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Khari Khari, Man Ko Chiththi, Drisht Kavi and other Posts from 16 to 21 Oct 2024

 " इस घट अंतर अनहद गरजै "

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अभी एक मित्र का फोन आया था अजमेर से तो बात करते - करते हम विचारने लगे कि वो माहौल ही खत्म हो गया - सरलता, सहजता और अपनत्व वरना तो काम में कितना लड़ते थे और फिर साथ मिलकर काम करते थे, आज तो डर ये है कि यदि आपने किसी को कुछ मुस्कुराकर भी कह दिया तो आपकी नौकरी जाएगी या आप को फायर कर दिया जायेगा
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संस्थाओं को टिककर काम करना नही है सरकारी हो गई है - अब ना सरोकार है , ना जुड़ाव, बस ठेके पर काम लेने है, ले देकर फंड जुगाड़ना है फिर थोड़ा बहुत दिखावे पुरता काम करके, सुंदर सी रिपोर्ट बनाकर आख़िरी किश्त वसूलना है, कलेक्टर को दस प्रतिशत देकर फाइनल पेमेंट लेना और अगले जिले में निकल जाना है - अगला जिला या मुहल्ला तलाशना है - जो है उससे सन्तुष्टि भी नही "और - और एवं और" की भूख ने सब खत्म कर दिया है - मानवता, कार्य संस्कृति, परस्पर सहयोग, मूल्य, वैचारिक भिन्नता की जगह,सम्मान, और अपनी बात कहने की आज़ादी भी यदि आप कुछ सुझाव दें तो सुनना पड़ता है कि "आप क्यों रायता फ़ैला रहें है, हम सब ओवर बरड़ण्ड है"
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देशभर में फेलोशिप का मकड़जाल बिछ गया है - गांधी फेलो से लेकर अशोका, लीड, कैवल्य, डिसोन और अलानी - फलानी फेलोशिप और यह सिर्फ़ सामाजिक क्षेत्र की बात नही, बल्कि कला, संस्कृति, पत्रकारिता, कानून, जलवायु परिवर्तन, से लेकर धर्म और दंगों तक करने - कराने की बात है - एक नए किस्म के खुदा बाज़ार में है जो 15 - 25 से लेकर 50 - 60 लोगों तक को दस हजार से लेकर एक - डेढ़ लाख हर माह बाँटकर अपना एजेंडा चलवाना चाहते है - फिर वो शिक्षा - स्वास्थ्य का हो या एसडीजी गोल्स का और इसके मकड़जाल में जिस तरह से युवा, अधेड़ और ख्यात लोग ट्रेप में फंस रहें है उसका कोई जवाब किसी के पास नही है, इन भेरूओं के लिए एक नए तरह के चापलूस लोग पैदा हो गए है - जिनके घर अब मेंटरशिप से चल रहे है, सत्तर साल के बूढ़े लेखक, पत्रकार, लोहिया से लेकर हेडगेवार वादी नए छर्रों को प्रताड़ित कर ज्ञान के भंडार बन गये है और मलाई चांप रहें है, वे लोग जिनको मोबाइल चलाना नही आता या वो लोग जो दिनभर अपनी ही स्तुति में लगे रहते है कि मेरा लेख, मेरी फिल्म, मेरी बीबी, मेरे बच्चे - देखो, ओढो और सिर्फ़ मुझे ही पढ़ों करते नही थकते वे सिरमौर बन रहे हैं
