इसमें एक बात और कि कुछ, बल्कि अधिकांश स्त्रियां घटिया तो लिख ही रही है - पर वो इन सिम्प पुरुषों की नब्ज भी जानती है, एकदम सड़ियल कविता के साथ दशकों पुरानी अपनी जवानी या किशोरावस्था की फोटो भी चैंप देती है और बापड़ा मर्द अहा - अहा में मरे जा रहा है, इधर धे फिल्टर - धे फिल्टर मारकर हिंदी का प्रगतिशील पुरुष कवि या कहानीकार भी गोरा करके, चेहरे के चेचक के दाग मिटाकर कविता पोस्टर बना रहा और ये फिल्टर्ड फोटो चैंप रहा यहाँ - वहाँ ताकि उसका भी ज़िक्र होता रहें, दुर्भाग्य से इस सबके बीच जो शेष बचता है - वह है घटिया साहित्य, राजनीति, छपास, पुरस्कार और यश - कीर्ति की हवस - जिसका कोई अंत नही और अब इस पाप में बूढ़े और बुढियाएँ भी शामिल है, सम्पादक और प्रकाशक भी जिनका अब ना लेखन से वास्ता है ना पढ़ने से कोई सरोकार
"हिंदी में युवा स्त्री लेखन और simp कुंठित पुरुष"
◆ अम्बर पांडेय ◆
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इससे पहले कि उपकार गाइड का यह पाठ प्रारम्भ हो simp शब्द की परिभाषा देना समीचीन होगा।
Simp अंग्रेज़ी भाषा से आया एक अपेक्षाकृत नवीन शब्द है। Simp संज्ञा और क्रिया दोनों अर्थों में उपयुक्त होता है और इसका अर्थ है स्त्री की निकटता प्राप्त करने के लिए उसकी अकारण प्रशंसा करना, किसी भी मुबाहिसे में बिना सोचे समझे स्त्री का पक्ष लेने लगना और स्त्रियों के आगे अन्य पुरुषों को बुरा या छोटा बतलाना तथा हमेशा खुद को एक अति-जागरूक स्त्रीवादी (woke feminist man) बताते रहना ताकि स्त्रियों का नैकट्य मिल जाए या मिलता रहे।
हिंदी साहित्य में वर्तमान युग को Simp-युग कहा जा सकता है। स्त्रियों का जितना घटिया लेखन आज प्रकाशित, प्रशंसित और पुरस्कृत हो रहा है उतना पहले कभी नहीं हुआ। इसके पीछे Simp behaviour (सिम्प-व्यवहार) की बड़ी भूमिका है।
ऐसा लेखन दो कारणों से प्रकाशित/प्रशंसित/पुरस्कृत होता है—
१. (लघु कारण) स्त्रियों से निकटता प्राप्त करने के लिए।
२. (बृहद कारण) खुद को नारीवादी और woke (नवउदारवादी, जो अस्मिता मात्र को महत्वपूर्ण मानते हुए लिखे हुए को बिना उसकी गुणवत्ता की परवाह किए को उसका समर्थक होता है) बतलाकर साहित्य में स्थापित होने या बने रहने के लिए।
जैसा कि आप जानते है बड़े पूँजीपतियों ने अस्मिता राजनीति को हाथोहाथ लिया क्योंकि इससे बड़ी आसानी से पूँजी और राजनीति का सम्बंध विच्छेद हो गया। अस्मिता की राजनीति नेताओं और पूँजीपतियों दोनों के लिए मुफ़ीद है। अस्मितावादी पूँजीपतियों को उखाड़ फेंकना नहीं चाहते बल्कि वह तो दूसरी अर्थात शोषक अस्मिता के ख़िलाफ़ लड़ रहे है और इससे फ़ायदा होता है पूँजीपतियों का कि उनके उद्योग धंधे सुरक्षित रहते है और इसके लिए उन्होंने दुनिया भर के विश्वविद्यालयों को भरपूर रुपया दिया कि वे अस्मिता की राजनीति का प्रसार प्रचार करे।
खुद भी मातृत्व अवकाश, आरक्षण, प्राइड मन्थ (समलैंगिकों के गर्व का उत्सव) जैसी छोटी मोटी चीजें की जिससे गम्भीर मार्क्सवादी दूर रहे।
इस प्रकार इस क्षेत्र में बहुत पैसा, लिट-फ़ेस्ट, फ़ेलोशिप, पुरस्कार (बुकर पुरस्कार पूर्णतः अस्मिता आधारित हो चला है और इसलिए इसका साहित्य महत्व आज लगभग शून्य है) है जिसे पाने के लिए प्रत्येक लेखक खुद को महान woke बताने की जद्दोजहद में है ताकि उसे लाभ मिलता रहे और यह बताया जा सकता है तब जब आप स्त्रियों, दलितों, मुसलमानों का खुद को बड़ा हितैषी बताए। यह सिम्प व्यवहार का साहित्य में एक उदाहरण है।
