जुगन जुगन के हम जोगी ||
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सामाजिक नागरिक संस्थाओं के काम का एक समय होता है - जब वे फील्ड में काम करती है, लोगों से जुड़कर, समस्याओं को समझकर और बड़े काम तथा पैरवी करके वे जनसुमदाय के लिये वृहद काम करती है, इनके काम से नीतियों और क्रियान्वयन पर बड़ा असर होता है इसमें कोई शक नही, पर एक समय बाद संस्थाओं में सिर्फ़ और सिर्फ़ जमे और बने रहने की होड़ लग जाती है, हर तरह के काम के लिये ये फंड जुगाड़ने में लग जाते है - शौचालय बनाना हो एड्स रोकने के लिये कंडोम प्रमोशन करना हो और फिर एक भयानक किस्म का दुष्चक्र आरम्भ होता है कि यह मेरा काम नही, यह उसका काम है, यह मुद्दा हमारे फ्रेम वर्क में नही, यह करने से एफसीआरए पर असर पड़ेगा और इस व्यक्ति या कार्यकर्ता होने से काम बिगड़ेंगे आदि आदि, एक दिन सारे कॉमरेड लोग किसी बिरला या जमनालाल बजाज परिसर में करोड़ो का दफ़्तर बनाकर विलीन हो जाते है
इसलिये मुझे दो बात समझ आती है कि एक - संस्थाओं को एक अवधि के बाद फेज़ आउट हो जाना चाहिये, अपना सर्वस्व समुदाय या दूसरी संस्थाओं को देकर उस जगह या फील्ड से अलग हो जाना चाहिये - ताकि ठहरे हुए तालाब के पानी को सड़ने के बजाय वहाँ नया कुछ किया जा सकें, यह नवाचार हो सकता है या कुछ नूतन या पुराने ही काम को नये उत्साह या उमंग के साथ निभाया जा सके ; दूसरा - इस क्षेत्र में काम करने वालों को तीन से पाँच साल के बाद नए मुद्दों, नई जगह या नए तरह के क्षेत्र को एक्सप्लोर करना चाहिये - ताकि वे नया सीख सकें, और अवसाद या तनाव में आने से पहले जीवन का रूख मोड़ सकें - क्योंकि एक समय बाद लोग वेतन, भत्तों, राजनीति, निंदा - पुराण, जलन, कुंठा आदि में लग जाते है - अरे जब यही सब करना था तो कही शिक्षक, पटवारी, आशा, एएनएम, या बाबू ही बन जाते - बैंक, पोस्ट ऑफिस में एक बंधी बंधाई तनख्वाह मिलती रहती और जीवन मजे में चलता रहता, यदि बहुत ही ज्ञानी थे तो ब्यूरोक्रेट बन जाते और राजा नौकरी करते और बड़े बदलाव करते
इस मामले में अपनी मित्र साधना खोचे का प्रशंसक हूँ जिन्होंने अपने जीवन साथी हेरविग के साथ दुनिया घूमी, मप्र के आदिवासी जिले आलीराजपुर के कट्ठीवाड़ा ब्लॉक के ग्राम कवछा में काम शुरू किया सन 1998 में और पहले दिन से यह तय किया था कि ठीक 20 साल बाद सब छोड़ देंगे और एक लम्बा संघर्ष करके अलीराजपुर जैसे आदिवासी और पिछड़े इलाके में बड़े ढाँचें और व्यवस्था कायम की, समुदाय को जागृत किया और अंत में सब छोड़कर, लाखों - करोड़ों के आधार भुत ढाँचे स्थानीय पंचायतों, समुदाय और स्थानीय नई बनी संस्थाओं को सौंपकर वह जिला ही छोड़ दिया - बगैर मोह-माया के और अब दोनों दुनिया घूमकर अपने अनुभवों से जरूरतमंद लोगों को मदद कर रहें है, दिल्ली के बहाई धर्म के लोटस टेम्पल में अपनी सेवाएँ दे रहें हैं, इन दिनों केन्या में है और वहाँ लोगों की मदद कर रहें है
इधर किसी वृहद काम के तहत मप्र और आसपास के राज्य घूम रहा हूँ, कई बड़ी संस्थाओं में जा रहा हूँ - वो दीनदयाल शोध संस्थान चित्रकूट हो या राजमाता विजयाराजे सिंधिया समिति द्वारा संचालित कृषि विज्ञान केंद्र या स्व महेंद्र सिंह कालूखेड़ा शिक्षा समिति या भोपाल के कई बड़े - बड़े एनजीओ या यूनिसेफ जैसे ऐयाशी के अड्डे - जहाँ तीन चार दशकों से पाँव पसारे निकम्मे लोग बैठे है, सिर्फ तीस - करोड़ चालीस करोड़ का टर्न ओवर गिनने वाले संस्थान या अजीम प्रेम फाउंडेशन जहाँ कुछ ना करने वाले अंगदनुमा जमकर बैठे है और काम करने वाले तेजी से आकर तेजी से चले जा रहें हैं
