जीवन विरोधाभास, द्वंद और सच्चाई की डोरी पर चलने का नाम है, हमें अक्सर उन स्थितियों, अवसरों, जगहों और लोगों के बीच रहना पड़ता है - जो इस डोरी को दोनों सिरों पर मजबूती से थामे बैठे है और साँस रोककर हमारे फिसलने और गिरने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहें हैं कि हम गिरें और वे तालियाँ बजाते हुए पुट्ठे की धूल झाड़ कर हमारी लाश के पास आकर च - च - च करते रहें
मज़ेदार यह है कि अपरिग्रह, अस्तेय, अहिंसा का लबादा ओढ़कर जीवन चलाने वाले सबसे ज़्यादा भ्रष्ट, हिंसक और घातक है, तमाम सत्यशोधक बाशिन्दे झूठ के मैले आँचल तले अपने सुहाने स्वप्न बुनकर भरपूर ज़िन्दगी जीने के उपक्रम में लगे हैं, जो लोग घर - परिवार - शासन - प्रशासन और समाज की संस्थाओं या समुदायों में बुरी तरह से असफ़ल होकर नज़ीर बन गए - वे नेतृत्व की दिशा और डोर थामे बैठे है और नेतृत्व सीखाने के विश्वविद्यालय बन रहे है
जो लोग ईमानदार, संस्कृति मूलक समाज और उन्नत भविष्य के सपने सँजोये समाज के अगुआ बनने को उद्धत थे, वे सबसे ज़्यादा बेईमान, भ्रष्ट, परम्परा और पाखण्ड फ़ैलाने की अग्रिम पँक्ति में शामिल है, जो समग्रता, एकाग्रता, भिन्नता और समष्टिवाद के पुरोधा थे - आज बेहद संकीर्ण सोच के संग जीवन मार्ग पर सबको हाँकने का काम कर भीड़ का हिस्सा बना रहें हैं
जो लोग ज़मीन तोड़ने का काम करने और नया सृजन करने को कटिबद्ध और वैचारिक तौर पर प्रतिबद्ध बन प्रचारित कर रहें थे, वे कायर, षडयंत्रकारी और कुटिल निकलें और इन्होंने ही धर्म, जाति, बोली, भाषा, संस्कृति, राजनैतिक बोलबाले और विनाश के रथ पर सवार होकर - उन्ही सब बातों को प्रश्रय दिया - जो आदिम युग में भी नाजायज़ थी
रुपया, यश, कीर्ति, नाम, हवस और आत्मप्रचार की भूख ने आज हम सबको क्या से क्या बना दिया है, चारित्रिक रूप से और नैतिक रूप से हम एक इंसानी पैरहम में भी नही फिट बैठ रहें और यह गिरना इतना गिर गया है कि अब हम सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने दुष्कृत्यों को जस्टिफाई कर रहें हैं और अपने हर किये धरे को न्यायसंगत ठहरा रहें हैं, ज़मीर बेचकर रोटी का सौदा कर बैठे हैं
सिर्फ़ यही पूछता हूँ अपने-आप से कि मैं भी अभी इस राह का सिरमौर तो नही, पर इस कसी हुई डोरी पर नृत्य मुद्रा में हूँ - झूल रहा हूँ और समझ भी रहा हूँ - स्व संस्तुति यह है कि मैं मुक्ति तलाश कर रहा हूँ - पर जीवन, साँसारिक जरूरतें और समय के पहिये से दूर हटकर थोड़ा अतिरिक्त समय मिलें तो कुछ सही ठिकाना हाथ लगें, वरना तो अब मुश्किल है - एक स्वार्थी जाल में फँसकर आप सिर्फ़ उसके हिस्से हो सकते है - स्वतन्त्र और सृजनात्मक नही
दो बात याद आती है पूर्ववर्ती लोगों की - "हम क्या थे, क्या हो गए है और क्या होंगे", और दूसरी - "यह भी गुज़र जायेगा, जैसे सुख स्थाई नही - वैसे दुख भी नही"
आमीन
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