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साहित्य से जीवन की विदाई - 15 Jan 2024 - Adieu Adieu



साहित्य से जीवन की विदाई

कक्षा 9वी 10वीं में आए तब से शहर को और शहर के लोगों को पहचानना शुरू किया, स्वर्गीय पंडित कुमार गंधर्व से परिचय कक्षा चौथी में हो चुका था जब महाराष्ट्र समाज में एक शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम था गणेश उत्सव के दौरान, कुमार जी ने पहला ही आलाप लिया था और मैं बाहर हो गया था, फिर बाद में बाबा से गाना भी सीखा और तहजीब भी

लेखक बिरादरी की बात करें तो प्रोफेसर नईम प्रकाश कांत, प्रभु जोशी, जीवन सिंह ठाकुर से लेकर और भी कई लेखक थे जो शहर में लोकप्रिय थे, एक रमाकांत चौधरी थे जो नईदुनिया में लगातार लिखते थे - इस सब के बीच में धीरे-धीरे सबसे परिचय हुआ; अंग्रेजी में एमए करने के बाद लोगों से धीरे-धीरे परिचय बढ़ाया और लगा कि कुछ लिखना पढ़ना चाहिए तो एकलव्य संस्था की लाइब्रेरी को ज्वाइन किया और फिर बाद में एकलव्य में स्वैच्छिक तौर पर काम करने लगा - तब वहां यतीश कानूनगो, पीडी सक्सेना से लेकर शहर भर के बुद्धिजीवी आते थे
एकलव्य द्वारा स्थापित पाठक मंच से लेकर शिक्षकों के मंच में सबके साथ लगातार बातचीत होती रहती थी उसमें प्रकाश कांत, जीवन सिंह ठाकुर का नाम प्रमुखता से होता था क्योंकि यह दोनों लोग ना मात्र शिक्षक थे बल्कि लिखने - पढ़ने से गहरा सरोकार रखते थे, और नई दुनिया जैसे प्रतिष्ठित अखबार में इनके पत्र और फीचर कहानी, पुस्तक समीक्षाएं नियमित छपता था, इन दोनों से बात करना मतलब शहर में प्रतिष्ठा का होना था प्रोफेसर नईम के यहां तीनों की मंडली यानी प्रकाश, जीवन और प्रभु की मंडली मिलती तो हम सब लोग चमत्कृत ढंग से उनकी बातचीत सुना करते थे - प्रकाशकांत बताते हैं कि जब अमेरिका ने वियतनाम पर हमला किया था तो यह तीनों पढ़ रहे थे और देवास के पास शंकरगढ़ की पहाड़ियों में जाकर ये लोग बात करते थे और वियतनाम के दुख में शामिल होकर दिन-दिन भर रोया करते थे, बहुत कम खर्चे में अपना गुजारा करके या ट्यूशन पढ़कर इन लोगों ने पढ़ाई की थी
प्रभु दा एक किस्सा बताते थे कि गुलजार जब एक बार देवास आए तो उन्होंने इच्छा जाहिर की कि उन्हें इन तीनों से मिलना है क्योंकि ये तीनों धर्मयुग में लगातार लिख और छप रहे थे, नयेपूरे में जिस मकान में ये तीनों किराए से रहते थे वहां पर नीचे एक चतुरू मामा थे जो सेव बनाते थे, ठीक उनकी दुकान के ऊपर ये रहते थे, गुलजार जब उनसे मिलने पहुंचे तो यह तीनों भौचक्क से रह गए - लंबे समय तक गुलजार इनके कमरे में बैठे रहे और इनसे बात करते रहे और जब नीचे उतरे तो चतरू मामा से हाथ मिलाकर गए और बोले कि शुक्रिया - बाद में किसी ने चतरू मामा को पूछा कि "गुलजार साहब कैसे थे" तो चतरू मामा ने "अपना दाएं हाथ का पंजा आगे बढ़ाया और कहा कि बिल्कुल ताज़ी सेव जैसे नरम थे"
इन तीनों की दोस्ती की मिसाल आने वाली पीढियों को याद रहेगी, इस तरह की दोस्तियां अब बिरले ही सुनने को मिलेगी, प्रोफेसर नईम जैसे उस्ताद की छत्रछाया में इन तीनों ने साहित्य और कला की दुनिया में अद्भुत नाम कमाया, 1990 में अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता वर्ष जब मनाया गया तो जिला साक्षरता समिति के अध्यक्ष प्रोफेसर नईम थे, पदेन सचिव तत्कालीन जिला कलेक्टर गौरी सिंह थी और मैं जिला संयोजक था ; एक पूरी साक्षरता की टीम बनी थी जिसका काम साक्षरता के प्राइमर बनाना था और सघन प्रशिक्षण करना था - उस दौरान प्रकाश कांत और जीवन सिंह ठाकुर से ज्यादा संपर्क हुआ और फिर धीरे-धीरे यह संपर्क एक पारिवारिक रिश्ते में बदल गया
