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Khari Khari, Chinmay Sankrant, Is Love enough Sir, Ynioun Leader and Firnagi , Tandav Posts and kalyani, Mithilesh's new book from 6 to 20 Jan 2021

 पिज्जा को दांत से चबाते हुए सोचा

कि दुनिया को पिज्जा की तरह
नरम और स्वादिष्ट होना चाहिए
- महामात्य उवाच
[ - केदार जी से माफी सहित ]
*** पित्ज़ा की जगह आप किसान भी कह सकते है
***
लो जी
तांडव का प्रचार हो गया और बढ़ेगी टीआरपी
एक घटिया सीरियल के प्रचार में मेरा भी योगदान है
राजनीति तो पूरी टीम करना ही चाह रही थी ताकि प्रचार हो, माल बिके और निश्चित ही पूरी टीम इसके लिए बधाई की पात्र है
लेखक निर्देशक और बाकी रिटायर्ड कचरा भी खप जायेगा अब और देखिये जल्दी ही सीजन 2 शुरू होगा
राम, राम , हे राम - क्या हो गया है इस देश को यह नही कहूँगा बल्कि यह कहूँगा कि क्या नही हुआ इस देश को
***
ई कोरोना के चक्कर में पृथ्वी का आधा अदरख, लहसन, गिलोय, चिरायता, दाल चीनी, तुलसी पत्ता, काली मिर्च और लौंग खा गया, काढ़ा बनाकर समुद्र खाली कर दिए और कोरोना से बचा रहा और अब दवाई आ गई तो जिल्ले इलाही कह रहे कि दवाई भी कड़ाई भी
अबै कितना बेवकूफ बनाएगा - थाली, झाँझ, मजीरा, ताली, मास्क से लेकर तमाम प्रपंच और अब फिर दवाई - कड़ाई
कितना मजाक करता है अपना पीएम , सच मे वर्ल्ड क्लास है लीडर, हमें तो लगा था कि ट्रम्प है सबसे बड़े वाला पर आज इसने प्रवचन में साबित कर दिया फिर से तभी यूके वाले ने 26 जनवरी को आने से ही मना कर दिया
ससुरे क्या पानी पिला रहें है , मैं तो कोई नी लगवा रहा, मेरा बाप नई लगवाये - टीका, फीका
***
दो कौड़ी का घटिया #तांडव निहायत ही उबाऊ, बचकाना और सस्ता सीरियल
शी, आश्रम, भौकाल, दिल्ली क्राइम, सेक्रेड गेम्स, तलाश, लाखों में एक, मिर्जापुर या बाकी और इससे हजार गुना बेहतर है- ना राजनीति, ना गुंडागर्दी, ना गालियाँ, ना कहानी, ना अभिनय, ना निर्देशन, ना फ्लो, उजबकों ने कन्हैया, शेला राशिद, उमर और जेएनयू की कच्ची पक्की कहानी को आधार बनाकर जबरन पेल दिया: विडंबना यह है कि सेफ अली और डिंपल कपाड़िया के होने से सारा कचरा सोना हो जाएगा क्या
मतलब आर्टिकल 15 की समीक्षा मे भी लिखा था कि निजी जातिगत फ्रस्ट्रेशन, व्यक्तिगत अपराध बोध और निजी साहित्यिक पहचान हिंदी में न मिल पाने का अवसाद और तनाव कम से कम सीरीज लेखन में नही झलकना चाहिये - इसका जितना प्रचार किया या हो रहा, उसकी तुलना में यह सीरीज दो कौड़ी की भी नही है, बेहद सस्ते डायलॉग और परिपक्व राजनैतिक समझ ना होने से लेफ्ट को गलियाने से जातिवाद के दंश और अपराधबोध कम नही होते, यह समझ नही है किसी की तो - इतना बड़ा चुतियापा काटकर वितान रचने की ज़रूरत नही है
