पंकज चतुर्वेदी हिंदी के कवि है प्राध्यापक है पहले सागर में थे और अब कानपुर में
गहन - गम्भीर अध्येता है और नया रचते रहते है लगातार, पिछले दिनों उन्होंने बनारस के मंदिर में विजिट किया तो किसी ने चंदन लगा दिया, हिंदी में हल्ला शुरू हो गया कि हमें डराया जा रहा है, वामपंथी चंदन कैसे लगा रहें है आदि आदि, ट्रोलबाज सक्रिय हो गए
असल में व्यर्थ की बहस खड़ी की है - चंदन से लोग डरने लगे, टोपियों से डरने लगे तो हो गया कल्याण फिर, और जिस तरह से यह ट्रोलबाजी है वह बेहद निम्न स्तर की है
याद आता है राज्य संसाधन केंद्र, इंदौर के हमारे नए भवन का उदघाटन था 2004 में और मैंने उदघाटन के लिए श्रीमती कमल एवं चंद्रकांत देवताले जी को अतिथि के रूप में बुलाया था, अचानक आयोजको में से एक निदेशक, श्रीमती अंजली अग्रवाल ने उन्हें कहा कि आप जोड़े से पूजा करिये, पूरी पूजा हुई विधि विधान से और बाद में जब मैने देवताले जी को खाने के समय छेड़ा कि "कहिये पंडित देवताले कैसे है" तो वे आदत अनुसार मेरे कान में फुसफुसाकर बोले "साला, आज मुक्तिबोध भी फंस जाते तो आरती उतारना पड़ती उन्हें भी सपत्नीक" पिछले दो तीन वर्षों में मैनेजर पांडेय जी को भी ट्रोल किया था
सन 2016 में मै, बहादुर पटेल और बुजुर्ग कवि वसन्त सकरगाये बीएचयू में कविता पाठ करने गए थे तो हमें भी चंदन लगा दिया था बाबा विश्वनाथ के मंदिर में, बहादुर और वसन्त ने कहा था कि हमारे ये फोटो फेसबुक पर मत डालना पर मैंने तो वो अपने फोटो लगाए थे, संस्कृति से लोक से विमुख होकर आप क्या नया रच लेंगे - जगन्नाथ पुरी जाएंगे या रामेश्वरम या केदार बद्रीनाथ तो क्या फोटो नही लेंगे, दिल्ली की जामा मस्जिद हो या गोवा के चर्च, स्वर्ण मंदिर हो या उज्जैन का महाँकाल मन्दिर क्या फोटो नही लेंगे - इसमें वामपंथ को क्या खतरा है या कौनसा डर बैठ जाएगा लोगों में इससे - अजीब है यह कायराना रवैया
कुछ प्रतीकों को जीने और देखने का अपना मजा है - अब आप हरिद्वार जाएंगे या काशी तो गंगा आरती देखना पाप है क्या, भोपाल में ताजुल मस्ज़िद जाता हूँ तो शबील ( शर्बत) पीता हूँ , सभी गुरु पर्व पर गुरुद्वारे के हलवे का स्वाद चखे बिना नही आता, चर्च में केक खाता हूं
ये जानबूझकर हैरास करने की साजिशें है और जिनपर ध्यान देने की जरूरत नही और यह सब करने की ताक़त और छूट हमको सँविधान अनुच्छेद 14 से 32 द्वारा तक देता है - किसी से क्या करना
आप क्रॉस, टोपी, कड़ा या पगड़ी लगाकर घूमो तब कुछ नही
खैर
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हर पोस्ट में, कहानी, कविता में या किसी भी सम सामयिक मुद्दे पर लिखते है तो अपनी फोटू चैंपना जरूरी है क्या, सादी ब्याह, सादी ब्याह भुगतने के प्रतिवर्ष वाली याद जो उफ़्फ़ के साथ की जाती हो, पैदा होने के जमाने पर एहसान वाली पोस्ट पर भी फोटू धकेबल है पर हर बार दिन में दस पोस्ट्स पर किशोरावस्था से लेकर जवानी के 24 - 26 साल बाद तोड़ दिए गए कैमरे के फोटू पस्त कर देते है जबकि अब आप 60 के हो गए सफेद बाल और पोपले मुंह के साथ दन्त विहीन
मल्लब अपने थोबड़े को किताब (फेस बुक) पर लाना किस सँविधान, आईपीसी, शास्त्र, हदीस, टेस्टामेंट या बाणी में लिखा है - इसका मल्लब या तो पोस्ट कमज़ोर है - जो भी कंटेंट है निहायत ही बेहूदा है पर अपना चेहरा डाल देने से लाईक - कमेंट्स की भरमार हो जाती है और अपन खुद मुगालते में आ जाते है कि लोग पढ़ - समझ रहें है और ज्ञानपीठ बुकर से बस दो गज की ही दूरी है
यह प्रवृत्ति कवियों में ज़्यादा है, अरे कविता चैंप दो - दम होगा तो तो लाईक - कमेंट आएंगे, ये क्या कि अपने जैसे - तैसे, बचकाना मुंह और यहां तक कि अर्ध नग्न फोटो भी संग नत्थी कर दिए, कुछ बुढ़ऊ अपनी बीबी की फैशन परेड भी सार्वजनिक करवा देते है - 'बैल - बॉटम' पहनकर - "स्पैम" मेल में अटैचमेंट की तर्ज पर , तोता मैना के किस्से तो छोड़ ही रहा जहाँ तोते की हर पोस्ट पर मैना और मैना की पोस्ट पर तोते की झूठन आपको apparently मिल ही जाएगी
और दूसरी बीमारी किसी भी नत्थूलाल का शेर चिपकाया और अपना थोबड़ा आगे कर दिया मल्लब जे गज्जबै ई है
ख़ैर , लोकतंत्र है अभी, जिस दिन बुलडोज़र चलाऊंगा तो सब साफ़ - अजीब और ऊटपटांग फोटू देखकर कचवा गया हूँ इसलिये अब से खुद की फोटू वाली पोस्ट पर "नो कमेंट मल्लब नो कमेंट", तीनों - चारो राज्यों की सरकारें थोड़ी शांत हो जाये फिर बुलडोज़र मंगवाना ही है सरकारों से मुझ गरीब को फिरी में मिल ही जायेंगे नेक काम के लिये
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छोड़ो मत किसी को बदनाम होकर मरो भले ही, वैसे भी स्वर्ग नरक होता नहीं - सब मन का भ्रम है
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"क्यों बै अभी क्यों फोन लगाया, अभी लौटा हूँ कालेज से, सुस्ता रहा हूँ भोजन करके" - उधर लाईवा था
"जी, असल में नौ नई कविताएँ अतिक्रमण को लेकर लिखी थी तो सोचा कि ...." मिमियाते हुए बोला
" तेरा पता बोल क्या हैं " - मैंने कहा
" जी, अभी वाट्सएप करता हूँ, पर पते का क्या करेंगे " - घबराते हुए बोला
"अभी अमेज़न से तेरे घर दस किलो पेडिग्री भिजवाता हूँ - महीने भर चबाना और जावेद भाई को बोलता हूँ कि बुलडोज़र लेकर जरा घर चले जाएं तेरे , कम्बख़्त पीछा छूटेगा, जावेद भाई नगर पालिका के बुलडोज़र वाले ठेकेदार है " , फोन बंद कर दिया था और घुर्रा रहा था खर्राटों से अब मैं
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