"एकता कपूर के सीरियल बनने से हिंदी को रोको"
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संगत पर मंडलोई का इंटरव्यू सबसे खराब है, बल्कि इसके पहले रोने - धोने के नाटकीय अंदाज़ वाले कुशल और बाज़ार में अपना निकृष्ट माल बेचने वाले फर्जी साहित्यकारों के इंटरव्यू से संगत में विसंगति आने लगी, हिंदी के बामण, बनियों , लालाओं और ठाकुरों के खराब एपिसोड्स देखने बाद मुझे लगता है कि संगत को बन्द करने का सही समय है वरना तो भारत में इतने कवि, कहानीकार है कि 2525 तक यह चले तो कवि - कहानीकार खत्म नही होंगे और कुल मिलाकर गरीबी हटाओ कार्यक्रम बनकर रह जायेगा
वैसे अब संगत बन्द कर देना ही उचित है, सिवाय बेकार लोग और बेकार की बहस के कुछ है भी नही - 30, 40 लोगों की नौकरी बचाने के लिए और कुछ गाय पट्टी के बहस और मशविरों से रोजी रोटी चलाने वाले कुछ धंधेबाजों के लिए सबका क्यों भेजा खराब हो, यह भी हो कि ज्ञानी जन, इससे जुड़े तानाशाह और नौकरशाह, इसमें आने के इच्छुक और अपनी बारी का इंतज़ार करती आत्ममुग्ध बिरादरी मुझे यह कहें कि "आप देखना बन्द कर दें" पर यह लेटेक्स रबर की तरह खिंचाव संसाधनों की बर्बादी तो है ना और फिर क्लाइमेट चेंज में कितना बड़ा नुकसान है यह, लगातार हर हफ़्ते घिसते जाना"
इस मीडिया समूह को धँधा चलाना और एक छोटे से समूह की नौकरी बचाकर रखना हो तो अलग बात, बाकी तो सवाल - जवाब भी स्टीरियोटाइप हो गए है और आने वाले फर्जी लेखकगण भी अपने रचना कर्म पर कम, रोना - धोना और बकवास ज़्यादा करते है, यहाँ तक कि अपने माँ - बाप को बीच में लाकर तार्किक होने के बजाय इमोशनल ड्रामा करते है - जिसका कोई अर्थ नही है जैसे कुछ कवि माँ - बाप के फोटो, वीडियो चैंपकर सहानुभूति की रोटियाँ चाहते है जनता से
मंडलोई तो अब कविता भी स्लोगन टाइप ही लिख रहे है, बाकी अन्य वरिष्ठ और बूढ़े कवियों की तरह सेटिंग से टिके है, पुरस्कार में श्रद्धा से जो भी चवन्नी - अठन्नी मिल जाये, कोई कुछ नही तो मरे - खपों का श्राद्ध करके ही दक्षिणा दे दें - तो ये लेने चले जायेंगे, शुक्र है उनको प्रेम करती स्त्री का चेहरा बुद्ध टाइप नही दिख रहा है जैसे एक स्लोगन मास्टर को हर जगह दिखता है या अपने वजन आदि के बारे में चिंता नही या सदानीरा पर अश्लील कविताओं की तर्ज पर नही लिख रहे - लोक लुभावन गुदा - गूदा , चुम्बन और संभोग जैसे विषयों पर, वह भी किसी घटिया, कामुक और अपराध बोधों से ग्रस्त किसी फर्जी कुंठित सम्पादक की मांग पर
पूरी गम्भीरता से कह रहा कि संगत में अब विसंगति ज़्यादा है और सास भी कभी बहु थी, या हम लोग जैसे खींच रहा है मामला