गौरव सोलंकी की कहानी और अली अब्बास ज़ाफ़री पर सच में तरस आता है और #अमेज़ॉन ने क्या सोचकर यह मूर्खतापूर्ण जोखिम उठाया होगा; उफ़्फ़, महाबोरिंग और एकदम कच्चा आख्यान, जैसे बीए प्रथम वर्ष के छात्र को अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में "आधुनिक हिंदी कविता के विकास में तृतीय सप्तक के पाथेय कवियों के अनुशीलन" , पर बोलने को कह दिया जाए - और अंत मे वह जो गुड, गोबर और गौमूत्र करेगा उसका कुल जमा है - "तांडव"
बिल्कुल मत देखिये
***
भूल ही गया था बताना कि कल्याणी आई थी, हम सबसे मिली और आज ही बैंगलोर लौट रही है
जर्मन भाषा की विदुषी और सहज सरल दोस्त, पारिवारिक मित्र और बेहतर सहयोगी बैंगलोर जैसे शहर में संकटमोचन की भूमिका निभाने वाली, हमारे अरुण डीके काका की हुशियार मुलगी
लगभग 15 साल बाद मिला मैं तो, मज़ा तो आया पर मेरे हाथ का बना कुछ खाया नही, कलापिनी ने इतना खिला दिया शायद कि शाम तक बंदी ने मुंह नही खोला एक बार भी , खैर बैंगलोर में जाकर धमकता हूँ अब और वही रसोड़ा शुरू करता हूँ
आती रहो, ख़ुश रहो और स्वस्थ और मस्त रहो, तुम जैसे दोस्त ही ताकत है मेरी
❤️❤️❤️💖💖
साथ मे थे अरविंद, अनु, शोभा और बाली
***
Book on the table
मिथिलेश कुमार राय समकालीन परिदृश्य में इकलौते ऐसे कवि है जो घर, खेत, पेड़ पौधों, पत्नी, भोजन, पिताजी के बहाने अपना कविता संसार रचकर बड़ी बात कहते है
बिहार के सुपौल जिले के दूर दराज इलाके में रहने वाले और अध्यापकीय पेशे में वे बेहद संतुष्ट और सात्विक कवि है जो साहित्य की राजनीति में ना पड़कर रचना कर्म पर पूरा ध्यान केंद्रित करते है
उनकी कविता का संसार जीवन की संगति और विसंगतियों से भरा हुआ है, अपने आसपास के परिवेश से वे बिम्ब, मुहावरे चुनकर एक बड़ा वितान रचते है वरिष्ठ कवि मदन कश्यप जी ने सही कहा है - ब्लर्ब में "मिथिलेश के कहन का यह नया ढंग यथार्थ की नई समझ के चलते ही आया है, निसंदेह लोक अस्मिता कि नई पहचान के कारण युवा कवि का यह संग्रह अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करने में सफल होगा"
यह कहना समीचीन होगा कि इस चाचू के लाड़ले मिथिलेश को कवि के रूप में विकसित होते हुए देखते हुए मुझे लगभग 30 वर्ष हो गए हैं और इस दौरान तीन दशकों की लंबी काव्य यात्रा का मैं साक्षी रहा हूं " ओस पसीना बारिश फूल " पहला कविता सँकलन है जो सराहा गया है वृहद स्तर पर और इनकी एक कहानी पर बनी फिल्म "द इंडियन पोस्ट ग्रेजुएट " इन के प्रमुख कार्य हैं, आज फक्र होता है इस स्थापित कवि पर
इस संकलन की कविताएं लगभग पढ़ी हुई है, पर उन्हें दोबारा पढ़ना अपने आप में एक सघन अनुभूति है - जो हमें यह बताती है कि हमारे आसपास की छोटी - छोटी चीजें जब कविता में आती हैं तो हमें कितनी सांत्वना देती हैं, कितना सुकून देती है और कितना अच्छा लगता है जब दाल - भात, बच्चे, बाजरे की रोटी या अलग-अलग त्योहारों पर बनने वाले पकवान, मां के हाथ से लिपा हुआ आंगन, तुलसी का कोना, गांव की अल्हड़ महिलाएं, कामगार, मजदूर, स्कूल की छुट्टी या कक्का जी की बातें कविता में आकर खिल खिल जाती है तो कविता मुस्कुराती है और कैसे ये सब इतिहास में अमर हो जाती हैं
