हाउस में हम 3, 4 लोग बैठे थे, पैनल में इंटरव्यू लेने वाली पदमा सारँगपाणी ट्रैफिक में कही फँस गई थी
अचानक हलचल हुई और रतन टाटा जी ने प्रवेश किया , एक - दो लोगों ने उनका अभिवादन किया और दफ्तर के बाकी लोग अपना काम करते रहें, हमें देखकर रूके और बोले - "आप लोग...? हमने कहाँ इंटरव्यू है..... "ओह, फिर वही हमारे साथ बैठ गये... कहाँ से, क्या करते हो, किन समुदायों के साथ काम करते है ? मेरा नाम सुनकर बोले - "अरे , तुम्ही तर मराठी, मप्र ला कशे काय, इकडे काही त्रास होता कां ?
जब तक पदमा आई नही - वे करीब दस मिनिट तक बात करते रहें कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, बच्चे खुले में ज्यादा सीखते है, उन्हें नदी - पहाड़, पेड़ - पत्ती जड़ दिखाओ, आसमान दिखाओ, खूब सारी किताबें दे दो कहानी की, मजे करने दो, दो - दूना चार तो वे सीख ही लेंगे, फिर आख़िर में हँसते हुए बोले कि "यहाँ ये लोग नौकरी में ना रखें तो घबराना मत, बल्कि ज़्यादा अच्छा है, बाहर जाकर अपनी पसंद का काम करना, अपने हिसाब से जिंदगी जीना, नचिकेता को भी ढूंढ़ते हुए भगवान मिल गए थे, सबसे हाथ मिलाकर मुस्कुराते हुए चले गए
हमने देखा कि किसी कर्मचारी से कोई अपेक्षा नही कि गुड मॉर्निंग कहें, या सम्मान में खड़ा हो या मुस्कुराएँ..
मेरा चयन हो गया था, पर बाद में भाई की तबियत ठीक ना होने के कारण मैं खूँटी नही गया - बहुत दूर था, और मेरी ज़रूरत घर पर ज़्यादा थी, पर जीवन भर यह गर्व रहेगा कि मैंने रतन टाटा को देखा, अपने दाहिने हाथ के पंजे पर उनके हाथ मिलाते हुए हाथ की अमिट छाप है, आँखों मे उनकी चमक और मुस्कुराहट बसी हुई है, इतने सहज इंसान, वृहद दृष्टिकोण, ऊँचे मूल्य, सबके लिये आदर भाव और कुछ करने की तड़फ गज़ब की थी, वे आदर्श रहे और रहेंगें
बाद में कई फ़ंडर और लोगों, सरकार, संस्थाओं के साथ काम किया और पाया कि चूहों को जिस तरह चिन्दी मिल जाने पर उछलते रहते है और कूदते रहते है - अहम और दर्प से भर जाते है, संग - साथ काम करने वालों को कीड़े - मकौड़े और गुलाम समझने लगते है, या भरी बैठकों में माँ - बहन की गाली देने लगते है या मानसिक दबाव में रखतें है - उन्हें रतन टाटा जैसे शख्स से विनम्रता और जीवन मूल्य सीखना चाहिये, देने का माद्दा और कुछ करने की तड़फ, अपनी राह बनाने के लिये किसी की बलि देने के बजाय खुद समर्पित भाव से काम करने की ललक ही आदमी को अमर और अक्षुण्ण बनाती है
उनके बनाये हज़ारों संस्थान जैसे कैंसर अस्पताल, टाटा सामाजिक संस्थान, एटॉमिक एनर्जी , फंडामेंटल रिसर्च संस्थान और लाखों एनजीओ को आर्थिक सहयोग देकर जो बदलाव का ढाँचा खड़ा किया था और दूर दराज़ के इलाकों में शिक्षा को लेकर अलख जगाया, फेलोशिप देकर करोड़ों बच्चों, युवाओं को जीवन में दिशा दी - वह योगदान कभी भुलाया नही जा सकता, मैंने बाद में टाटा ट्रस्ट के लिए कई काम स्वतंत्र सलाहकार के रूप में किये चाहे - कल्याणी संस्था - कट्ठीवाड़ा, अलीराजपुर हो, दूसरा दशक राजस्थान हो, या असम, या गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश या मप्र के कई जगहों पर चल रहे प्रोजेक्ट्स में - ट्रस्ट से कभी दबाव या अत्यधिक काम का तनाव नही रहा - जो आजकल फैशन और पैशन बन गया है
कल रात से उनका चेहरा याद आ रहा है और वह कहावत भी जिसका एक हिस्सा है - "... पारसी इंटेलक्ट एन्ड स्पिरिट", जिसका उन्होंने मरने तक पालन किया, हम सबको एक दिन यहॉं से जाना है, पर जीवन हो तो रतन टाटा जैसा और मौत हो तो रतन टाटा जैसी कि पीछे यश और कीर्ति की पताकाएँ लहराती रहें कि जीवन और देह विलीन हो जाये पर काम, दिशाएँ और रास्ते सबके लिए जगमगाते रहें - ताकि हर कोई समता, न्याय और भ्रातृत्व जैसे मूल्यों से परिपूर्ण होकर गर्व से सीना चौड़ाकर चलता रहें
