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अंडा , मादी और अन्य पोस्ट्स Oct End 2019

बुजुर्गो के आशीर्वाद और परम पिता परमेश्वर की असीम कृपा से मेरे द्वारा दिया गया सोनपपड़ी का डब्बा सकुशल आज मेरे घर वापस लौट आया है बगैर खुले - उसी बदबू और चीकट एहसास के साथ
सात वर्ष पुराने इस डिब्बे को पुनः हाथों में पाकर मेरी घ्राण इंद्रियां प्रसन्नता से पागल हो रही है, अब इसे अगले वर्ष के लिए सुरक्षित रख रहा हूँ, आपकी दुआओं का तलबगार हूँ - इस डिब्बे को अपने रहमो करम और आशीष से नवाजियेगा जरूर
आप सबकी दुआओं, प्रार्थनाओं और सम्बल के लिए आभार

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पेज थ्री की माद्री बनाम एनजीओ की राजनीति
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35 साल के अनुभव से कह सकता हूँ कि जिन भी एनजीओ को महिलाएं चलाती है - उनमें से 70 % बेहद घटिया किस्म के है, वहां सेटिंग, भ्रष्टाचार , विदेशी ग्राहकों के विजिट और चैरिटी के अलावा कुछ नही होता
मप्र में ऐसे ढेर एनजीओ है जिनकी सरगना महिलाएं है और वे निहायत सिरफिरी, अपराध बोध से ग्रस्त, महाभ्रष्ट और हर तरह के काम और अनुदान के लिए कुछ भी करने वाली और शरीर से लेकर संबंधों को सीढ़ी बनाने वाली होती है - दर्जनों नाम मय प्रमाण के गिनवा सकता हूँ
हनी ट्रेप और मादी शर्मा इसके उदाहरण है, दो बड़ी एजेंसियों में राज्य प्रमुख रहा हूँ जो फंड बांटती थी, तो दर्जनों महिलाएं लिपिस्टिक चोपड़कर रोज चली आती थी, फैब इंडिया के कपड़े पहने, माथे पर बिन्दा लगाए, डेढ़ किलो मेकअप और मच्छर मार डियो छिड़ककर , अभी भी जो बैठी है राज्य में वो कम नही है - दलितों के नाम पर आई फेलोशिप 70 के बुड्ढों को, बामणों, पड़ोसियों को बांट देती है , ये जेंडर के नाम पर उछलकूद करने वाली अधिकांश एकल, विधवा, परित्यक्त और अकड़ में रहने वाली महिलाएं है जो हर तरह के सेटिंग में माहिर है, बहुतों ने विदेशी फंड हथियाकर बड़ी - बड़ी बिल्डिंग बनवा ली और कार्यरत लोगों को हकालकर कब्जा कर लिया और व्यक्तिगत जीवन में अपने ही परिवार बर्बाद कर भी इनका पेट नही भरा है
विपरीत इसके 30 % बेहतर महिलाएं भी है जो सच में जमीनी काम कर रही है - उनको सलाम, पर एनजीओ की दुकानदारी में महिलाओं के किस्से कम नही और देश भर में भूख के नाम पर पंचायत और महिला सशक्तिकरण के नाम पर दिल्ली के गलियारों में, राजनयिकों और चाणक्य पूरी के दफ्तर इनसे आबाद भी रहते है
नोट - जिस महिला और महाज्ञानी कुंठित पुरुष को एनजीओ का ज्ञान और समझ नही वो यहां बकवास करने नही आये - खासकरके हिंदी की महिला कवि, गैंग चलाने वाली लठैत कवियित्रियाँ जिन्हें आता ना जाता और भारत माता बनी फिरती है, नामजद सबूत और एनजीओ की हरकतें है मेरे पास, अस्तु हिंदी साहित्य की महिला कवि, बालाएं और सबलाएँ, बलाएँ दूर रहें - दिल्ली की भी वरना उनकी किटी पार्टी को उघाड़ना पड़ेगा
सम्पादित कर लिख रहा हूँ कि यह जेंडर की पोस्ट नही है, सत्ता और ताकत अर्थात पॉवर की पोस्ट है, चुनाव में महिलाओं और युवा लड़कियों को प्रेस कांफ्रेंस से लेकर केनवासिंग तक मे यूज़ किया जाता है - वह किसी को मालूम है, सत्ता के खेल में क्लोनिंग या बाकी खेल से वाकिफ है क्या और कितनी महिलाओं को एनजीओ के खेल, अनुदान, रिपोर्टिंग, और पुनः रिन्युअल से वास्ता पड़ा है - माफ कीजिये - यह महिला पुरुष का नही, जेंडर पूर्वाग्रहों का नही, बल्कि सत्ता समीकरण और पावर डायनामिक्स का षड्यंत्र है और उपर लिखा है कि जिसकी समझ नही वे नाही बोलें तो बेहतर है - सशक्तिकरण, अनुदान, राजनीति और ये सेटिंग अलग बात है , एक मादी शर्मा ने पीएमओ, सेना, मीडिया और पूरे कश्मीर को मैनेज कर 23 लोगों को कड़ी सुरक्षा में ले आई, शिकारों में सैर करवाकर वापिस भी भिजवा दिया - यह समझ नही आपकी तो आप या तो धूर्त है या भोले भंडारी - किसी में दम हो तो मिलवा दें मोदी से या घूमवा दें कश्मीर मुझे - बात करते है