मिथिलेश "कक्का कह रहे थे" एक स्तंभ भी अखबारों में लगातार लिखते हैं, जिसमें वे अपने आसपास के लोक जीवन की व्याख्या भी करते हैं, छोटी कहानियों के माध्यम से समाज की बातों को भी उजागर करते हैं, इस अरचनात्मक समय में मिथिलेश जैसे युवा कवियों का पद्य और गद्य पर समान अधिकार होना एक आश्चर्य ही है
दुनिया में मुझे "चाचू" पुकारने वाले एकमात्र लाड़ले मिथिलेश के लिए बहुत स्नेह और दुआएं कि वे लगातार लिखते रहें, रचते रहें और हमें उस संसार में ले चले - जो हमारे आस पास जरूर है पर हमारी दृष्टि से ओझल है
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● पुस्तक - धूप के लिए शुक्रिया का गीत तथा अन्य कविताएँ
● कवि - मिथिलेश कुमार राय
● प्रकाशन वर्ष - 2020
● प्रकाशक - अन्तिका प्रकाशन, गाजियाबाद
● मूल्य - ₹ 475/- मात्र
● कुल कविताएँ - 193
● कुल पृष्ठ - 192 (मुख्य पृष्ठ और हार्ड बाउंड छोड़कर)


***
चिन्मय चिरजीवी हो
◆◆◆
तीन दिन में दो फिल्में "चौसर फिरंगी" और "यूनियन लीडर" देखी अमेज़ॉन पर
दोनों ही फिल्में अलग मिज़ाज की है फैक्ट्रियों की दुर्दशा और पीसते मजदूरों की व्यथा कथा यूनियन लीडर में है राहुल भट और तिलोत्तमा शोमे और जयेश मोरे का अभिनय प्रभावी है और निसंदेह संजय पटेल जो खुद कारोबारी देश विदेश में रहें है और मजदूरों की समस्या से वाकिफ़ है, का निर्देशन उत्कृष्ट है
युवाओं की आधुनिक बाज़ार में आसक्ति,शौक और फिर उसमें फंसने की कहानी है चौसर फिरंगी जिसमे एक रात की कहानी है जो एक औसत शहर में घटित होती है इस मुख्य कहानी में कई कहानियां समानांतर चलती है जो महानगरीय संस्कृति, बदलते मूल्य, व्यवस्था, पुलिस, युवाओं की हसरतें और स्थानीय राजनीतिज्ञों की कहानी है जो कुल मिलाकर षड्यंत्र और उपयोग करने के बाद फेंक देने की प्रवृत्ति को इंगित करती है, अमोल देशमुख, रेखा मिश्रा,सारिका नायक, पूजा पांडेय, हंसा सिंह और प्रतीक पचौरी जैसे बेहद साधारण चेहरों को लेकर संदीप पांडे ने बेहतरीन काम करवा लिया
अच्छी बात यह है कि दोनो फिल्मों का लेखन भोपाल के युवा मित्र और माखनलाल पत्रकारिता विवि तथा फ़िल्म इंस्टिट्यूट पूना से शिक्षित
Chinmay Sankrat
ने किया है, चिन्मय भोपाल में रहते है और इन दिनों आदिवासी क्षेत्रों में कुछ काम करके नया सामने लाने जा रहें है, मित्र चिन्मय से जब बातें हुईं तो वे डिंडौरी में थे और कल लौटकर उन्होंने अपने नए प्रकल्प की जानकारी दी
कम बजट की थीम आधरित फिल्मों के साथ जोखिम तो होते है क्योंकि इनमें वो मसाले नही जो व्यवसायिकता को मद्देनजर रखकर बनाई जाती है पर अच्छी बात यह है कि इन्हें ओटीटी पर अच्छा प्रतिसाद मिल रहा है