और इन 50 - 55 एपिसोड्स से हिंदी का कुछ भला हुआ हो - यह भी कोई शोध या आँकड़े नही है , सिवाय क्षणिक उत्तेजना पैदा करने के क्या किया संगत ने, बल्कि इससे विवि के जड़ प्राध्यापकों या केवि से लेकर सरकारी स्कूल्स के प्राइमरी के मास्टरों में अजीब सा दम्भ उभरा है और छिछोरापन बढ़ा है - समय रहते बन्द कर दें तो ही बेहतर है - "वरना तो शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है"
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"भाईसाहब एक प्रश्न था कि अशोक जी, आलोक धन्वा, नरेश सक्सेना, अरूण कमल, या किसी विवि के प्राध्यापक के कविता कर्म पर आलेख लिखकर अग्निबाण में छपावाऊँ तो स्थाई नौकरी मिलेगी क्या - या अखिलेश, ज्ञानरंजन टाईप कहानीकार या त्रिपाठी, शर्मा, शुक्ल टाईप आलोचक की दृष्टि और कर्म पर" - युवा लाईवा था उधर, देश का कुंठित और असफल मास्टर जो हर जगह सेटिंग से कविता पढ़ने चला जाता है दुनिया भर के आयोजक जिसके भैया, दादा या यार है और संसार की सारी स्त्रियाँ दीदी और बहनें, हर थर्ड क्लास पत्रिका के सम्पादक का यह दल्ला है और हर बड़े प्रकाशक का एजेंट
"अबै, सुबू - सुबू क्या हुआ, तूने तीन विवि से पढ़ाई की - एम ए, एमफिल और पीएचडी अभी सबमिट की ही होगी, देश के तीन राज्यों में तीन माड़साब की चाटुकारी की और अब चौथे राज्य के एक फर्जी विवि में फर्जी कवि - जो बकर उस्ताद ज़्यादा प्राध्यापक कम है , की चापलूसी कर एडहॉक पढ़ा रहा है - फिर भी समझ नही बनी क्या ", मैंने कहा और यह भी कि आ जा घर चाय पोहा खाने आज रविवार है
"तीनों गुरूजी हरामखोर निकले, एक भी सेटिंग नही करवा पाया, फिर मैंने दो मरे - खपे बड़े कवियों पर काम कर खूब लिखा, पर बात नही बनी, अब रज़ा में कुछ कमाई हो जाती है, किसी दिन अशोक जी के आगे रोना है जमकर, क्या है कि ब्याह की उम्र निकल गई, मेरी चंपा किसी और की हो गई और उसके हो गए तीन बच्चे और मैं अभी तक ..." ससुरा रोने लगा
"तो बस अशोक जी पर ही लिख, रूपया और सोर्स दोनो है वो, अगर सही तरीके से इमोशनल अत्याचार कर लिया तो कही भी फिट करवा देंगे" और बस आ जा पोहा बना है - ताज़ा मटर डालकर
आज लाईवा पर प्यार आ रहा था, सोचिये तीन माड़साब का जोर भी मोदी राज में नौकरी नही दिलवा पा रहा बापड़े को , एक घसियारे के नीचे एडहॉकिज्म करना पड़ रहा है, चंपा अलग माँ बन गई किसी और के बच्चों की - भगवान भला करें
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डॉक्टर राजेश राजौरा जी
अपर मुख्य सचिव, धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व विभाग
मप्र शासन
◆ भोंपू और धार्मिक स्थलों पर आवाज़ प्रतिबंधित करने का आदेश भी आपका ही था ना, थोड़े दिन पहले तो अब क्या हुआ
◆ कलेक्टर्स धोती पहनकर रखें जनेऊ पहने और मुंडन भी करवा लें - यह क्यों नही लिखा
◆ और सिर्फ चुने हुए जिलों में ही रामायण पाठ और सुंदरकांड क्यों , पूरे 55 जिलों में करवाएं ना
◆ तुम वही कलेक्टर हो ना जिसने एक ज़माने में धार में ज्ञानदूत योजना लागू करवाकर क्रांति की अलख जगाई थी और यूनेस्को का पुरस्कार लिया था, इंदौर में कलेक्टर रहते अजब गजब के काम किये थे - ये चापलूसी कब से सीख गए
