फेसबुक या इंस्टाग्राम या यूट्यूब या समूचा सोशल मीडिया एक ऐसा चिकना, लुभावना और घटिया रैम्प अब बन गया है इन दिनों - जिस पर चलकर साहित्यकार अपनी कविता, कहानी, आलोचना, भड़ास या यूँ कहें कि पूरी नितांत निजी ट्रॉमा इंड्रस्ट्रीज़ का नग्न प्रदर्शन करता है और चाहता है कि पूरी दुनिया उसका ट्रॉमा झेलें और उसके साथ खड़ी हो जाये, बल्कि इस सारे के बदले उसे मान्यता, स्वीकृति के साथ पुरस्कृत भी करें - कमाल है यह भी एक
***
महत्वपूर्ण सूचनाएँ - (महिला मित्र ध्यान दें)
•••••
◆ आज मुझे औदिच्य ब्राह्मण सभा और सिंधी समाज के साथ नायता पंचायत ने संयुक्त रूप से नरवर गौशाला में सम्मानित किया, आभारी हूँ
◆आज रात का भोजन कामता प्रसाद IAS और उनकी पत्नी चमेली बाई के साथ इस्माइल भाई तांगे वाले के अमरूद वाले खेत पर है जहाँ उनकी नई किताब पर बोलना है
◆ कल मेरी किताब पर चम्पाबाई ने यह लिखा - आपके लिए पेश है
◆ परसो मुझे नत्थूलाल पंसारी ने आमंत्रित किया था पिताजी के श्राद्ध में
◆ प्रो गधाप्रसाद ने मुझे वेबिनार में बुलाया 13 तारीख को ज्योतिष विभाग और मेकेनिक्स विभाग के सभी प्राध्यापक और ड्राप आउट छात्र उपस्थित रहेंगे
◆ फलाने तहसीलदार - जो साहित्यकार है, ने 17 को आंगनवाड़ी में काव्य पाठ करने बुलाया है - साहब के अंडर वाले सब पटवारी, आशा कार्यकर्ता और कोटवार उपस्थित रहेंगे
◆ प्राथमिक विद्यालय की हेड मास्टर सुश्री इमरती बाई ने 16 बच्चों के बीच मेरा सम्मान किया, मैंने उनकूं राष्ट्रवाद पर साढ़े तीन घण्टे का लेक्चर दिया
◆ इस माह क्रिसमस पर प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक पादरी संघ मुझे चर्च में सम्मानित करेगा - मेरी सामाजिक विरल दृष्टि के लिये
◆ 26 को बजरंग दल के ब्लॉक स्तरीय सम्मेलन में प्रमुख वक्ता रहूँगा, विषय है - "हिन्दू राष्ट्र अब नही तो कब"
◆ 27 को भाकपा, माले के प्रांतीय अधिवेशन का सूत्रधार हूँ विषय होगा - "अल्प संख्यक, दलित, वंचित एवं गरीबो के हितों पर हिंदूवादी ताकतों का प्रहार"
◆ 29 को इनरव्हील क्लब की बहनों के बीच धार्मिक व्यंग्य रचनाओं का पाठ करूँगा - श्रीराम धर्मशाला बस स्टैंड पर (डाक्टर शाहनी के बगल वाले कमरे में)
◆ 30/31 को "व्हिस्की चौक, अभा साहित्य उत्सव, डकाच्या, जिला इंदौर", में श्रीमान अविश्वास के साथ मंच और झुमकी बाई के कत्थक में रहूँगा
कृपया अभी 31 तक फोन ना करें - भोत व्यस्त हूँ , भाई - एक महाविद्यालय में आंग्ल भाषा का वरिष्ठ प्राध्यापक हूँ, कभी - कभी जाना भी पड़ता है पढ़ाने, आखिर ढाई - तीन लाख की मजदूरी करना पड़ती है इस सरकार की
***
|| तेरा राम ही करेंगे बेड़ा पार ||
•••••
अब धीरे धीरे लगने लगा है कि साहित्य का जितना नुकसान लिटरेचर फेस्टिवल्स ने किया है, उतना किसी ने नही