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हरदा, खंडवा या होशंगाबाद जैसे छोटे से जिलों में इस समय लगभग सौ युवा समूह ऐसे ही फेलोशिप लेकर बदलाव का काम करने डंडे और झंडे निकले थे और अब अंत में फंड जुगाड़ने पर आ गए और संस्था खोलकर बैठ गए, अधिकांश ने अजीम प्रेम से लेकर PHFI या अन्य जगहों से दस लाख प्रतिवर्ष से लेकर चालीस लाख तक फंड ले लिया और ये लोग चलती - फिरती ज्ञान की दुकानें बन गए है - दिनभर इंस्टाग्राम पर रील्स, शिमला, मसूरी, देहरादून, भुवनेश्वर, बैंगलोर, कोलकाता, जम्मू, पचमढ़ी या लखनऊ, दिल्ली, मुम्बई के फोटो, हँसते - मुस्कुराते झूमते चेहरे देखकर लगता है कि वो बातें, बदलाव, आदिवासी सरोकार, महिला उत्थान कहाँ गया - कभी दूर दराज़ के गाँव के फोटो नही देखें मैंने, हर आदमी को हर प्रकार की फेलोशिप लेनी है और उसके लिए आवेदन भरने वाले, अंग्रेजी सुधारकर कॉन्सेप्ट ठीक करने वालों का बाज़ार सजा है, रुपये दीजिये और फॉर्म ही नही सब कुछ करवा लीजिये - दुनिया के साले निकारागुआ की हो या किसी गोबर गणेशसेठ की हो - फेलोशिप छूटना नही चाहिये - दो में से डेढ़ जीबी का डाटा यही खोजने में रोज जाया हो रहा है फिर गाना बजाना करना हो, मुजरा करके बदलाव या किसी भड़भूँजे के माफ़िक चने फोड़ना हो, लिंकडलन पर हिंदी ना जानने वाले भी AI की मदद की अंग्रेजी में लिखकर आत्मश्लाघा में प्रचार की दुकान बन गए है, दिक्कत नही है मुझे पर क्यों ये अंग्रेजी का चस्का, क्यों दिनभर विजिबिलिटी का रोग
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कान्वा से लेकर बाकी एप्स और आईटी का इस्तेमाल कर बेहद खूबसूरत और Eye Catching रिपोर्ट्स बन रही है, PPTs बन रहे है कि बस काम।बन जाये एक बार, सुंदर तस्वीरें, दो मिनिट के स्क्रिप्टेड वीडियो, ढेर कंटेंट और प्रचुर मात्रा में फ्री में बांटी जाने वाली सामग्री है, देशभर में होने वाली गोष्ठियों में बैग, पेड, सुंदर किताबें, पेन, झोले, और ना जाने क्या - क्या सामान बंट रहा है - जिसे शायद ही कोई पढ़ता या पलटता होगा पर हर कोई समेटने में लगा है और बाँटने वाले यूँ बांट रहें है - जैसे भंडारे में कद्दू की सब्जी और गर्मागर्म छनी हुई पूरियाँ, क्या अंत है कोई इसका, इसके समानांतर ही होटल से लेकर पूरी हॉस्पिटैलिटी इंड्रस्ट्री को इस सबसे भयानक लाभ हो रहा है
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सेवा का क्षेत्र अब बीस तीस करोड़ के टर्न ओवर पर आकर टिक गया है, जिन युवाओं को 2001 - 2005 में सामाजिक काम का ट्रेनिंग दिया, क ख ग घ सीखाया और पढ़ाया, वो आज फ़ोन नही उठाते और वे कहाँ है तो पता चलता है लन्दन में, अमेरिका में, पटना एयरपोर्ट पर, दिल्ली मंत्रालय में, वर्ल्ड सोशल फोरम की मीटिंग में या जिला कलेक्टर को ज्ञान बांट रहें है , एक शब्द होता है Attitude - इसका पता नही था, पर अब यह महसूस कर रहा हूँ कि यह क्या बला है - जब ये ज्ञानीजन कहते है "आपको बात करना हो तो पहले एक मैसेज डाल दिया करें, और मिलना हो तो हमारे एचआर से अपॉइंटमेंट ले लें - वरना दोनों का समय बर्बाद होगा" - ये कहाँ आ गये है हम