◆ ये सारे खर्च किस मद में दर्ज होंगे इसका ज़िक्र इस आदेश में क्यों नही है
◆ अयोध्या जाने वाले यात्रियों को फल फूल आदि ही नही उपहार भी दो पर यह तो बताओ कि एक कलेक्टर कहाँ से करेगा, मतलब वह किसी का टेंटुआ दबाएगा और बदले में उसे हथियार लायसेंस, उद्योग लायसेंस या अतिक्रमण या अवैध निर्माण की अनुमति देनी होगी क्योंकि वह जेब से तो इतना खर्च वहन नही करेगा
◆ सँविधान के प्रति आस्था है तुम्हारी या सत्ता के प्रति - यह एक बार अपने आप से पूछ लो, सँविधान पढ़ा , मूल्य और मूलाधिकार पढ़े समझे या गुने या सिर्फ रट्टा मारकर पास हो गए और भूल गए
◆ देश के ब्यूरोक्रेट्स में कुछ शर्म लाज है या सब बेच खाई है, मैं हमेंशा कहता हूँ ना इस सबकी जड़ "लबासना, मसूरी" है - जो गिरगिट पैदा करती है और निहायत ही गंवार लोग प्रशासन में आते है, ये 12 फेल नही, ये लोग 5 वीं पास भी नही है इससे तो किसी मंदिर - मस्ज़िद में हार फूल की या लोबान की दुकान खोल लेते तो देश का कुछ भला होता
और अंत में प्रार्थना -
◆ मुझे आदेश के किसी भी हिस्से से दिक्कत नही है , बस इतना कहना है कि राम हमारे है जनमानस के है, मन्दिर का लोकार्पण जनउत्सव की तरह होना चाहिये - सरकारों का हर जन उत्सव और लोक त्योहारों पर कब्जा हो जाना दुखद ही नही घातक है क्योंकि आने वाले समय में ये लोग हमारी हर परम्परा, संस्कृति और आस्था पर कब्जा कर लेंगे और हमारे पास अपना कुछ नही रहेगा
जय जय सियाराम
धर्म की जय हो
अधर्म का नाश हो
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हिंदी के सारे बूढ़े कवि पेंशन भी जीम रहें है और पुरस्कार भी बटोर रहें है, ये हरामखोर लोग कुछ लिख-पढ़ नही रहे, बस ₹ 11/- के नगद पुरस्कार के लिये कही भी जा सकते है - लखनऊ, दिल्ली, पटना, बनारस, मेरठ, अलीगढ़, इंदौर, मुम्बई, भोपाल या जहन्नुम में भी
मैं कह रहा हूँ न - जलेस, प्रलेस या अलेस के कुछ घटिया और जुगाडू मास्टरों और नालायक सेटिंगबाजों की यह संगठित लूट का गिरोह है जो अपने अपने लोगों को इसके - उसके और मरे - खपे लोगों के श्राद्ध करके पुरस्कारों के धँधा चला रहे है और अपनी नौकरियाँ सुरक्षित कर रहें है - पढ़ाना लिखाना है नही, सालभर यहाँ वहाँ ज्ञान पेलने चले जाते है और रोज़ घटिया राजनीति में लगे रहतें है
और जो कवि बेशर्मी से पुरस्कार ले रहे है, जो चूक गए है और कुछ नही कर रहें इनका आज लेखन या प्रतिरोध में योगदान क्या है यह भी समझने की ज़रूरत है, इनकम टैक्स दे रहें क्या इन पुरस्कारों का या कोई हिसाब या किसी गरीब छात्र की फीस भरी क्या - निकम्मी औलादों के लिये संग्रहण कर ये अब सिर्फ बटोरना चाहते है , 70 - 80 की उम्र पार कर गए है पेंशन मिल रही है दो रोटी खाना नही है फिर यह सेटिंगबाजी, रुपयों की हाय - हाय क्यों, अडाणी बनना है क्या अब