मेरी समझ पर प्रश्न उठाने से पहले अपने गिरेबाँ झांक लें या फिर आपके चिठ्ठे यहां नाम सहित जाहिर करना होंगे
ये 70 % तो महज एक आंकड़ा है मोटा मोटा बाकी पिक्चर अभी बाकी है - देखना हो तो बोलो
यहां कमेंट्स देखकर मराठी की एक कहावत याद आई जिसका भावार्थ है "चोर के मन में सिर्फ चाँदनी"
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15 साल भ्रष्टाचार करके मप्र के बच्चों की 15 पीढियां कुपोषण से ठिगनी, नाटी, कुपोषित और बर्बाद कर दी और अब यह सरकार अंडे देने की पहल कर रही है तो विरोध कर रहें हो भाजपाईयों - शर्म तुमको आती नही
कोई आंकड़े है कि प्रदेश के कितने लोग सामिष और निरामिष भोजन लेते है, जबसे सवर्णों , बामण और तथाकथित उच्च जातियों के लोगों ने अंडे, मांस, मटन और मदिरा शुरू की - सब महंगा हो गया और निरक्षरों ने पढ़ना शुरू किया तब से किताबें महंगी हो गई - मज़ाक में जब यह कहता हूँ तो कोई गलत नही कहता, रात के अँधेरों में शहर से दूर ढाबों और होटलों में दरूओं को खोजोगे तो ये ही मिलेंगे मुर्गा चबाते हुए अंडे की भुर्जी के साथ पैग टकराते हुए
दो चार ज्यादा ही बोलने वालों का स्टिंग करना पड़ेगा, ससुरे मुर्गे की लात खाते चबाते है और बकरे की लात का सूप पीते है और बच्चों को सबसे ज्यादा और सस्ते प्रोटीन के स्रोत का विरोध करते हैं, कहाँ जाओगे पापियों बच्चों की लाश और कितनी देखने की हवस है
15 साल में आंगनवाड़ियों के भ्रष्टाचार से पेट नही भरा तुम लोगों का जो अब विध्न बनकर खड़े रहने के कुत्सित प्रयास कर रहें हो
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स्वच्छ भारत का इरादा कर लिया हमने
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सभी लोगों से निवेदन है कि रात में जो लक्ष्मी का उपहास उड़ाते हुए, सुप्रीम कोर्ट के न्याय को धता बताते हुए देर तक बम पटाखे फोड़े है और आज सुबह आसमान नही देख पाया हूँ , उसके बदले कम से कम अपने घर के सामने पड़ा कचरा उठा लें
चलिये उठिए, ब्रश बाद में करना, लुंगी बांध लीजिये और हाथ में घर भर सहित झाड़ू हाथों में लेकर सड़क पर आ जाईये वरना जो लोग धौंक देने आएंगे आज वे आपको नोबल देने में चूकेंगे नही
आज गाड़ी वाला नही आ रहा और ना ही अनिता, सुनीता, गीता , सीता, अंजू , मंजू या मोहन, चमनलाल या रामलाल - आज एक बार झाड़ू पकड़िए , मर्द बनिये और सारे खानदान को लेकर सड़क पर आईये
कचरा करें आप और उम्मीद करें कि कोई आकर निपटारा कर दें, यदि नही तो बन्द करिये हिन्दू राष्ट्र और बाकी बकलोली, मोदीजी की इज्जत रख लीजिए जो संस्कार उन्होंने 6 वर्षों में दिए है उनको तो चरितार्थ कर दीजिए भाइयों बैनों
मेरी गली में कम से कम 200 किलो कचरा होगा - उफ़्फ़, धन, वैभव और ऐश्वर्य का ऐसा नंगा नाच और दूसरी तरफ गरीबों के घर भात के दाने को तरस रहें थे - कैसा राष्ट्र है और गैर जिम्मेदार समाज - " समता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व "- बोलना, लिखना और पढ़ना ही कितना वीभत्स है आज , बाकी तो छोड़ दो
जो लोग बात करते है कि सब सामान्य है एक बार याद कर लें कि पिछले वर्षों की तुलना में बैंड वाले, ढोल वाले, मांगने वालों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ या कटौती और नही तो यह पोस्ट पढ़ते हुए दरवाज़े पर खड़े होइये - पोस्ट खत्म होने के पहले दो लोग तो दीवाली का इनाम मांगने आ ही जायेंगे
और अभी 18 नवम्बर के पहले पुरख़ुलूस जोश परवान फिर चढ़ेगा, तैयार रहें