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अभी दिल्ली में बड़ा तमाशा देखा CSR हेड्स और सरकार के सचिव स्तर के अधिकारी, बड़े एनजीओ और individuals, हैरान हूँ कि जिन्हें समाज, शहर, गाँव या दलित आदिवासी की बेसिक समझ नही वे लोग फंड पर फन फैलाएँ बैठे है और अपने निज उलजुलूल विचार थोप कर बदलाव की कपोल कल्पनाएं कर बरगला रहें है, जिन्होंने गाँव नही देखें, जो हावर्ड, येल, ऑक्सफ़ोर्ड या बैंगलोर, कोलकाता आईआईएम से पढ़कर आये है वे समाज सेवा में सोशल स्टॉक की बात कर रहें है - नान्दी फाउंडेशन में सिविल इंजीनियर्स मिड डे मिल बंटवा रहे है फोर्टिफाइड रागी का घोल पिला रहे है, सत्य साईं ट्रस्ट में विटामिन का घोल पिलाने वाले रूड़की या खड़गपुर आईआईटी के दक्ष कम्प्यूटर इंजीनियर्स है, और इन पर दबाव यह है कि सौ करोड़ कही से भी लाना है, सरकार के कैबिनेट मंत्री अनुराग ठाकुर ने बड़े साफ़ लफ्जों में कहा कि यह एनजीओ का बिजिनेस 1000 करोड़ रुपये का है अर्ध वार्षिक - इसलिये सरकार इसे यूँ ही नही छोड़ सकती - जाहिर है ऐसे उच्च शिक्षित और अति महत्वकांक्षी प्रो गवर्नमेंट लोग हेड रहेंगे ही और अपनी उँगली पर वृंदावन नचाएंगे ही या रासलीला होगी ही
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ये युवा और प्रौढ़ होती पीढ़ी बेहद शातिर और कुटील है, ये सिर्फ़ और सिर्फ़ स्वार्थ जानती और समझती है, रीढ़विहीन ये लोग किसी भी हद तक जाकर कुछ भी करने को तैयार है और जहाँ तक बदलाव और समझ की बात है, समाज - समुदाय को समझने की बात है वह सिरे से नदारद है, अफ़सोस यह है कि CSR, सरकार , विदेशी फ़ंडर्स, यूएन संस्थाओं और व्यक्तिगत डोनर्स ने सबको शिकंजे में ले रखा है और बेहद नकचढ़े लोग, कूपढ और अति महत्वकांक्षी लोग, निज जीवन में सताए और हताश लोग ऐसी जगहों पर बैठ गए है - जिनके ना मूल्य है, ना कोई विज़न - तो कैसे किसी बड़े सामाजिक मिशन को दिशा देंगे या मार्ग प्रशस्त करेंगे - उनके पास रुपया है और हाथ में युवा, प्रौढ़ और संस्थाओं का जाल - बस टेढ़े आँगन में राधाएँ नाच रही है और हम जानते है कि महत्वकांक्षी व्यक्ति आगे बढ़ने के लिये किसी भी तरह की सीढ़ी का इस्तेमाल कर सकता है, सबने सब बेच दिया है और अब गाँव के बजाय महानगर ही नही, विदेशों की ओर नज़र है इनकी
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1996 - 97 में डूंगरपुर, बांसवाड़ा, गलियाकोट, सागवाड़ा के कुछ युवा आदिवासी साथियों के साथ स्व अनिल बोरदिया जी के लोक जुम्बिश में काम शुरू किया था, बाद में उनमें से कुछ ने शिक्षा में काम करने के लिये संस्था बना ली थी, एक साथी से बात हुई तो उसने बताया कि "इस समय रुपया बहुत है दादा, लगभग पचास करोड़ का टर्न ओवर है, बिटिया की शादी उदयपुर के राजमहल पैलेस से की थी, अब आप आ जाओ कभी - यही काम करो", बहुत खुश हूँ कि देश बदल रहा है, जिन लोगों को जातीय अस्मिता और पहचान के कारण आगे लाया गया था मदद करके - वे आज धन्ना सेठ है और बदलाव के नए परिचायक - तबले और हारमोनियम की धुन पर हिमाचल के मंडी से उत्थान हो ही रहा है
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ओम शांति