दोनो तरफ धूर्त, दुष्ट और निहायत ही हलकट लोग है - जो पुरस्कार दे रहें और जो पुरस्कार बेशर्मी से ले रहे और इनमें से अधिकांश वो लोग है जो पुरस्कार वापसी गैंग के सरगना थे, पर किताबों पर बड़े गर्व से उन पुरस्कारों के ज़िक्र करते है जो इन्होंने स्वीकार किये थे, इनका बस चलें तो ये लखनऊ, भोपाल, पटना या मेरठ क्या अयोध्या चले जाएं और दस रूपये में राम मंदिर में होम हवन और अभिषेक करवाना शुरू कर दें
धिक्कार है ऐसे लोगों पर और ऐसे लोगों के छर्रों पर जो इन्हें प्रतिबद्ध या रोल मॉडल मानकर घरों के चक्कर लगाते है, इष्ट मानते है इन दुष्ट आत्माओं को, हिंदी के सत्यानाश और पूरे प्रलेस जलेस की असफलता के लिए यही ज़िम्मेदार लोग है - जो ईमान बेच दिए और नए - नए लोगों से मरे हुए लोगों के नाम पर पुरस्कार बटोर रहें है, बामण, बनियों, लालाओं और राजपूतों का यही वो संगठित गिरोह है जो लोगों को गफ़लत में रखकर मलाई चाट रहा है वर्षों से और संगठन से हट नही रहा
शर्म मगर उनको आती नही है
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हिंदी कवियों पर हिन्दू राष्ट्र में रोज़ आक्रमण हो रहे,मजा आ रहा है - बामण बनियों लालाओं पर जमकर जूतों की बरसात हो रही है बोले तो मैदान में खींचकर नंगा कर रहे वो लोग जो जुम्मे जुम्मे आठ दिन से कविता में आये है या कुछ का तो कोई सरोकार भी नही है
पर इन बामण, बनियों और लालाओं को बचाने कोई नही आ रहा क्योंकि ये कमबख्त कभी किसी के साथ कभी खड़े नही रहें, इनकी वाल देखिये आत्म मुग्धता से निकल ही नही रहें जबकि दो कौड़ी की अक्ल नही इन पेंशनजीवियों की
इनके पाले हुए रिटायर्ड भ्रष्ट बाबूनुमा छर्रे भी गायब है जो इन्हें इष्ट - इष्ट करके इनके लंगोट और पोतड़े धोते है और देशभर में रेल यात्रा में जूते उठाते फिरते है, इनके संग इन गुलाम और पाँव पडू लोगों को भी नंगा करना चाहिये जो देशभर में सेटिंग से हकलाते हुए कविता ओढ़ने पढ़ने की जुर्रत करते है और यहाँ वहाँ दारू से सेटिंग करते रहते है
मप्र हो, बिहार या यूपी कोई प्रलेस जलेस या कोई और कवि हिम्मत करके सामने नही आ रहा जब इन सबकी आबरू खुले मैदान में लूटी जा रही है हिन्दू राष्ट्र के नाम पर और बुरी तरह से ट्रोल किया जा रहा है, प्रवचन देने से और इधर उधर के कोटेशन पेलने से कुछ नही होगा - पहली बार हिंदी के माड़साब लोग्स और बैंक में बेगारी की तनख्वाह हजम कर बुढापे में चवन्नी इकठ्ठा कर रहें कामरेडों को आइना दिखाया जा रहा है
बड़ा मज़ेदार है यह सब पढ़ना समझना और इस स्तर की छिछालेदारी देखना
लगे रहो, अभी तो 22 जनवरी दूर है और राम लला के आने और मन्दिर पूरा होने में भी समय है - ठंड वैसे ही बहुत है हाथ तापों लोगों, लकड़ी ला बै, घासलेट डाल आग में
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