जरूर देखें, चिन्मय के लिये सुकामनाएँ और स्नेह कि यूँही भाषा को और सँवारकर नई और सोच विचार की फिल्में हमें दें ताकि हम लोग उन्हें देखकर नई बनती बिगड़ती दुनिया और जीने के लिए जद्दोजहद कर रहें लोगों के बरक्स अपने जीवन को थोड़ा बेहतर करने की कोशिश कर सकें
***
कल सुप्रीम कोर्ट ने कृषि बिलों पर जो भी, जैसा भी निर्णय दिया - अपने लाड़ले, वफादार, निष्पक्ष, जांबाज़ और सेना के जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ने चीन और पाकिस्तान के डर का ख़ौफ़ वाला खेल शुरू कर दिया - बाय द वे आप लोग क्या कर रहे थे अभी तक यदि यह सब हो रहा था
अरे जनरल साहब, अपनी आत्मा की आवाज सुनो, कब तक नागपुरी संतरों की बात मानकर भेड़िया आया, भेड़िया आया की कहानी सुनाते रहोगे
हद है, इतने दिन कुछ नही किया चीन और पाकिस्तान ने, अब 26 जनवरी आ रही और किसान जाने को तैयार नही, ट्रैक्टर रैली आपके टैंक्स के समानांतर निकालेंगे तो चीन पाकिस्तान दिखने लगा, मुझे लगता है वे दोनो देश ताज़े मटर की कचोरी खा रहे थे और बर्फ में घुसकर सेल्फी ले रहे थे बस आपके उदगारों का ही इंतज़ार कर रहें थे सम्भवतः - मतलब बड़े हो जाओ भिया, कठपुतली होने का हश्र मनमोहन सिंह जी से पूछ लो - अब देश मे झुनझुने नही बिकते
कहाँ से लाते हो बै बेईमानी और कमीनगी - सबके सब नेताओं, न्यायाधीशों, मीडिया के दलालों, बड़े अधिकारियों बोलो - बचपन से ही गोबर एवं गौमूत्र का सेवन कर रहें हो या 2014 से घर पहुंच सेवा का निशुल्क लाभ ले रहे हो
इतना बेवकूफ समझते हो क्या देशवासियों को या खुद आप शुक्र या मंगल ग्रह से टपके हो गुरुजी - जिसकी भावनाएँ आहत हो रही है वे जरा बड़े हो जाये, सेना के जवानों के लिए प्यार सम्मान है पर इस तरह के अधिकारियों के लिये कोई सहानुभूति नही है
***
आठ दस साल बाद लॉ पढ़ने वाले विद्यार्थी यकीन भी नही करेंगे कि देश मे संविधान, सुप्रीम कोर्ट, लोकसभा - राज्य सभा या विधानसभा जैसी विधायिका भी है और 150 करोड़ लोग विशुद्ध मूर्खतापूर्ण तरीकों से दो - तीन लोगों को खुदा मानकर अपना दिल दिमाग़ ख़ौफ़ से गिरवी रख देते है, प्रशासन नाम का एक नपुंसक तंत्र मौजूद है, वे यह मान लेंगे कि कोई उचक्का या कारपोरेट इस देश का सर्वेसर्वा है जो प्रधान मंत्री से लेकर राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट और पूरे प्रशासन को जेब मे रखकर चलता है
पर मेरा आखिरी सवाल क्या उस समय कानून की ज़रूरत भी होगी यदि नही तो साला कानून पढ़ने की ज़रूरत ही क्या होगी
No need to know Law of the Land,
only know Lion of the Land
***
खत्म होते दिनों की पीड़ा, संत्रास और त्रासदी है ये जब सब छूट रहा है - पर 'भला हुआ जो मेरी गगरी फूटी', की तर्ज़ पर मोहमाया के बंधन टूट रहें है - दुआएँ कि जहाँ हो जैसे हो जिसके भी साथ हो "क्रांति करो", कभी सीखा था कि एक दो लोगों से ज़्यादा हम किसी और के साथ घुल मिल नही पाते - मान सबको लेते है पर "जानना" एक दो तक ही सीमित रहता है, अफ़सोस ....