एक महान देशवासी और बदलाव के साथ सामाजिक युग लाने वाले असली पुरोधा को प्रणाम और श्रद्धांजलि
ओम शांति
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यात्राएँ जहाँ आपको नया कुछ सीखाती है वही आपको थकाकर चूर कर देती है, और जब जीवन मुकम्मल यात्रा बन जाये, हर रोज़ एक नया शहर, नया स्वाद, नया पानी, नई आबोहवा और नया तकिया बिस्तर देने लगे तो समझ लीजिये कि आपका अपने पर वश नही रहा
यूँ तो यात्राएँ सीखने - सिखाने का एक ज़रिया है पर यात्रा के सन्ताप, परेशानियाँ, दुष्परिणाम और अंत में शरीर पर पड़ने वाले घाव है - वे दुखदायी है और इसके साथ जो मन - मस्तिष्क पर लम्बे समय ठहरने वाले महीन घाव है - वे अनुभवों को इकठ्ठा कर तो लेते है पर ताउम्र जो नासूर बनकर भीतर ही भीतर मवाद बहता है वह अकल्पनीय होता है, यह नासूर कभी मानव व्यवहार का है, कभी उपेक्षा का या अपमान का
एक लम्बे समय से - बल्कि चार दशकों से जीवन यात्रा में संलग्न हूँ और सीखने, जानने - समझने की चाह अभी मिटी नही है, साथ ही लगता है अभी भी नया कुछ देखता हूँ तो किसी बाल सुलभ मन की तरह चहक उठता हूँ, नदी - पहाड़, जंगल, समुद्र देखकर किलकारी भरने लगता हूँ, कोई नई चीज कौतुक से देखता हूँ तो हाथ में लेकर पलटने लगता हूँ, लगता है इसे समेट लूँ घर ले जाकर अपने बेशकीमती ख़ज़ाने में रख लूँ और विरासत के पत्थरों में एक हीरा और जड़ दूँ, नए लोगों से मिलता हूँ तो सहज हो जाता हूँ और दिल खोलकर मिलता हूँ- उन्हें जानने और उनकी यात्रा को , अनुभवों की थाती को समझने लग जाता हूँ और अपनी स्मृतियों में किसी सन्दर्भ के साथ दर्ज कर लेता हूँ कि भूलूँ नही
उन जगहों पर जहाँ काम करता था - वे यदा - कदा फोटो भेजकर पूछ लेते है कि फलानी बात कब, कहाँ, क्या हुई थी, या तस्वीर भेजकर नाम की तस्दीक कर लेते है कि ये कौन था या थी - क्योंकि उन्हें मालूम है कि मेरी स्मृति अभी भी ठोस है - व्यक्ति, घटना, सन्दर्भ और प्रसंग भूलता नही मैं कभी - अपने मान - अपमान और सुख - दुख भी नही भूलता और यह सब कहने का आशय यह है कि यात्राओं ने मुझे परिपक्व किया है, मजबूत बनाया है, ताकत दी है और लड़ने, रोने - बिसूरने का माद्दा दिया है, मान - अपमान, उपेक्षा और अपेक्षा के साथ सम्मान और तिरस्कार के बीच की महीन रेखा को समझने की विरल दृष्टि दी है , अपने ज़मीर को ज़िंदा रखने की हिम्मत दी है, अभी जून में एक बड़े साहित्यिक सम्मेलन में दशकों पुराने एक मित्र ने कुछ ऐसा कह दिया मज़ाक में कि मैं सह नही पाया, उस दिन से उससे बात नही की और सब बिसारकर उसे जीवन से निकाल दिया
मुझे वो हर बात याद है - कब मैंने बीज बोए थे, कब पानी दिया था, खाद पानी का जुगाड़ किया था, मैं भले ही यदि कभी सक्षम नही रहा किसी बात के लिए तो अपने संजाल और सन्दर्भों का दोहन करके भरपूर मदद की - हर तरह से, बल्कि सीमाओं के पार जाकर ही, पर जब लगा कि इस छोटे से अनैतिक काम या एक झूठ से किसी यात्रा को अंततः मंजिल मिल सकती है तो धक्का लगाने में परहेज या गुरेज़ नही करना चाहिये - अनगिनत कहानियाँ है, अनगिनत किस्से और असँख्य अनुभव है , पर आज एक थके हुए बोझिल मन से सब याद करके , तंज सुनते और सहते याद कर रहा हूँ तो लगता है जीवन को ऐसा ही होना था - हारा, थका, बेचैन और अकुलाहटों से भरा हुआ
"जगी सर्वसुखी असा कोण आहे, विचारी मना तूच शोधूनी पाही" - जब रामदास स्वामी कहते है तो लगता है वे ढाँढस बंधा रहें हैं घबराए हुए मन को, "यह भी गुजर जायेगा " - बीरबल की उक्ति याद आती है तो हिम्मत बंधती है, और अपने निर्मल एवं कच्चे मन मे रिसते घावों की पोटली लिए फिर निकल पड़ता हूँ गुनगुने से सफ़र में कि हमें उन राहों पर चलना है - जहाँ गिरना और सम्हलना है, थोड़ा और परिपक्व होना होगा, सामने से आते हुए बवंडर को खुली आँखों से देखने, सहने, समझने और जवाब देने की क्षमता ही परिपक्वता का पैमाना है , और फिर कभी लगता है एक तीर तो अपनी कमान में रहेगा , एक फड़फड़ाता पँख , एक दिशा, एक पगडण्डी और एक मौका तो हमेंशा सबके लिए रहता ही है