सामाजिक नागरिक संस्थाओं के काम को सौ सौ सलाम है पर उन्हें जो ज़मीन पर है लोगों से जुड़े है, चौबीस घण्टों प्रोजेक्ट खत्म होने या नौकरी जाने की तलवार लटके होने के बावजूद भी संघर्षरत है, वे ही "असल में संस्थाओं और समाज के असेट्स है" नाकि ज्ञानीजन या महज़ बेफालतू के सवाल करने वाले या कागजों पर चिड़िया बैठाने वाले
बहरहाल, जुगन जुगन के हम जोगी
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सच में कभी इस सब पर बात करना चाहिये कि राम, कृष्ण, गुरूनानक, महावीर, बुद्ध, पैगम्बर साहब, जीसस या अन्य सभी अवतार जब इस संसार से अपनी देह छोड़कर जा रहे थे तो उनकी मनुष्य मात्र होने की दशा में क्या मनोस्थिति थी, क्या वे और करना चाहते थे, क्या और रह गया था, क्या वे अपने जीवन उद्देश्यों को पूर्ण कर पाएं
बहुत ही अदभुत सवालों और विचारों के साथ यह कविता छोड़ती है जो अनुत्तरित है और रहेंगे
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देवास शहर एक ज़माने में संगीत, संस्कृति और साहित्य का बड़ा अड्डा था, बाद में हम लोगों ने इसे थोड़ा और आगे बढ़ाया और एक बैनर के तले कुछ बड़े आयोजन कर एक पीढ़ी तैयार की, बाद में दो - तीन बाहरी लोगों ने यहाँ आकर धन्धे खोलें, दुकाने सजाई और "फूट डालो और राज करो" - जैसी घटिया नीति अपनाते हुए यहॉं के पूरे माहौल का सत्यानाश कर दिया, प्रलेस से लेकर जलेस के झंडाबरदारों ने भी यहॉं आकर विष घोला और उजबक किस्म के लोगों को झंडे पकड़ा दिए - जिन्हें डंडा पकड़ने की अक्ल नही थी वे यहाँ साहित्य के पुरोधा बन गये, जो लोग अपने जीवन में ईमानदार नही रहें, जो कुछ नही कर पाएं, वे यहाँ के ठेकेदार बन गए और आयोजनों के ठेके लेकर सुपारी लेने लगें
कुल मिलाकर चार - पाँच लोग है और सबके पास बड़े बड़े बेनर है, हर रविवार को आयोजन होते है, बड़े शहरों में जिन्हें पड़ोसी नही जानते वे यहाँ आकर नोबल पुरस्कार विजेता के समान वक्तव्य देते है, बाहर से ज्ञानीजन रायता फैलाने और आ जाते है और कुल मिलाकर आठ - दस श्रोता, फुरस्ती रिटायर्ड बूढ़े, नकचढ़ी औरतें और बेसिर पैर की बकवास करने वाले फर्जी लोग कार्यक्रमों में बंट जाते है, हॉकर से लेकर पत्तलकार और तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक गैंग हर जगह मुस्तैद रहती है
कहना यह है कि इन दो - तीन बाहरी लोगों ने साम, दाम, दण्ड, भेद और प्यार - मुहब्बत के जाले लटकाकर एक शहर के साहित्यिक परिवेश का खून कर दिया और अब खुद तो कुछ लिखते - पढ़ते नही, हर माह रायता फैलाने वालों का मजमा इकठ्ठा कर आपस में प्रतियोगितानुमा करके नाम, यश और कीर्ति पताकाओं का श्रेय लेने की होड़ में लगे रहतें है
बाहर से आने वाले जिनको घर - समुदाय तो छोड़िए, मुहल्ले के कुत्ते नही पूछते - वो यहां आकर आठ - दस बंधुआ लोगों के समक्ष अपना कूड़ा - कचरा यारबाशी में पेल जाते है - समझ नही आता आख़िर हर रविवार या शनिवार को क्या जरुरत है इन सरस्वती पुत्रों और पुत्रियों को ज्ञान देने की, लम्बा सफ़र कर कही आने - जाने की ; रोजी रोटी की बात हो तो ठीक पर ये आत्म मुग्धता, ये यश - कीर्ति और दूसरे शहर में किसी के भी सामने कुछ भी बोलने और ज्ञान का तड़का लगा रायता फैलाने की आख़िर आवश्यकता क्या है, साहित्य संस्कृति और इन संगठित गिरोहों ने क्या भला किया समाज का, यदि सच में इससे कुछ होता तो आज समाज का ये बदहाल ना होता, पर कोई विरेचन नही करता, कोई विश्लेषण नही करता, बस - "तू मुझे बुला - मैं तुझे बुलाऊँ"