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चलते चलते वो भी आख़िर भीड़ में गुम हो गया
वो जो हर सूरत में आता था नज़र सब से अलग
सब की अपनी मंज़िलें थीं सब के अपने रास्ते
एक आवारा फिरे हम दर-ब-दर सब से अलग
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सरमद सहबाई
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तिलोत्तमा शोमे, विवेक गोम्बर जैसे मराठी चित्रपट के मंजे हुए कलाकार और रोहेना गैरा द्वारा निर्देशित फिल्म " इस लव इनफ़ सर " - सिर्फ फिल्म नहीं, बल्कि मुंबई के जीवन में एक अमीर उद्योगपति और कामकाजी घरेलू नौकरानी महिला की प्रेम कहानी है और यह कहानी इतनी बारीकी से गूँथी गई है कि कल्पना करना मुश्किल है यह फ़िल्म है; यह सम्भव ही नही कि आप एक सेकेंड के लिए भी यहां वहां विचलित हो
रोहेना गैरा ने इस फिल्म को इतना खूबसूरती से निर्देशित किया है कि लगता ही नहीं किया फिल्म देख रहे हैं - बल्कि लगता है कि एक पूरा जीवन है जिसके साथ आप एकाकार हो गए हैं, आप उस छोटे से फ्लैट, दो मुख्य किरदार और दो तीन सह अभिनेता - अभिनेत्रियों के साथ संग संग खड़े हैं और यह सब घटित होते हुए देख रहे हैं
एक पुरुष है जिसकी शादी टूट गई है शादी के दिन ही फ्लाईट कैंसल कर घर लौट आया है, घर में काम करने वाली गांव की एक जवान विधवा नौकरानी है और सन्नाटों के बीच खाना लगा दूँ, चाय बना दूँ जैसे चंद वाक्यों से शून्य टूटता है, नौकरानी सिलाई सीखना चाहती है और सर उसे इजाज़त देते है, वह उत्साह में है सीखती है और इस बीच प्रेम की एक डोरी है जो उन दोनों के बीच में कैसे शुरू होती है, कैसे बढ़ते जाती है सघन होकर कब उस फ्लैट में पल्लवित होती है और अंत में कैसे खत्म होती है
महिलाओं की व्यथा, आर्थिक ज़रूरतें, मजबूरियां, परिवार की अपेक्षाएं, रीत रिवाज़ और विधवा महिलाओं की समाज मे दशा को बहुत बारीकी से बुना गया है और उसके ठीक विपरीत शहर के लड़कों के आज़ाद ख्याल और महिलाओं को आगे बढ़ाने में उनका सकारात्मक नज़रिया महानगरों के उन्नत दिमाग़ की कहानी बयां करता है
मुझे विश्वास नहीं था कि नेटफ्लिक्स जैसे माध्यम पर इतनी खूबसूरत फिल्म उपलब्ध होगी, जरूर देखी जानी चाहिए, मुम्बईया फ़िल्म कलाकार इसे अभिनीत करते तो वह असर नही आता जो नाट्य जगत के मंजे हुए मात्र दो कलाकार कर पाएं है, लगभग एक घण्टा तैंतीस मिनिट की यह फ़िल्म आपको एक अनूठे जगत में ले जाती है - आप अपनी साँसों को सम्हालकर फ़िल्म के साथ चलते है और अंत में जब आँसू आने को ही होते है तो होठों पर हल्की सी मुस्कान आ जाती है
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और पप्पू पास हो गया
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मराठी में एक कहावत है "नकटी च्या लग्नाला सत्रा विघ्न " - 52 की जवान उम्र में लॉ करने के लिये एडमिशन लिया तो कई प्रकार की दिक्कत है आ रही है, पहला वर्ष तो पास हो गया दोनो सेमिस्टर