[ 1 - यह एक भिन्न विषय और मुद्दे की पोस्ट है, हर कोई यहाँ ज्ञान ना दें और रायता ना फैलायें - खासकरके वो जिसे समझ नहीँ, वरना कमेंट तो डिलीट होगा ही, बल्कि ब्लॉक लिस्ट में फेंक दिये जायेंगे
2 - यह पढ़कर आप और कुछ लोग मुझे निगेटिव कह सकते है, पर हक़ीक़त से मुँह नही मोड़ा जा सकता , एक प्रचंड उद्दंडता भरी आशा से सतर्कता भरी निराशा बेहतर है - यह मेरा मानना है ]
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हिंदी के साहित्य का इतना पतन हो गया है कि अब पुस्तक बेचने, अपनी घटिया रचनाएँ पढ़वाने और अपनी धाक जमाये रखने के लिये स्कैंडल के बिना काम नही चलता
वरिष्ठ जन पहले सुझाव देते थे कि इससे दूर रहो और अब चैट जीपीटी के माफ़िक ज्ञान का सड़ा गला पिटारा लेकर चौबीसों घण्टे बैठे रहते है
अजय तिवारी जी ने विष्णु जी के निराला सम्मान को लेकर पोस्ट किया, फिर जोशना की कविता, फिर दो कवयित्रियों का घड़ी चोरी विवाद, फिर दिनेश कुशवाह और शशिभूषण का विवाद, चोरी चकारी,चरित्र हनन, आरोप, आक्षेप, और सुपारी लेने देने का काम तक होने लगा है, पुरस्कार मिलने के बाद जो परिदृश्य उभरता है वह एक बार देखिये ज़रा - मतलब अब आत्म मुग्धता, किताबें बेचने और अपने को तीस मार ख़ाँ समझने और स्थापित करने के लिये विवाद और स्कैण्डल ही एक मात्र सहारा है
और कार्पोरेट्स में बैठे तथाकथित महान पत्तलकार उर्फ चम्पादक ये सारे खेल करके महान बनने के अवसर तलाश रहें है, पुस्तक मेले की दस्तक सामने है प्रकाशक लेखक के ये धूर्त षडयन्त्र आरम्भ हो गए है, रिटायर्ड खब्ती लोग रुपये की हवस में प्रकाशन का धन्धा खोलकर साहित्यकार बने बैठे है - जिंदगी भर प्रूफ़ रीडर की नौकरी करने वाले, नीचता से रुपया लेकर उपकृत करने वाले, घोस्ट लेखन करवाने वाले इस सबमे माहिर है और अब भांड और चारण बनकर साहित्य के अड्डे चलाने निकले है - ये भला करेंगे हिंदी का
एक सामान्य पाठक होने के नाते लगता है कि हम नए लोगों, पाठकों, शोधार्थियों और नवोदित लेखकों के सामने क्या आदर्श पेश कर रहें है, छोटे छोटे कस्बों में आयोजन के नाम पर गलाकाट प्रतिस्पर्धा है दूर दूर तक यात्राएँ निकाली जा रही है गोया कि हिंदी का जनाज़ा हो और यहां - वहाँ के छूटभैये उठकर कहानी, कविता पढ़ने घूम रहे है
कम से कम इस सबसे तो साहित्य का भला नही होगा, मैं तो अब सामान्य पाठक कहलाने की हिम्मत नही रखता लेखक तो दूर की बात है पर कोई अपने चार - पाँच साल के बच्चे की कहानियाँ अपने ही ब्लॉग पर अभी से लगाकर उसे स्थापित करने में लग जाये तो इससे बड़ा धूर्त और कौन होगा
शर्म मगर उनको आती नही है
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"संगत" के सभी कार्यक्रमों को हिंदी साहित्य के अँधेरे कालखण्ड के प्रज्जवलमान भभकते दीये के रूप में याद रखा जायेगा, बजबजाते कड़वे तेल का बदबू वाला दीया - बोले तो काले अक्षरों में चीन्हा जाएगा और इसके हिंदवी के पीछे धूर्त सम्पादक और पूरी शोध की नालायक टीम को याद रखा जाएगा - जिसने इस कल्पना को मूर्त रूप दिया और शोध के नाम पर घटिया खुदाई करके सिर्फ़ और सिर्फ़ नकारात्मक बातों को सामने लाया, उकसाया लोगों को और बाद में लड़ाइयाँ करवाई, अंजुम शर्मा तो सिर्फ़ चेहरा है असली शैतान पीछे है कोई और जो कुंठित और साहित्य का भ्रष्ट है इस पूरी कहानी के पीछे