Simp शब्द भले नवीन उद्भावना हो मगर इसका इतिहास साहित्य में बहुत पुराना रहा है और इसी के कारण हम इतिहास में स्त्रियों की भूमिका नहीं देखते। ऐसा नहीं है कि स्त्रियाँ लिख नहीं रही थी मगर simp पुरुष रूप और जवानी (sexual currency) को अच्छा साहित्य तब बता रहे थे और जैसे ही रूप और जवानी ढलती यह simp नयी फसल को बढ़ावा देने लगते और इस तरह स्त्री साहित्य के नाम पर कचरे को बढ़ावा दिया जाता रहा। गम्भीर स्त्रियों का श्रेष्ठ साहित्य नदारद रहा।
सुभद्राकुमारी चौहान और महादेवी वर्मा ने इस चक्र को तोड़ा और अकारण नहीं कि वे घूँघट करती या सफेद, निलंकृत भूषा धारती थी क्योंकि उन्हें पता था रंगीली बनने पर उन्हें तो महत्व मिल जाएगा लेकिन इनका साहित्य पीछे रह जाएगा।
कई स्त्रियाँ कहती है अगर तुम हमारे साहित्य को रद्दी मानते हो तो तुम पितृसत्तावादी हो, अगर हमारी रद्दी को तुम साहित्य मानोगे तो तुम सच्चे नारीवादी हो। ऐसी स्त्रियाँ अच्छा साहित्य लिखनेवाली स्त्रियों की सबसे बड़ी दुश्मन है।
वे मेरिटोक्रेसी का विरोध करके जिस औरत में ज़्यादा शोर मचाने की ताक़त है उसके साहित्य को अच्छा साहित्य बताना चाहती है। ईमानदार लेखन में व्यस्त लेखिका शोरशराबा नहीं मचा सकती और इन स्त्रियों की वही सबसे बड़ी दुश्मन है।
आख़िरकार सबका साहित्य न पढ़ा जा सकता है न छापा जा सकता है न याद रखा जा सकता तो किसी न किसी का तो याद रखा जाएगा, छापा-पढ़ा जाएगा तो ये चाहती है सोशल नेटवर्किंग, शोर और नारीवाद के नाम पर इनका साहित्य याद रखा जाए।
यह छद्मनारीवाद है। इसी तरह रूप के बल साहित्य में पैर जमाना या अत्यंत गर्हित पोर्नोग्राफ़िक साहित्य को नारीवाद के नाम पर चलाना भी छद्मनारीवाद का उदाहरण है जिसे simp पुरुष अपनी कुंठा के कारण हाथोंहाथ लेते है।
स्वतंत्र स्त्री simp पुरुषों के सहारे साहित्य में पैर नहीं जमाती क्योंकि वह जानती है कि ऐसा कई दूसरी खुद्दार स्त्रियाँ नहीं कर पाएँगी और उसका ऐसा करना उन स्त्रियों के ख़िलाफ़ होगा और यह सच्चा नारीवाद नहीं होगा।
वे एक नैतिक दुनिया में रहती है और अपने हर अनैतिक काम को पितृसत्ता को तोड़ने का उपक्रम नहीं बताती क्योंकि अनैतिकता को तो नारीवाद का दूसरा नाम नहीं कहा जा सकता। स्त्री पुरुष की बराबरी वाले संसार में भी ethics या नैतिकता का अस्तित्त्व तो रहेगा ही।
वे साहित्य में नयी दृष्टि निर्मित करती है, नवोन्मेष करती करती है। वे रातदिन चीख चीखकर यह नहीं कहती कि वे पितृसत्ता तोड़ रही है पितृसत्ता तोड़ रही है बल्कि अपनी नवेली उद्भावना और साहित्य की ईमानदारी, उसकी तीव्रता से उसे तोड़ ही देती है। नितम्ब हिलाने से पितृसत्ता नहीं टूटती बल्कि वह तो प्रसन्न होती है, वह टूटती है ऐसा लिखने से जो आज तक किसी पुरुष ने न लिखा हो।
स्वतंत्र स्त्री अपने विकास के लिए पुरुषों का मुँह क्यों जोहेगी, यह simp पुरुषों को जान लेना चाहिए।
simp पुरुषों का नाश हो ऐसी प्रार्थना से इस लेख को अब हम पूर्ण समझते है।