फिर विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन ने तीसरे सेमेस्टर में एक विषय में फेल कर दिया और वह विषय था - संविधान का इतिहास, जिस विषय पर मैंने कई मित्रों के साथ मिलकर छोटे-मोटे आलेख और पुस्तकें लिखी है, वर्षों से संविधान पर काम कर रहा हूँ , पर्चे, आलेख, मॉड्यूल लिखे हैं ; आखिर में पुनर्मूल्यांकन करवाया तो 21 नंबर बढ़ गए यह एक आश्चर्य था - मेरे साथ में कई लोगों के 51 नंबर तक बढ़े इसका अर्थ यह है कि विश्वविद्यालय में भांग पीकर कॉपी जाँची जाती जाती है, खैर पास हुआ
चौथे सेमेस्टर की परीक्षाएं हुई तो मेरा रिजल्ट रोक लिया - आखिर तीन-चार दिन की मेहनत के बाद और महाविद्यालय विश्वविद्यालय में जाने के बाद अभी परिणाम घोषित हुआ है जिसमें चौथा सेमेस्टर पास घोषित हुआ हूं
इस तरह से अपने फ्रोजन शोल्डर, शुगर और बीच में हुई दिल की बीमारी के साथ लॉ का दूसरा साल संपन्न हुआ, अब एक साल और बचा है - देखें कि दुनिया में श्रेष्ठ सौ विश्वविद्यालयों में रैंक लाने की तमन्ना रखने वाले मानव संसाधन मंत्रालय और यूजीसी के विश्वविद्यालय कितना दम भरते हैं
विधिवत मैंने 1989 में अँग्रेजी साहित्य से मास्टर्स करने के बाद महाविद्यालय छोड़ दिया था, बाद में समय-समय पर अनेक प्रकार की (एम फिल, बी एड, एम एड, रूरल डेवलोपमेन्ट, सोशल वर्क और अनुवाद आदि की) डिग्रियां और शोध का कार्य पूर्ण किया Sabbatical ले लेकर, पर तब विश्वविद्यालयों का स्तर इतना गिरा हुआ नहीं था
आज अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि तमाम डिजिटलाइजेशन, सुविधाएं और तकनीक होने के बावजूद भी विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में दोनों का स्तर, प्रबंधन, व्यवस्थाएँ निम्न से भी निम्न स्तर का हो गया है - पूरे कुएं में भांग पड़ी हुई है, कहीं कोई जिम्मेदार व्यक्ति नहीं है , कोई किसी की सुनता नहीं है , स्टाफ बहुत कम है, जो है वो ठेके पर है और निहायत ही अक्षम और अयोग्य है [ और उसके कारण भी बहुत स्पष्ट हैं ] साथ ही किसी की किसी के प्रति जवाबदेहिता कहीं पर भी नहीं है - चाहे वह महाविद्यालय हो, विवि या उच्च शिक्षा विभाग
जैसे तैसे यह कोर्स हो जाये तो जान बची और लाखों पाएं, यह अकारण नही है कि देश का बड़ा वर्ग इन सब कारणों की वजह से ही निरक्षर रहना पसंद करता है और सबसे मजेदार यह है कि ये पूरा गड़बड़ झाला देश के सबसे ज़्यादा शिक्षित और घटिया लोगों का फैलाया हुआ है हर स्तर से, राजनीतिज्ञ बेचारे इन शिक्षितों के कुकृत्यों को कभी समझ भी नही पाएंगे
बहरहाल, "जॉली एलएलबी" बनने में एक साल और है अभी
यह पोस्ट ज़िम्मेदारी से लिखी है जब देख रहा हूँ कैसे 19 से लेकर 28 वर्ष तक के युवा विवि और महाविद्यालयों के दुष्चक्र में फंसकर रुपया, समय और जीवन गंवा देते हैं और किसी पापी को सजा नही मिलती बल्कि प्रोन्नति और प्रतिफल पाकर ये और मुस्टंडे हो जाते है
I seriously recommend to appoint the Hitlers as VC in Universities in stead of Professors. Due to this discrepancy, we are having worst administrators and lost best academicians in educational fields.

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