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आओ सिखाऊं तुम्हे अंडे का फंडा
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मध्यप्रदेश में कुपोषण की स्थिति है हम सब वाकिफ हैं पिछले कई वर्षों में कुपोषण एक लाइलाज बीमारी के रूप में बढ़ा है और अभी तक लाखों बच्चे इसकी चपेट में आ चुके हैं कुपोषण से ना मात्र बच्चे नाटे या ठिगने हो रहें है, वजन में कम हो रहे हैं - बल्कि उनका मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक विकास भी नहीं हो पा रहा है - फलस्वरूप हम पिछले 20 वर्षों का ही परिदृश्य देखें तो राष्ट्रीय स्तर पर हमारे मध्यप्रदेश का अकादमिक स्तर और बच्चों के सीखने समझने की क्षमता पर बहुत बड़ा नकारात्मक असर पड़ा है, हम एक राज्य के रूप में आज भी बेहद पिछड़े, गाय पट्टी के अग्रणी राज्य है, प्रथम की असर रिपोर्ट हो ता NFHS की चारों रपट - हम पिछड़ रहें है और विभागों में आज तालमेल या योजनाओं को लेकर कन्वर्जेंस भी नही है महिला बाल विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग में - जबकि तीनों का फोकस बच्चे है
हर वर्ष बोर्ड की परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण होते बच्चे और लगातार इन बच्चों की आत्महत्या का प्रतिशत बढ़ता ही जा रहा है जो कि चिंता का बड़ा विषय है, मध्यप्रदेश में अधिकांश बच्चे जो कुपोषण से ग्रसित हैं मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं वे आदिवासी बच्चे हैं. हम सब जानते हैं कि मध्यप्रदेश में कोरकू, गौंड, भील, भिलाला, सहरिया, भारिया, मवासी, बेगा जैसी जनजातियां है - जो ना मात्र सामाजिक, आर्थिक रूप से पिछड़ी हैं बल्कि जानकारी और शिक्षा के स्तर पर भी अभी सदियों विकास और विकास के पैमानों से दूर हैं. जाहिर है ऐसे में वहां बच्चों की देखभाल और उनका लालन-पालन एक बड़ी चुनौती है.
कुपोषण इन सबको और ज्यादा बढ़ाता है . महिला बाल विकास विभाग तमाम प्रयास करने के बावजूद भी बच्चों को एक समय का ताजा पका हुआ नाश्ता और भोजन उपलब्ध नहीं करा पा रहा है, कई संस्थाओं ने महिला बाल विकास विभाग में पोषाहार के भ्रष्टाचार को पकड़कर समय-समय पर सामने लाया है , बावजूद इसके और माननीय हाई कोर्ट के आदेशों के बाद भी विभाग आज तक कोई पोषण की स्पष्ट नीति नहीं बना सका है, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं का ना होना , उनका अप डाउन करना, उनके सशक्तीकरण और क्षमता वृद्धि में समुचित प्रयास ना करना और जानबूझकर के पोषाहार जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम को नीतिगत स्तर पर निर्णय ना लेकर उपेक्षा करना सरकारों की निजी रुचि रही है.
नई सरकार चुने जाने के बाद दो परिचित विधायकों को जो मेरे मित्र भी हैं, बहुत समझदार भी हैं और अनुज भी हैं और सौभाग्य से ये दोनों पोस्ट ग्रेजुएट डॉक्टर भी हैं जो देश के बेहतरीन मेडिकल कॉलेजों से पढ़े हुए हैं, से मैंने दो माह पूर्व लम्बी बात की थी, मेल भी लिखें, बात की कि कम से कम मप्र के 89 आदिवासी ब्लॉक्स में बच्चों के पोषण के लिए भोजन में अंडा शुरू करवाएं, इन ब्लॉक्स के विधायकों के साथ बैठक कर हम पैरवी करें - क्योकि स्पष्ट रूप से आदिवासी बच्चे कुपोषण से मर रहें है पर कोई एक्शन नही हो रहा है और शासन स्तर पर किसी की नजर में बच्चे प्राथमिकता नही है क्योंकि हम उन्हें नागरिक मानते ही नही है .
केरल राज्य और दक्षिण भारत के नवोदय विद्यालयों की मेस में हफ्ते में तीन दिन चिकन और नाश्ते में अंडा दिया जा रहा है वहां सब धर्मभ्रष्ट हो गए क्या, आदिवासी घरों में अंडा खाना सामान्य भोजन और दैनंदिन व्यवहार का अंग है फिर इतनी राजनीति क्यों और मीडिया में तो कमजोर दिमाग वाले कुपोषित बैठे है जो किसी भी लल्लू पंजू का बयान छापने को ही बैठे है - अफसोस कि बच्चों के जीवन मरण के प्रश्न पर कमलनाथ सरकार महत्वपूर्ण निर्णय लेने से घबरा रही है - आखिर क्यों

उम्मीद है कि आगामी विधानसभा सत्र में हम फिर प्रयास करें, पता नही क्यों अंडा जो पोषण और प्रोटीन का श्रेष्ठ स्रोत है - राजनीति क्यों बन रहा है, कल कोई मुख्य मंत्री दवा, इंजेक्शन और सलाईन की बोतल को भी किसी व्यक्ति विशेष के दबाव में अवैध या अनैतिक या असामाजिक घोषित कर दें - काश कि बच्चे भी वोटर्स होते तो शायद अपनी बात मनवा पाते

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