फिर कहता हूँ यह सही समय है संगत बन्द करने का या हम ही सुनना बन्द कर दें
Replied to Ajay Tiwari
ना मैं हिंदी का प्रोफ़ेसर हूँ ना मैंने विधिवत हिंदी पढ़ी है
मैं कह रहा हूँ कि संगत के लगभग 100 एपिसोड होने को है अब बन्द कर देना चाहिये
वा सोना का जारिये - जा सो टूटे कान
ख़ैर, हिंदी पढ़ने - लिखने का शौक है, मेरी मातृभाषा तो मराठी है और बाकी अंग्रेजी बस हिंदी को देखता समझता हूँ
और संगत के बाद हिंदी के विवादों की एक पूरी श्रृंखला है यदि आपने ध्यान दिया हो तो और इसमें किसी का दोष नही है यह खेल शोध टीम और प्रोडक्शन वाले लोगों का होता है एंकर के पास तो स्क्रिप्ट है या प्रत्युतपन्नमति से उभरे सवाल
आज जो दिखेगा वही बिकेगा का जमाना के और इसके साथ अर्थ जुड़ा है नाम यश कीर्ति तो बाद में है - जितने हिट्स उतना रुपया
इससे हिंदी का क्या भला हुआ है या अपने रोल मॉडल्स को टूटते देखा है
सोशल मीडिया पर वरिष्ठजनों को आने का हक है, लिखने का भी पर बाद के जोखिम से सबको वाकिफ़ होना चाहिये
आपका विष्णु जी को सम्बोधित पोस्ट, फिर जोशना की कविता, फिर अणुशक्ति और पूनम का घड़ी चोरी का विवाद, आलोक धन्वा जी के चटखारे दार पोस्ट्स और अब दिनेश कुशवाह और शशिभूषण का सार्वजनिक विवाद
क्या हिंदी का साहित्य इतना नीचे गिर गया है कि स्कैण्डल और अति होने पर ही लोग चर्चा करें और किताबों की ओर मुड़े ?
आशा है आप इन सब मुद्दों को भी सन्दर्भ में लेंगे, और इस निजी संस्था - जो मूल में कारपोरेट है , के कविता पोस्टर देख लीजिये कभी किस स्तर के है और क्या ही छप रहा है, स्तन गूदा गुदा से लेकर तमाम तरह के अश्लील उद्धरणों से भरे पड़े है जिसे पत्रकार मित्र उघाड़ते रहते है
इससे हिंदी के नवोदित लेखकों, छात्रों पर क्या प्रभाव जा रहा है इस पर भी बात होना चाहिये कभी
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"हम जिन्हें प्यार करते हैं - उन्हें कभी माफ नही करते"
निर्मल वर्मा - "अंतिम अरण्य"- में जब उपरोक्त बात कहते हैं तो समझ नही आया था, दस बार यह उपन्यास पढ़ा फिर लगा कि "वो जब आता है ( ज्ञान ) तो बहुत देर हो चुकी होती है" - ( इसी उपन्यास से )
जीवन, यात्राएँ, काम, नौकरी, सूचना तंत्र, व्यवहार, संघर्ष, साहित्य, संस्कृति, नकली और वायवीय रिश्तों ने इतना सीखा दिया कि अब भरोसा अपने आप पर ही नही रहा, तो बाकी किसी पर क्या रखना, फिर से याद आता है अपना ही लिखा जो ज़ेहन में हमेशा रहना ही चाहिये
".......बुद्ध कहते हैं कि दया दुख का मूल कारण है और मेरा जीवनानुभव कहता है अपेक्षा और इसका पूरक उपेक्षा, ही जीवन को अँधियारे में ले जाते है और हमारे समूल नाश का कारण बनते हैं........"