जिस अंदाज़ में आयोजक प्रायोजकों के सिर पर टोपी रखकर पूरी अश्लीलता से खर्च करते है - वह अकल्पनीय है ; हवाई यात्राएँ, फॉर्च्यून से लेकर रेडीसन या सयाजी जैसे होटलों में रुकवाना, आलीशान लक्ज़री, महंगी गाडियाँ, सुविधाएँ, मदिरा पान का इंतज़ाम, पार्टियाँ और चमक - दमक इन दिनों नजर आ रही है - वह सब संदेहास्पद है
लगता ही नही, वरन पूर्ण विश्वास है कि आयोजक और प्रायोजकों का दो नम्बर का रुपया इन कार्यक्रमों में खर्च होता है और वे अपनी काली कमाई को दरिद्र लेखकों, निम्न मध्यम वर्गीय लेखकों और लोगों पर लुटाकर सफेदपोश सभ्य बन जाते है, ये रोल मॉडल्स समाज के लिए घातक है और निश्चित ही इनका ना साहित्य से लेना देना है, और ना ही रचनात्मकता से - ससुरे बड़े विचारक और पढ़े लिखें गंवार भी इधर लिम्का रिकॉर्ड बनाने में व्यस्त है, बस चंदा आये और खर्च हो
अफ़सोस उन लोगों पर होता है जो इस तरह के आयोजनों को अपना बासी फेस लिफ्टिंग के लिए माध्यम बनाकर बहुत जल्दी कुछ हासिल कर लेना चाहते है, माना कि हिंदी साहित्य की परंपरा में प्रेमचंद के फटे जूते, मुक्तिबोध जैसे गरीब आदमी का दिल्ली के सरकारी अस्पताल में इलाज करवाते हुए मर जाने की विरासत है, मैं यह नहीं चाहता कि आज का साहित्यकार भूखा मरे या गरीब होकर भीख मांगे - परंतु कम से कम जिस समाज, जिस वर्ग और जिस विचारधारा को हम लोग मानते हैं - कम से कम वहां पर इस तरह के अश्लील और भौंडे प्रदर्शनों की कोई जगह नहीं है
ऐसे में या तो आप मन मार कर इन आयोजनों में हिस्सेदारी कर रहे हैं या फिर आपके अंदर भी उसी तरह की इच्छाएं जाग उठी है, उसी तरह की हवस है - जो पूंजीपति वर्ग में होती है ; यह साहित्य उत्सव बजाए साहित्य के एक - दूसरे के साथ संबंध गाँठकर बाजार का फायदा लेने का मौका ज्यादा है और शर्मनाक है कि इस समय में वे सारे प्रतिबद्ध लोग हिस्सेदारी कर रहे हैं जो गरीब और मजलूम लोगों की आवाज होने का दावा करते हैं - फेसबुक से लेकर तमाम आलेखों और फिल्मों और सीरियल्स में ये ही लोग यह कहते नहीं अघाते कि वे भारत के विकास, समाज में हाशिये पर पड़े लोगों और दलित - वंचितों के लिए लिख पढ़ रहे हैं या उनकी नुमाइंदगी करते है
परंतु जिस तरह के फाइव स्टार आयोजनों में ये हिस्सेदारी करते हैं - उससे इनका दोगलापन समझ में आता है, देश में इस समय चारों तरफ साहित्य उत्सवों की धूम है, हर कोई चाहता है कि उसे अटेंशन मिले, उसे सुना जाए, उसे पढ़ा जाए और उसका कूड़ा कचरा जो ₹25000 देकर छपाया गया है - उसे लोग खरीदें, आश्चर्य तब होता है जब इन स्थानों पर चाट , मेकअप, साड़ी, चुन्नी, और हैंडलूम के सामान बिकने के लिए उपलब्ध हो जाते हैं - लोग सुनते कम चाट ज्यादा खाते हैं, चाय और सुट्टा तो साहित्य की रीढ़ है ही, आने वाली भीड़ भी चाट ज़्यादा खाती है बजाय सुनने - समझने के, और यह दर्शाता है कि आम लोगों का साहित्य या बदलावकारी साहित्य के प्रति कितना रुझान है