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कल देश में इतनी बड़ी दुखद घटना घटी, पर हमारी हिंदी के कुछ निर्लज्ज कवि मंगलेश डबराल जैसे बेकार कवि की याद में लाईव करके अपनी कविताएँ और भड़ास पेलते रहें
आज भी यह हुआ, भयानक घटिया और आत्ममुग्ध संसार है इस हिंदी का जो अपने समाज को ना देखकर आत्म प्रशंसा में लिप्त ही नही बल्कि कीचड़ में बुरी तरह से बजबजा रहा है
धिक्कार है ऐसे हल्कट लोगों पर
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सावन के अंधे को हरा ही हरा नज़र आता है एकदम सही पर ये बताओ यहाँ हर हरे में क्या क्या है
◆ मैथी
◆ सरसो का साग
◆ बथुआ
◆ चने की भाजी
◆ शैपू की भाजी
कल सब धोकर साफ कर रखी, अब अगले कुछ दिन यही हरा - हरा मल्लब सब्जी, परांठे, मराठी पातळ भाजी, ढोकले आदि लहसन, प्याज, टमाटर और लाल मिर्च का बेहतरीन इस्तेमाल करके बनेंगी
और इस सबके साथ गोभी, गाजर, ताज़े मटर, मूली और हरी मिर्च का सरसो के तेल का ताज़ा अस्थाई अचार - उफ़्फ़, यह सब लिखकर ललचाना भी पाप है, पर अब हो गया क्या करूँ
हरे लहसन की चटनी खोबरे का बुरादा, तिल और मूंगफली के दाने डालकर
सर्दियों का यही सुख है जनाब
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जांबाज़ बहादुर जनरल विपिन रावत को नमन साथ ही उनकी पत्नी और अन्य 12 अधिकारियों एवं जवानों को हार्दिक श्रद्धांजलि
एक जांबाज़ जनरल का इस तरह से खत्म हो जाना बहुत दुखद है, मतलब क्या पैराशूट का प्रयोग भी नही कर पाएं - यह बहुत गम्भीर मसला है और एक साथ 14 वरिष्ठ अधिकारियों इस तरह के हादसे में मौत बड़ा सवाल तो है ही, सेना का एक जवान भी इतनी आसानी से मौत को प्राप्त नही होता, अपने अनुभवों के आधार पर कह रहा हूँ कि यह एक बड़ा हादसा है और बहुत कुछ अब सामने आएगा
सेना को अपने प्रोटोकॉल, तौर तरीकों और सुरक्षा मानदंडों को पुनः और तुरन्त रिव्यू करने की , प्रशिक्षण और अपनी तमाम SOPs को देखने की ज़रूरत है
बहरहाल, नमन और श्रद्धांजलि
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दुर्भाग्य से आज पढ़े लिखें लोगों ने भी पूजा कर डाली अम्बेडकर की - जिन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया था, अम्बेडकर को पूजना सरल है पर पढ़ना, गुनना और मंथन कर जीवन और समाज में अपनाना बेहद कठिन
दूसरा दुर्भाग्य से अम्बेडकर को दलितों का मसीहा ही मान लिया गया जबकि वे मनुष्य मात्र के व्यक्तित्व थे
अम्बेडकर के बारे में गैर दलित यदि कोई बोले - लिखें तो इसे अपराध मान लिया और वे अपनी बपौती मानकर पूजे जा रहें है दशकों से
एक असाधारण और विलक्षण मनुष्य थे जिन्होंने शिक्षा के बल पर सब हासिल किया, उनकी गलतियाँ भी सबको मालूम है जैसे गांधी नेहरू या और किसी की रही है पर यह भगवान बना देना एकदम ही किसी कमजोर और नासमझ का काम दिखता है
बहरहाल
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निंदा, कहानी, कविता, साहित्य के पुरस्कार, शिक्षा, स्वास्थ्य, और एनजीओ के पुराने से पुराने मरीज़ लिखें या मिलें
एक कप चाय में सब इलाज़, शर्तिया ग्यारंटी के लिए आज ही मिलें
मौर्या की लॉज, बस स्टैंड के ऊपर, कमरा नम्बर 420
आपके शहर में सिर्फ डेढ़ दिन
[ नोट - हमारी कोई ब्रांच नही है ]
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