देवास का जो बढ़िया माहौल था, वह आज इतना घटिया और वीभत्स हो चुका है कि अब ना कही जाता हूँ, ना आता हूँ और ना साहित्य के मुद्दों पर बात करने की इच्छा भी होती है, एक शहर को बर्बाद करने का पाप इन दो - तीन लोगों पर सदैव रहेगा और इतिहास में इस बात को दर्ज किया जाएगा कि कैसे कुछ बाहरी संगठनकर्ता, बड़े कवियों, कहानीकारों और नालायकों ने साहित्य की हत्या कर शहर के परिवेश को दूषित किया, कभी किसी पोस्ट में सबूत, नाम सहित पर्दाफाश भी करूँगा कि कैसे कैसे लोग है जो मूल मनुष्य ही नही साहित्यकार होना तो दूर की कौड़ी है
शुक्र है इन दिखावटी कार्यक्रमों में जाना हो नही पाता - अपनी व्यस्तता के कारण और लगातार बाहर रहने के कारण
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मुम्बई में एक व्यक्ति की हत्या देश की सबसे बड़ी समस्या बन गई लगता है, मीडिया कल से चिन्दी लेकर कोहराम मचा रहा है जैसे इनके किसी सगे वाले की हत्या हो गई हो और सारी दुनिया उसी मृतक पर सिमट आई हो
कमाल है
मोदी जी कुछ करो, इज़राईल, यूक्रेन, बेरूत, ईरान, अमेरिका के युद्ध, और अब यह हत्या - आपकी टीआरपी का क्या होगा, बहुत दिनों से कुछ ज़ोरदार हो नही रहा कि आप ही दिखें मीडिया पर, बारम्बार और बहस के बीच बनें रहें, कुछ नही तो घूम आओ या बुला लो किसी भैया-भाभी को, हमारे मीम्स वाले भी फुर्सत में है - कमबख्त मसाला नही मिल रहा है इनको
सत्यानाश हो इन सबका और मीडिया का भी
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"कैसी है आप, अगर समय हो तो घर आ जाइये थोड़ी देर के लिए" - हिंदी की बड़ी और विदुषी कवयित्री थी, ओज और प्रखर वाणी, मंच से लेकर तमाम तरह की हिंदी की पत्रिकाओं में दबदबा था दीदी का, प्रकाशक घास ही नही काजू बादाम खिलाते थे साहित्य की चरनोई वाली ज़मीन पर, पूरा गैंग था दीदी का और रोज़ किसी ना किसी को ट्रोल करना कविताकर्म से बड़ा पेशा, युवा छर्रे बड़ी हसरत से ताकते और दिदिया राखी बाँधकर अलग हो जाती सबको
"कुछ खास नही, असल में आज शस्त्र पूजा का रिवाज़ है, मैंने सोचा आपको ही बुलाकर साक्षात पूजा कर लूँ आपकी और आपकी जुबाँ की - तो मेरा जीवन धन्य हो जायेगा" - मैंने कहा और फोन रख दिया, इसके पहले कि दीदी को कुछ समझ आये फोन काटने में ही भलाई थी
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#NitinGadkari के टोल की लंबी लाइन और टोल टैक्स के कारण एक दिन आधा हिंदुस्तान मर जायेगा
इस शातिर और महाभ्रष्ट मंत्री ने ना मात्र सीमेंट कम्पनियों से खूब जमकर कमाया, पूरे देश को कांक्रीट से पाट दिया, जिस कारण ज़मीन में पानी जाना बंद हुआ और तो और जगह जगह टोल बनाकर आम लोगों को लूटना शुरू कर दिया है अब टैक्स के नाम पर
बड़बोला और ईमानदारी का नमूना पारदर्शिता के ढोंग पर सबसे बेकार मंत्री है, संघ का वरदहस्त है ना - तो लूट रहा है और टोल पर भीड़ को कंट्रोल करने का कोई मैकेनिज्म नही है, गुंडे - मवालियों की फौज बैठा रखी है हर टोल नाके पर, भारत भर के रोड़ पर गढ्डों के अलावा गौ माताओं का साम्राज्य है - जिनका कोई इलाज नही इस धूर्त के पास, प्रशासन भी असहाय है गौ - गोबर को लेकर
शर्मनाक है, आज़ाद भारत का सबसे तेज और जनता का विरोधी मंत्री है यह
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