सुर्ख लाल गुलाब का महंगा फूल और बच्चें
बीच में पुण्य सलिला नर्मदा नदी है जो कल कल बह रही है नदी के दोनों तरफ गांव है दूर तक फैली हुई हरियाली और खेत में बीच-बीच में कहीं से हंसी की आवाज सुनाई देती है , पानी के कल कल की आवाज के साथ जब हंसी की आवाज मिल जाती है तो लगता है कि संसार का सबसे सुमधुर संगीत यही है - सबसे ज्यादा शांति और सुकून यहीं है और दूर आसमान तक देखे तो लहलहाती फसलों की हरियाली मन को मोह लेती है
खेतों में थोड़ा अंदर घुस कर देखें तो सफेद सोना झूम रहा है, सोयाबीन की बालियां झूम रही है और लगता है मानो यह दृश्य आंखों के सामने हमेशा के लिए थम जाएं - परंतु थोड़ा और अंदर घुसते हैं पता चलता है कि कपास चुनने के लिए बच्चों की एक लंबी फौज खेतों में टूट पड़ी है - फटे हुए कपड़े, बेतरतीब से बाल, पपड़ी जमे होठ, महीनों से दांत साफ नहीं किए, पूरे हाथ और पांव पर धूल की मोटी परत है , आंखों में उदासी और हाथ के पंजे लहूलुहान हैं और वे कपास चुन रहे हैं
यह गंगा है और इसके दो भाई - भीमा और सुमलिया भी खेत की इसी बागड़ पर कपास चुन रहे हैं , तीनों भाई बहनों में मुश्किल से एक डेढ़ साल का अंतर होगा - गंगा जहां 10 साल की है वही भीमा और सुमलिया 8 और 7 साल के हैं तीनो भाई बहन को देर शाम को जब खेत का मालिक सौ सौ रुपए हाथ पर टिकाता है तो तीनों की आंखों में प्रकाश के पूंज जल उठते हैं - खेलते कूदते हुए, भागते दौड़ते हुए वे घर आते हैं और तीन-चार किलोमीटर का रास्ता कब निकल जाता है , मालूम नहीं पड़ता . घर आकर हुए 300 रुपये अपने मां-बाप को दे देते हैं . पिता अपाहिज है दोनो पांवों से चल भी नही सकते , मां का एक पांव खराब है और बाया हाथ लकवा ग्रस्त है, गंगा थोड़ी देर बैठती है और बाद में पास के किराने की दुकान से जाकर अनाज ले आती है - कभी मक्के की लापसी बनती है , कभी रोटी दाल, कभी सब्जी रोटी और ख़ाकर सो जाते है सब , सुबह उठकर तीनो भाई बहन फिर खेत में निकल जाते हैं दिनभर अपाहिज मां-बाप घर में रहते है, इधर उधर सरक सरक कर काम करते हैं मां किसी तरह खाना बनाती है और पिता दिन भर बैठ कर बांस की टोपली बुनते हैं जिससे पचास साठ रुपए हाथ में आ जाए
एक बड़ा सा कमरा है जिस पर टूटी खांट है सामान है कुछ और कमरे में कच्ची दीवारों तीन किलों पर तीन बस्ते टँगे है जिनमे कुछ किताबें है, कुछ कोरी कॉपी, पेन पेंसिल पर रंगीन मोम चाक नही है - क्योकि सफेद कपास चुनते चुनते तीनों बच्चों की जिंदगी के रंग उड़ गए है
यह अमूमन हर ग्रामीण इलाके की कहानी है , मुझे याद है जब हम स्कूल में थे तो दो भाई श्याम और लीलाधर भी महीनों स्कूल नही आते थे और जब आते तो पूरी कक्षा उन्हें अचरज से देखती क्योकि वे हर बार और दुबले या कृशकाय होकर आते, पूछने पर वो बताते कि माँ के साथ अमरूद के बगीचे में गए थे, जामुन बीनने गए थे, खेत मे निंदाई गुड़ाई करने गए थे. एक बार बाल दिवस पर राजवाड़े के स्कूल में - जिसे न्याय मन्दिर कहते थे, बाहर से कोई अधिकारी आये थे, चाचा नेहरु की सब बात कर रहे थे, सब बच्चों को अधिकारियों को सुर्ख लाल गुलाब देने को कहा गया, उसमे लीलाधर को भी पुकारा था, उस दिन लीलाधर नहाकर साफ कपड़े पहनकर आया था, फूल लेने के बाद उस अधिकारी ने लीलाधर से नाम पूछा तो वह शर्मा गया पर अधिकारी महोदय ने जिद से उसका हाथ पकड़ लिया और नाम पूछता रहा .
