अम्बर पांडे ने उपकार गाइड में लिखा है अभी, मुझे लगता है तीसरे वाले बिंदु में यदि रिटायर्ड होकर अफसर, सम्पादक, बैंक कर्मी, किसी विभाग का बाबू, किसी न्यास का कत्थक कलाकार या किसी विवि का माड़साब सत्ता के थूक को भली - भांति चाट लेने का परिपक्व अभ्यास कर लें और इतिहास से लेकर कविता, कहानी, आलोचना और उपन्यास पर लिख सकें - एंडा बैंडा कुछ भी तो और फायदा और मालवा, भोपाली, पटना, लखनवी, दिल्ली, जयपुर, बड़ौदा या कोलकाता के कवियों की भांति उसे भी चरण पकड़ूँ शिष्य मिल सकते है, वह मरने तक चिर युवा रह सकता है और ग्यारह रुपये से लेकर ग्यारह लाख तक के पुरस्कार लेने कही भी जा सकता है
चौथा एक और तरीका है पुलिस के ठुल्ले हो यानी कान - स्टेबल तो प्रकाशकों को धमकाकर कुत्ते बिल्ली और गिलहरी की कहानी का पोथा भी छपवा सकते हो और फिर हवाई जहाज में बैठने की हौस पूरी कर सकते हो
बाकी सब ठीक ही है
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साहित्य में इज़्ज़त पाने के साढ़े तीन तरीक़े
साहित्य में इज्जत पाने का नुस्ख़ा लेखन नहीं है, अच्छा लिखना तो बिलकुल भी नहीं। अच्छा लिखने में उल्टे बेज्जती का अन्देशा देखा जाता है।
उससे अच्छा है मिडियाकर लेखन और तरह तरह के गुट का मेम्बर बनना। भूमिहार साहित्य के गुप्त गुट का सदस्य (देखिए उपकार गाइड का पाठ— हिंदीसाहित्य के घराने) आप बन सकते है या मिथिला मण्डली के या वामपंथी ख़ेमे के या जोधपुर झुण्ड के पंछी. चाहे तो पटना के लौंडों के संग लग लो— गुट में सब सबकी धोवें और रात शांति से सोवें का नियम माना जाता है। बस ये है कि इसमें सीमित इज्जत को बाँटनेवाले ढेर है।
तीन और जुगतों से भी साहित्यिक इज़्ज़त में इज़ाफ़ा किया जा सकता है—
१. जैसा कि आप जानते है मनुष्य मरणधर्मा मगर साहित्यकार तो अमर होता है, इसी में यह जुगत फँसी है।
डोकरे लेखकों कवियों के आसपास फिरना और उनके मरने की राह तकना। जैसे ही वे बैकुंठ पधारे उनके ऊपर मोटे मोटे स्मृति लेख लिखना प्रकाशक राज़ी हो या लेखक के बिटवा-बेटी रुपया दे तो मृत लेखक/कवि पर पूरा पोथा तैयार कर देना और उसके बाद जगह जगह उस पर भाषण करते फिरना जैसे आप उस लेखक की अथॉरिटी हो।
इसे साहित्य में इज़्ज़त पाने की गिद्ध प्रणाली कहते है। कोई कोई लेखक तो अंतिम संस्कार के समान बेचनेवाले दुकानदार की तरह हर आते जाते की तंदुरुस्ती और उसकी साहित्य समाज में इज्जत पलभर में तौलकर आज साहित्य में बड़ा नाम कमाए हुए है।
२. दूसरी जुगत है सम्पादक बनकर हर ऐंडे बेन्डे नवेले नवेलियों को छाप देना। जैसा कि हमारी उपकार गाइड को पढ़नेवाले छात्र जानते होंगे कि भारतवर्ष का प्रत्येक युवा जवानी जागते ही अपने कौमार्य से छुट्टी पाना चाहता है और कहीं छपना चाहता है तो यदि आप मीडियाकर लेखक है और महान बनने को मचल रहे है तो कहीं भी सम्पादक बनकर युवा युवतियों को छापिए। युवा आपके गुण गावेगा और आगे चलकर अगर सरकारी सेवा में चला गया तो ज़िंदगी भर मुफ़्त की दारू भी पिलाएगा और युवतियों का कहना ही क्या।
इसे साहित्य में इज्जत पाने की सम-पादन प्रणाली कहते है जब साहित्यकार सबकी दुर्गंध को समान मानकर अच्छे बुरे में भेद नहीं करता और सबको छापा करता है छापा करता है।
सरकारी अफ़सरों को छापने का इसमें एक अलग फ़ायदा है- जैसे गाय पालने पर दूध तो दूध गोबर का भी नफ़ा। एक फ़ायदा यह भी है कि कोई रचना पसंद आने पर उसे हेरफेर के साथ फिर से लिखना और अपने नाम से छपवा लेना और भेजी रचना लौटाकर अपनी गम्भीर सम्पादकी का परिचय देना।
३. तीसरी जुगत है सरकारी अफ़सर बन जाना। मेहनत हालाँकि इसमें बहुत है। लेखक तो कम पढ़कर और कवि तो केवल फ़ेस्बुक पढ़कर बना जा सकता है मगर अफ़सर बनने के लिए उपकार गाइडें पढ़े बिना निस्तार नहीं— फ़ायदे तो बहुत है और सबसे बड़ा फ़ायदा है साहित्य में इज्जतप्राप्ति। अफ़सरी साहित्य में त्वरित स्थापित होने का अचूक नुस्ख़ा है। प्रत्येक अफ़सर सेवा निवृत्ति तक श्रेष्ठ साहित्यकार माना जाता है उसके बाद वह जिस भी शहर में उसने मकान बनाया है वहाँ के लोकल कार्यक्रम अटेंड करते हुए अपना बुढ़ापा काटता है।
तो हमने यह तीन जुगत और गुट में शामिल होने की अटूट युक्ति आपके आगे पेश की, साहित्य में इज्जत पाने के यह केवल साढ़े तीन तरीक़े है। जो किसी चौथे तरीक़े की वार्ता करते है उन्हें अपना दुश्मन जानिए, वे खुद बड़ा बनकर आपको हमेशा छुटभैया देखना चाहते है।
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सत्यमेव जयते - 2 एकदम बकवास, घटिया और निहायत ही वाहियात फ़िल्म है
बिल्कुल ना देखें
( टेलीग्राम पर देखी )
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