बजाय ज्ञान लेने - देने और दूसरों के अनुभवों से सीखने के आत्म केंद्रित होकर बाकी बचें सफ़र और कर्तव्यों का निर्वाह करना होगा - यह समझते और जानते हुए कि मेरा जन्म किसी की अपेक्षाओं को पूर्ण करने के लिये नही हुआ है और ना ही कोई और मेरी अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए सारी जद्दोजहद करेगा, हम सब अलग - अलग अस्तित्व है, पहचान है और किसी से हमारा कोई लेन देन नही है, जीवन में अघोषित युद्ध थमने के लिये सबसे पहले अपने भीतर की यात्रा को आरम्भ करना होता है बजाय हवा, पानी, सड़क और मौसम को दोष देने के, जब तक यह भीतरी शुरूवात नही होगी - हम किसी नतीजे पर नही पहुँचेंगे, ना ही किसी मंजिल या निष्कर्ष पर
जीवन में हर उठते कदम का प्रतिफ़ल और अनुतोष मिलेगा - यह कल्पना ही मूर्खता है और यदि हम इस बनियाबुद्धि में उलझे है तो हम बीमार है, सम्पूर्णता या Gestalt Theory एक कपोल कल्पना है, और हमें इस मूर्खता से निजात पाना ही होगा, यह जानते हुए कि सबकी समझ, पूर्णता और सच सापेक्ष होते है, किसी अन्य के सच के बरक्स हम अपना सच गलत नही मान सकते, ना ही मानना चाहिए, भले ही वह कितना भी चमकीला हो या लाभप्रद हो - इस तरह की भ्रांतियों से मुक्ति पाना होगी ताकि अपनी अंतिम यात्रा को हम हल्का और उद्देश्यपरक बना सकें
भीतर की ओर चलना बाहरी यात्रा का विराम है और मन - मस्तिष्क में उठ रहे विवादों और अंतरआनुषंगिक युद्धों पर भी स्थाई विराम
जब आपको कोई भी यात्रा या सहयात्री बोझिल लगने लगे तो अलग हटकर अपनी पगडंडी बना लो और याद कर को रॉबर्ट फ्रॉस्ट को जिसकी कविता है
"The Road not Taken"
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I shall be telling this with a sigh
Somewhere ages and ages hence:
Two roads diverged in a wood, and I
I took the one less traveled by,
And that has made all the difference.
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अक्टूबर सच में अपने निर्णयों, रास्तों और दिशाओं पर पुनर्विचार ठंडे दिल - दिमाग़ से करने का माह है, लम्बे मानसून के बाद हरे पत्तों के बीच नए खिलते फूलों को सूँघकर - देखकर मुस्कुराने का माह है, हरसिंगार को ज़मीन से बीनकर सहेजने का माह है, रात रानी और सप्तपर्णी के ऊँचे पेड़ों के बीच से आधी रात को चांदनी के आलोक में गुजरते हुए और लम्बी साँस भरकर इनकी सुवास को भीतर लेते हुए यह सोचना है कि क्षणिक पल जैसे जीवन में क्या हम भी कही छाप छोड़ सकेंगे
रात को शरद ऋतु के चाँद का इंतज़ार करते हुए अपने को घटता हुआ देख सकेंगे कि जब जीवन मे अमावस आये तो हम तटस्थ रहकर यह सोच पाएं कि ये काली रात भी गुज़र जाएगी और कितना ही घटाटोप अँधेरा हो सूरज निकलेगा, संसार के दानावल में खड़े होकर ऊँचे पहाड़, जमती नदियाँ और घने जंगलों के संजाल में कभी अपने - आपको झकझोरेंगे और पूछेंगे कि बर्फ, पानी और भाप के बीच का संतुलन और प्रक्रिया ही जीवन का असली प्रारब्ध है
अक्टूबर यादों का मौसम है, जब किसी नन्ही डगाल पर एक नर्म हरी पत्ती खिलती है, एक कली अपने सौंदर्य को पूर्णता देते हुए फूल बनती है तो प्रकृति में चहूँओर प्रेम का चक्र पूरा होता है और इसमें डूब जाने को जी करता है, तितलियों की भिनभिन और मधुमख्खियों का शहद बटोरना कितना सहज होता है - ना अपेक्षा ना शोर और काम पूरा मुस्तैदी से कब हो जाता है मालूम नही पड़ता
अक्टूबर तुम यादों की वो झिलमिल परछाई हो - जिसके साये में चलकर ज़िन्दगी में दूब उगती है
अक्टूबर तुम बने रहना शाश्वत
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