"मोदी सरकार नैतिकता के आधार पर इस्तीफ़ा दें"
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राहुल गांधी को राहत मिली, सुप्रीम कोर्ट से दो साल की सज़ा रद्द हुई
इस सरकार ने जिस तरह से न्यायपालिका को अपना गुलाम बनाया है वह निंदनीय ही नही शर्मनाक भी है
नैतिकता का तकाज़ा तो यह है कि मोदी सहित पूरी सरकार को इस्तीफ़ा दे देना चाहिये पर इस सरकार की संस्कृति है ही नही, जब मणिपुर सहित बाकी राज्य जल रहे तो सीट से नही उतर रहें तो बेशर्म इसमें क्या इस्तीफ़ा देंगे
और राष्ट्रपति से तो उम्मीद ही मत करिए, जैसे रामनाथ कोविद सुविधाभोगी थे और कठपुतली बने रहें इसी तरह से 200 से आदिवासियों को मार डालने के बाद भी महामहिम द्रोपदी मुर्मू जी कुछ नही कर रही, जबकि राष्ट्रपति शासन लगना चाहिये था अभी तक पर वे चुप्पी लगाकर बैठी है
इस फैसले के बाद तो राष्ट्रपति को सख़्त कदम उठाना चाहिये पर कुछ नही करेंगी वे भी मजबूर है और उन्हें भी सुविधाएं भोगना है
शरद जोशी का व्यंग्य पढ़िये "हू इज़ अफ्रेड ऑफ वर्जिनिया वुल्फ़" या यूं कहिये कि "लोयाकरण से सब डरते है"
बिहार की जातिगत गणना का मामला हो या राहुल का, कोर्ट के फैसलों की सम्मान है और इस कुंठित सरकार को तो अब तीसरी बार लाना मतलब देश का कबाड़ा करना है, पर ये लोग समझेंगे थोड़े ही, बल्कि जैसे - जैसे चुनाव नज़दीक आएंगे वैसे - वैसे ये ज्यादा मूर्खताएँ करेंगे
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कुछ कवि और कवयित्रियाँ बेहद मुश्किल और घटिया शब्द इस्तेमाल करके खुद को महान समझ ले रहे है और रोज बकवास पर बकवास पेले जा रहे है और कुछ तो अवा जैसों को (कु)प्रभावित करके रज़ा को अपनी रोजी रोटी बना लिया है, ये लोग देशभर में तीर्थ यात्रा करते रहते है अपना माल घटे दरों पर बेचते हुए और इसी पर ज़िंदा है
कुछ मित्रों ने तो बाकायदा नामजद कहा है कि क्या लिखता है / लिखती है, ऊपर से तुर्रा यह कि मैं उफ़ी, सूफ़ी, आध्यात्मिक, नवगीत, अतुकांत, अगुणी, सगुणी, नवाचारी या व्याभिचारी हूँ और ये सब घोर हिंदुत्ववादी है, फर्जी मानवतावादी बनकर जोंक की तरह खून पी रहें हैं साहित्य का - चलो वह भी ठीक है पर जो घटिया कविता या कहानी यहां - वहां लिखकर जो बंधुआ बूढ़े और बुढियाएँ आती है ना अहो अहो करके इनकी पोस्ट पर, उनकी ना समझ है ना कोई अपनी अक्ल, इन चापलूसों की उम्र सिर्फ़ और सिर्फ़ चाटुकारिता में कटी है चाहे छोटे - मोटे गाँव खेड़े के स्कूल में या किसी विवि में घटिया मास्टरी करते हुए और अब रिटायर्ड है तो सड़े हुए महंगे टमाटर की तरह बहिष्कृत है समाज में
और कुछ तो साहित्यिक जोड़े भी इस कीचड़ में धँसकर दूसरों को अपने संग - साथ कर लेते है
बहरहाल, भगवान भला करें
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मैं कवि हूं, कहानीकार हूं , आलोचक हूं , मैं पत्रकार हूँ मैं मीडिया हूँ, मैं एनजीओ वाला हूँ और मैं कॉपी पेस्ट समाज विज्ञानी हूँ और भयानक रूप से आत्ममुग्ध हूं इसलिए फेसबुक चलाता हूं - ताकि मेरे छर्रे, मेरे दोस्त, मेरे यार और मेरे आलोचक मेरे बारे में हर चीज जान सके
मैं क्या खाता हूं, क्या पीता हूं, क्या पहनता हूं , कब संडास जाता हूं और मुझे क्या-क्या पुरस्कार मिले हैं, मैं क्या सोचता हूं , बस - देश, समाज राजनीति इस सबसे बचता हूं - क्योंकि अगर इस पर मैं बात करूंगा तो मेरी नौकरी चली जाएगी, मेरा पद छिन जाएगा और फिर मेरी औकात दो कौड़ी की भी नहीं रहेगी [वैसे भी नहीं है पर खूब फिल्टर लगा - लगा कर मैंने अपना थोबड़ा यहां तो चमका ही रखा है]
मोहे पुरस्कार दिलवा दो, फेलोशिप दिलवा दो, विदेश यात्रा करवा दो, मेरे कचरे को छपवा दो, मुझे प्रवचन देने बुला लो रे कोई, इत्ता बड़ा देश है, कोई कही तो घुमा दें फ्री में
मेरी किताबें खरीद लो रे कोई, मेरी समीक्षा लिख दो रे कोई, मेरी उन कवयित्रियों से सेटिंग करवा दो रे कोई
मेरी घटिया पोस्ट को वाइरल करवा दो रे, मुझे महान बनवा दो रे, मुझे लोकप्रिय बना दो रे - आप कहें तो 3 - 4 ब्याह कर लूँ, 6 - 7 तलाक दे दूँ, आप कहें तो थिसारस से दुरूह शब्द लेकर या विश्व कविता की चोरी करके अपने नाम से छपवा लूँ
कुछ तो बोलो मेरे माईबाप
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