बहुत शर्मनाक है यह सब और खासकर के युवा लोग जो साहित्य का ककहरा सीख रहे हैं यहां आकर हंसी ठिठोली करते हैं, ताड़ते है , और पूरी तरह से छेड़छाड़ में लगे रहतें है - अपने आपको तो दो सौ गुना ज्यादा बताते हैं और पूरी बेशर्मी के साथ स्वयं को स्थापित करने की कोशिश करते हैं यह गलत नही पर जीवन में शॉर्टकट नही होता कोई
यह नकारात्मक सोच नहीं बल्कि एक इमानदाराना विश्लेषण है जिस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है, एक ही शहर में 2 -4 अगर ऐसे आयोजन हो जाए तो - एक आयोजक दूसरे के आयोजन में नहीं जाता या एक आयोजन के साहित्यकार दूसरे आयोजन में नहीं जाते और उसे बुरी तरह से कोसते रहते हैं, हर आयोजन में एक दूसरे से बढ़ा चढ़ाकर साज-सज्जा और व्यवस्था, होटल, लॉजिस्टिक और विदाई की राशि की बात होती है - परंतु साहित्य की बात कही नहीं होती, मंच पर जो लिखा - पढ़ा जा रहा है उसके बजाय व्यक्तिनिष्ठ बात होती है, रचना की कही बात नहीं होती - बल्कि रचनाकार की व्यक्तिगत इमेज, सुंदरता, उसके पद - प्रतिष्ठा और पैसे की वजह से इस तरह के आयोजनों पर पुरज़ोर असर डालने की कोशिश की जाती है, इन आयोजनों के विज्ञापन में इन्हें किसी नगरवधू की तरह से परोसा जाता है ताकि भीड़ आ सकें, फिल्मी दुनिया के लोग, भाँड़, भाट, चारण, किस्सागो, गायक या विदूषक और मसखरे - जिनका साहित्य से कोई लेना - देना नहीं है जिनके उद्देश सिवाय व्यवसायिक होने के कुछ नहीं है - वे लोग जब यहां पर आकर अपनी पर्सनल पीआरशिप बढ़ाने की बात करते हैं - तो आश्चर्य होना कोई बड़ी बात नहीं है
एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि यह ब्लैक का रुपया अगर साहित्य के काम आ रहा है तो क्या गलत है, बल्कि इसका तो स्वागत होना चाहिए - बिल्कुल सही, मेरा भी मानना है कि सभी को अच्छी सुविधाएं और सम्मान, यश और कीर्ति मिले - परंतु कम से कम यह तो देख ले कि रुपया किस स्रोत से आया है या किसकी जेब से आया है ; हवाई जहाज का न्यूनतम किराया ₹5000 आजकल हो गया है, ढंग की होटल में अच्छे कमरे 4000 प्रतिदिन से कम नहीं मिलते - क्या हमारे साहित्यकार इतने सक्षम है कि वह यह सब वहन कर सकते है यह सब पचता कैसे हैं मुझे यह समझ नहीं आता
ऐसे में साहित्य का कितना भला होगा - यह तो खुदा जाने, पर आयोजक और प्रायोजक का दो नंबर का रुपया सफेद हो जाता है - यह बात निश्चित है ; आपका क्या विचार है - यदि आपको लगता है कि यह सब नकारात्मक है तो निश्चित ही कमेंट करें परंतु यदि आपको लगता है कि साहित्य का भला इससे बेहतर हो सकता है तो अपने सुझाव भी दें
Comments