पिछले 40 वर्षों से हम लोग देवास, इंदौर, उज्जैन, भोपाल, शाजापुर, सीतामऊ से लेकर दिल्ली और तमाम जगहों पर साथ आते - जाते रहे हैं, प्रभु जोशी को प्रभु दा, प्रकाश कांत को अप्पा और जीवन सिंह को काका के रूप में ही जानते हैं, प्रकाश जी ने जहां अपना माध्यम कहानी और उपन्यास को बनाया, प्रभु दा ने चित्रकला और कहानी को बनाया, वही जीवन सिंह जी ने इतिहास के साथ-साथ कहानी और समीक्षा पर सघनता से काम किया
जीवन सिंह का जी का झुकाव दक्षिण पंथ की ओर था, परंतु मुझे याद है कि पिछले 40 वर्षों में हम लोग बहुत सहजता के साथ और सरलता के साथ बात करते रहे हैं, प्रकाश कांत जहां कट्टर मार्क्सवादी विचारक रहे और मार्क्सवाद पर उनकी दो किताबें भी हैं - वहीं काका ज्यादातर दक्षिण पंथ की तरफ झुक कर लिखते रहें, प्रभु मनमौजी थे - वे दोनों तरफ लिखकर मजे लेते थे और ताउम्र आकाशवाणी में काम करते रहें
काका हमेशा सीतामऊ से लेकर दिल्ली तक इतिहास की संगोष्ठियों में लगातार जाते थे और आने के बाद वहां के अनुभव और बातचीत का सारांश हम सब लोगों के साथ शेयर करते थे, पदमश्री विष्णु श्रीधर वाकणकर के वे सच्चे अनुयाई थे और देवास में नागदा की पहाड़ियों में जो खुदाई का काम पद्मश्री वाकणकर जी के निर्देशन में हुआ था - उसमें काका का बहुत बड़ा रोल था, देवास में उन्होंने लगातार कई संगोष्ठियां पद्मश्री वाकणकर जी के निर्देशन और उपस्थिति में संपन्न करवाई जिसमें हमें भाग लेने का अवसर मिला
साक्षरता अभियान के दौरान प्राइमर तैयार करने में खास करके संपादन और लेखन में काका का बहुत बड़ा योगदान था और हर प्रशिक्षण में सहजता और हंसी मजाक के साथ शिक्षकों के साथ मिलते थे वह बहुत ही प्रेरणादाई था, उनका विवाह पुंजापुरा की मधु गुप्ता के साथ हुआ था जो खुद एक विदुषी थी और महिला बाल विकास विभाग में अधिकारी थी, कोरोना के दौरान मधु भाभी का देहांत हो गया तब से काका बुरी तरह से टूट चुके थे - अपनी दो बच्चियों के साथ वे अकेले रहते थे और उनसे बात करने में हम लोगों को अब हिचक होने लगी थी उनका उदास सा चेहरा और बहुत कम बोलना हम लोगों की हिम्मत तोड़ देता था
कोरोना के पहले उन्होंने प्रेमचंद सृजन पीठ के निर्देशक के रूप में सफल 4 साल विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में बीताएं - जहां उन्होंने बड़े कार्यक्रम किये और देवास शहर में प्रेमचंद सृजन पीठ लगभग हर माह कोई ना कोई बड़ा आयोजन करती थी, निश्चित ही काका के होने से यह सब देवास जैसे शहर में संभव हो पाया अन्यथा हम तो यह कभी उम्मीद नहीं करते थे कि इस स्तर का कोई कार्यक्रम वह भी साहित्य को लेकर, देवास शहर में होगा