सज्जन सिंह जी हेड मास्टर थे - उन्होंने लीलाधर को दस पैसे का सिक्का दिखाया और कहा कि आज तुम भाषण दो, लीलाधर शर्माया, फिर सिक्का घूरता रहा और अचानक हेड मास्टर से सिक्का हाथ मे लेकर दृढ़ता से खड़ा हो गया और बोला कि "इतने सारे बच्चों में ऐसा क्यों है कि हम सात आठ ही स्कूल नही आते, कभी किसी ने यह नही पूछा, हम दोनों भाई और शकील, धर्मेंद्र के साथ दूसरी कक्षाओं के कितने ही बच्चे - जो दोस्त है, स्कूल ना आकर एमजी रोड की किराना दुकानों में, पुराने पत्ती बाजार की होटलों में और आसपास के खेतों में काम करने रोज जाते है - ये जो लाल फूल अभी मैंने इन साहब को दिया बहुत महंगा फूल है, मेरी माँ इसे बीस पैसे में खरीदती ही और इसका हार बनाकर बेचती है वो हार भगवान जी को चढ़ाते है और मजार पर भी लोग चढ़ाने को ले जाते है पर ये फूल तोड़ते समय मेरे हाथ मे बहुत कांटे गड़ते है, अमरूद या जामुन तोड़ते समय कितनी ही बार मैं और श्यामू गिर गए - हड्डियां टूट गई पर फिर भी हमे काम पर जाना पड़ता है क्योंकि रोज जो रुपये आते है उसीसे हम सामान खरीदकर खाना बनाते है नही तो भूखे सोना पड़ता है...लीलाधर बोल रहा था - हम बच्चों को तो समझ नही आ रहा था पर कुर्सी ओर बैठे सारे अधिकारी चुप थे, सभी शिक्षिकाएं जो बेंच पर बैठी थी - रोये जा रही थी और अचानक हेड मास्टर साहब अपनी जगह से उठे और लीलाधर को गोद मे ले लिया और एक रुपये का कड़क नोट निकालकर उसके हाथ मे धर दिया और हम सबसे मुखातिब होते बोले "अब आज के बाद किसी बच्चे को ना डाटूंगा, ना कुछ कहूंगा पर सिर्फ एक बात कहना चाहता हूँ कि पढ़ाई के रास्ते पर चलकर ही हम सब मुसीबतों से पार हो सकते है"
लीलाधर और श्यामू कहां रह गए - उनका क्या हुआ नही मालूम पर जब से होश सम्हाला और काम कर रहा हूँ हजारों स्कूल देख चुका हूँ, लाखों बच्चें भी पर स्कूल के बाहर ही बच्चे ज्यादा दिखें काम करते हुए - सुकमा में, तवांग में, लेह में, बनासकांठा में, मलकानगिरी में, मंडला में, बाड़मेर में, अमेठी में, अनंतपुर में, वीरप्पन के सत्यमंगलम में , मधुबनी में, त्रिचूर में या वारंगल में - हर जगह हंसते खेलते काम पर काम किये जा रहे बच्चे - जबकि हमारे संविधान में बच्चों को लेकर इतने कानून है कि उन्हें पढ़ने - समझने बैठे तो एक उम्र कम पड़ जाएं पर फिर भी आज गंगा, भीमा और सुमलया को खेतों से कपास चुनना पड़ रहा है, हर उस बच्चे का नाम कही "छोटू, बारीक और अबे ओए" में खो गया है
राष्ट्रीय शिक्षा दिवस हो या बाल दिवस बदस्तूर 1947 से मन रहें है - बड़ी बड़ी संस्थाएं काम करती है पर लीलाधर जैसा भाषण नही दे पाती और ना ही वो एक रूपये का कड़क नोट अब कही दिखता है
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