शायद ही ऐसा कोई दिन या रात जाती हो जब रेख़्ता के कार्यक्रम में उस्ताद को ना सुना, आओगे जब तुम से लेकर वो सारी बंदिशें जो संगीत के मान्य पैमाने छोड़कर या तोड़कर झूमते हुए स्थाई प्रभाव छोड़ती हो
इधर पक्का गाना गाने वालों में राशिद ख़ाँ साहब का मिज़ाज़, अंदाज़ और गाने का सलीका एकदम जुदा था इसलिये वो दिल के करीब थे , आज उनके जाने की खबर से हैरान हूँ, मुझसे एक बरस छोटे और इस कम उम्र में यूँ चले जाना बहुत अखर गया पर कैंसर की पीड़ा से शरीर जूझ रहा था, शरीर को तकलीफ़ न हो और चुपचाप सब कुछ खत्म हो जाये इससे बेहतर कुछ हो नही सकता - बीमारियां शरीर को जब सड़ाने लगती है तो इंसान को शर्म आने लगती है और वह मुक्ति की कामना करने लगता है
दुख तो सबको होता है, पर एक आदमी अपने जीवन काल में अपनी विलक्षणता से इतना कुछ कर जाता है कि उसे फिर कुछ करने की ज़रूरत नही पड़ती - यश कीर्ति और अमरता भी एक तरह से भ्रम ही है पर उस्ताद आप तो इस सबके पार हो गए थे, देखिये ना आपके मुरीद कैसे तड़फ गये है
सुकून से रहो जहाँ भी रहो, आपके गीत और आपकी बन्दिशें अँगना में फूल खिलाती रहेंगी - सदियां बीत जायेंगी पर आपको भूलना असम्भव होगा
सादर नमन
***
साहित्य में श्रीराम मंदिर को लेकर अलग ही टशन चल रहा है, न शिष्टता है और ना ही तमीज़, न लेखन की समझ और ना तात्कालिक राजनीति का भान, ना वर्तमान ना भविष्य और ना टुच्चापन ना ओछापन
अपनी समझ और कुंठित विचारधाराओं से कविगण अखाड़े में है और दोनो ओर के भक्त पिले पड़े है
मज़ेदार है यह सब देखना और समझना
और यह सिर्फ़ लाइक्स, कमेंट्स के लिये जैसे सब स्क्रिप्टेड और बेहद शातिरी से तैयार, नाटक के मंजे हुए अभ्यास से आया हुआ परिपक्व अभिनय और जंग जीत लेने के पक्के इरादे
जियो प्यारों, जियो और ऐश करो - हिंदी में तुम जैसे ही सफल है इसलिये अपुन अब साला दौड़ में इज़ नई है
न वो कविता लिखूँगा न वो पोस्ट यहाँ चैंपुंगा, दोनो ही अतिवाद है और आज के इस समय में ना ऐसी ढुलमूल कविता का मतलब है - ना घटिया शब्दों में लिखी आलोचना का
महेश्वर ने कभी लिखा था - "आदमी को निर्णायक होना चाहिये"
आत्म मुग्धता और लाइक्स कमेंट्स की हवस हमें कहाँ ले आई है इससे शर्मनाक कुछ नही हो सकता
Comments