बाजार हो या घर कोई कार्यक्रम हो या कोई दफ्तर - काका जहां दिखेंगे, वहां अपना स्कूटर टेक देते थे और उतर कर आते थे बड़े प्यार से गले मिलते थे, हाथ मिलाते थे और कहते थे कि मैं अभी सीतामऊ गया था, मेरी अभी रमेश दवे से बात हुई, मेरी प्रभाकर श्रोत्रिय से बात हुई, मेरी प्रभाकर माचवे से बात हुई, पलाश जी से बात हुई, और अपने को एक बड़ा कार्यक्रम करना है संदीप भाई, आपका सहयोग चाहिए, अप्पा से मेरी बात हो गई है दिलीप बाबा ( दिलीप जाधव ) तो है ही अपने को सहयोग करेंगे, आप किसी बात की चिंता मत करना, घर आओ तो आराम से बैठते हैं और जब काका के घर जाते थे तो कब समय गुजर जाता था मालूम ही नहीं पड़ता था
कुमार जी के यहाँ हर 12 जनवरी को हार लिए काका मिल जाते थे, अभी जब यह सन्देश Kalapini Komkali को दिया तो कलापिनी का फोन आया और हम देर तक काका के बारे में बात करते रहे और मिलकर स्मृतियाँ साझा की, बाबा और वसुंधरा ताई को लेकर भी उनके पास दर्जनों किस्से थी, वसुंधरा ताई जाने के बाद भुवनेश ने एक फिल्म बनाई थी जिसकी स्क्रिप्ट मैंने लिखी थी तब काका के पास मैं गया था और उनसे वसुंधरा ताई से संबंधित बहुत सारी स्मृतियां सुनी थी, बाबा के बारे में तो उनके पास खजाना था मानो
मधु भाभी के देहांत के बाद काका जिस तरह से धीरे-धीरे टूटते गए, वह सब हम लोगों के लिए चिंता और दुख का बड़ा विषय था परंतु हम सब मजबूर थे, दोनों बेटियां बड़ी हो गई हैं उनकी पढ़ाई पूरी हो चुकी है, मधु भाभी के बाद दोनों बेटियों ने ही मोर्चा संभाला था और काका को बीमारी से वे निकाल रही थी - परंतु आज के मनहूस दिन पर काका हम सबको रोता बिलखता छोड़कर चले गए हैं
यह हम सबके लिए बहुत दुखद है कोविड काल में प्रभु दा का जाना, मधु भाभी का जाना और आज काका का चला जाना - लगता है हम सब साहित्य के क्षेत्र में अनाथ हो गए हैं, जीवन सिंह ठाकुर देवास का पर्याय थे, कोई भी साहित्य का ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जो उन्हें जानता नहीं होगा उनके पास देवास रियासत से लेकर मध्य भारत में आजादी के आंदोलन का लेखा जोखा, प्रजामंडल का आंदोलन आदि के ऐसे किस्से थे कि जिनको लगातार सुनते भी रहे तो शायद एक जन्म कम पड़ जाएगा, वे बहुत अच्छे व्यक्ति होने के साथ-साथ बहुत अच्छे किस्सागो भी थे, मुझे याद है जब गणेश जी ने पूरे देश में दूध पिया था तो वे नागदा के जिस स्कूल में पढ़ाते थे वहां का उदाहरण देकर वे हमेशा कहते थे कि "हमारे स्कूल के पास रहने वाली एक बुजुर्ग महिला कहती है - सब अंधे हो गए हैं, पत्थर की या पीतल की मूर्ति कोई दूध पीती है क्या, अरे दूध पिलाना है तो कमजोर बच्चों को पिलाओ, सब के सब अंधविश्वास फैला के पूरे देश का सत्यानाश कर रहे हैं" - काका का यह किस्सा हम सबको याद रहता था
अपने परम मित्र प्रभु और पत्नी मधु के देहांत के बाद जीवन सिंह ठाकुर जैसा मुकम्मल आदमी जो चलता - फिरता विश्वविद्यालय था, सामाजिक संबंध और संपर्कों का केंद्र था - कैसे धीरे-धीरे टूट गया और आज आखिर खत्म हो गया, यह सब स्वीकारना बहुत मुश्किल है, देवास के हम सब लोगों के लिए आज का दिन बाद मनहूसियत भरा दिन रहा है, आपको पीढ़ियां नहीं भूल पाऐंगी, हम तो क्या आने वाला समय आपका जब मूल्यांकन करेगा तो यह विश्वास करना मुश्किल होगा कि जीवन सिंह ठाकुर जैसा मल्टी टैलेंटेड आदमी इस छोटे से कस्बे में हुआ है - जिसने दुनिया भर में ज्ञान की ज्योति और उजाला फैलाया
स्वर्गीय जीवन सिंह ठाकुर को सादर नमन

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