एक दिन हम सुबह उठकर भरोसे, विश्वास और रिश्तों के बीज बोते है - यह सोचकर कि जीवन के घुप्प वीरानों में ये वटवृक्ष बनकर हमें शीतलता प्रदान करेंगें, अपने उदास दिनों में उजास से भर देंगें, पर जब ये वटवृक्ष के बजाय किसी अमर बेल की भाँति आपके अस्तित्व पर ग्रहण की तरह छा जाए और आपको ही चूसने लगें तो फिर लगता है कि हमारा होना, या खाद पानी देकर किसी विषाक्त बीज को सींचना व्यर्थ था, बहरहाल
जीवन की हर सुबह एक उम्मीद है, हर दोपहर एक प्रयास, शाम एक इंतज़ार और लम्बी घनी काली रात एक सबक - बस इन सबसे आगे बढ़कर जीना है जब तक डोर बंधी है और जब टूटेगी तो क्या ही होगा, कुछ नया तो होने वाला नहीँ है - जीवन का सफ़र मौत तक ही है और कोई मरता है तो लगता है क्या यह संसार में पहली बार तो नही हुआ जो शोक मनाया जायें
और आगे यह भी कहना चाहता हूँ कि इस सबके बाद भी यदि आप अभी रूठ रहें है, खुश हो रहे, दुख से व्याकुल हो जाते है, किसी अपने से मिलने के किये व्यग्र हो इंतज़ार करते है, मासूम बच्चों से चहक उठते हैं तो शायद कोई संभावना अभी भी कही शेष है
कबीर कहते है - "जिन जोड़ी तिन तोड़ी" और वो अमर गीत - "उतना ही उपकार समझ कोई जितना साथ निभा दें"
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"अरे दिल्ली में कैसे आप", इंडिया हैबिटेट सेंटर पर लाइवा दिख गया
"असल में तीन - चार दिन से यही था, अब कल सुबह की फ्लाइट से वापसी है घर वापसी " - हँसा फिर बोला
"तो रुकिए, सोमवार साथ ही चलते है" - मैंने कहा, साढ़े नौ दर्जन कविताएँ तो पेलकर जाईये जब आ ही गये है कविता के काले कर्म में
"नही असल में कल कुछ फंक्शन है घर, तो जाना जरूरी है" - लाइवा ने गम्भीरता से जवाब दिया
"अरे चिंता ना करो, कल करवो की तरह मुहल्ले में बहुत ठुल्ले है और असँख्य फुरसतिया लोग, कोई भी आकर चाँद के समय चलनी में से मुंह दिखा जायेगा आपकी पौने उनहत्तर साला बेस्ट हॉफ को, आप तो यही रहिये, दर्जनों कवयित्रियों की संगत कल मिलेगी तो आपके चमकते चाँद पर आदिवासी तेल से ज़्यादा जल्दी बाल उग आयेंगें" - मैं हँस पड़ा
और अब लाइवा हाँफते हुए मेरे पीछे दौड़ रहा है अपने नब्बे किलो के थुलथुले पेट, अपनी गंजी खोपड़ी के साथ और एक हाथ में फ़टी स्लीपर और दूसरे में पाजामे का नाड़ा पकड़कर
लोदी रोड़ क्रॉस कर लिया है हमने, निजामुद्दीन की ओर बढ़ रहे है, और देख रहा हूँ कि वह अब ठेले पर खड़े होकर शिकंजी पी रहा है
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कितनी ही बातें है जो कभी शिकायत नही बनती - ना तारीफ़, बस मन की बातें मन में रह जाती है और पूरा जीवन यूँ गुज़र जाता है जैसे कोई दर्दनाक फ़िल्म - जिसे हम मूक दर्शक बनकर देखते हुए अंत में खाली हाथ लौट आते है - उस जगह जहाँ सन्नाटों में भी विरानीयत बसी रहती है और आवाज़ें सिर्फ कर्कश शोर

मौन रहना, कुछ ना सुनना भी एक तपस्या है और यह योग, ध्यान, या विपश्यना आदि से बढ़कर है - जिसे हर माह में कम से कम तीन दिन कर लें - तो बहुत सारे अवसादों, तनावों और कुंठाओं से यह मुक्त कर सकता है या किसी भी लिखें - पढ़ें, बात, मुद्दे या घटना पर प्रतिक्रिया ना देकर भी यह अस्थाई सन्यास धारण किया जा सकता है
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