उजली सुबह तेरे खातिर आएगी - साँड़ की आंख
भारतीय फिल्म उद्योग में शायद ही किसी दौर में इतनी विलक्षण फिल्में बनी होंगी जो भीड़ में अपना ध्यान इसलिये खिंचती है कि उनका फोकस खेल और सिर्फ खेल है. विज्ञापनों की भीड़ में भी एक विज्ञापन एक ताकत देने वाले प्रोडक्ट का आता है जिसमे एक वृद्ध महिला अपनी पोती को खेल के मैदान में अभ्यास करवा रही है और कहती है - "तुम्हारी मां नहीं है तो क्या हुआ मैं तो हूं" साथ ही वह यह भी कहती है कि हमारे बचपन में इतनी प्रतियोगिता नहीं थी, परंतु आज जीवन के हर दिन प्रतियोगिता ही प्रतियोगिता है . लगभग डेढ़ मिनट के विज्ञापन में वह बुजुर्ग महिला उस छोटी बच्ची को समुद्र के तट से लेकर रस्सी कूदने तक के कई कठिन अभ्यास करवाती हैं और अंत में वह बच्ची भी मेडल लेकर आती है - यह विज्ञापन सिर्फ हमें भावनात्मक रूप से नहीं जोड़ता बल्कि हमें यह भी दिखाता है कि कैसे एक महिला दूसरी महिला को याने आने वाली पीढ़ी को कठिन अभ्यास से इस मुश्किल दौर के लिए तैयार कर रही है , बहाना भले ही खेल का हो परंतु महिला महिला को जिस तरह से सशक्त कर रही है वह अनूठा है.
खेल को लेकर बनी फिल्म दंगल भी महिला और लड़कियों के पारंगत होने की कहानी है जिसमें बहुत साधारण मध्यमवर्गीय परिवार से लड़कियां कुश्ती जैसा खेल खेलने आती हैं , किस तरह से समाज में अपमानित होती हैं और फिर बाद में जीत का जो सिलसिला चालू होता है वह उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेडल्स की दौड़ पर जाकर खत्म करता है.
खेल को लेकर एक और फिल्म बनी है जिसमें मिल्खा सिंह के जीवन वृत्त के बारे में बहुत विस्तार से कहानी बताई गई है कि कैसे एक किशोर जीवन को जीतने के लिए दौड़ना शुरू करता है और बाद में दुनिया के तमाम देशों को हराते हुए वह ना सिर्फ जीवन की दौड़ जीतता है - बल्कि देश का नाम भी वह अंतरराष्ट्रीय फलक पर ऊंचा करता है.
लड़कियों को लेकर एक फिल्म शाहरुख खान ने बनाई थी चक दे इंडिया - जिसमें लड़कियां किस तरह से हॉकी जैसा खेल खेलती है और समाज उन्हें किस तरह से देखता है परंतु सारी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए लड़कियां सफ़ल ही नही होती है , बल्कि अंतरराष्ट्रीय मैदान पर जाकर अपने घर - परिवार और भावनात्मक चिंताओं को छोड़कर देश के लिए मेडल लेकर आती है . मेरीकॉम भी ऐसी ही एक उत्कृष्ट फ़िल्म थी
शायद यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन फिल्मों की वजह से समाज में आज लड़कियों की स्थिति थोड़ी मजबूत हुई है , लड़कियां सुबह जो झुंड में हंसते हुए स्कूल जाते हुए दिखती है - इसी का परिणाम है और खेल के मैदानों में दौड़, खो-खो , बास्केटबॉल , वॉलीबॉल , कबड्डी, शतरंज, फुटबॉल, कुश्ती, निशानेबाजी से लेकर हॉकी, क्रिकेट और रग्बी जैसे खेलों में भी महिलाएं अब मैदान में अपना हुनर दिखा रही हैं. इन फिल्मों ने निश्चित ही खेलों के प्रति भी एक माहौल बनाया है और महिलाओं की खेलों में भागीदारी क्या और कैसे हो इस बारे में भी एक खांका बनाया है - जिससे प्रभावित होकर ना मात्र बड़े शहरों की लड़कियां , बल्कि छोटे कस्बों और गांव की लड़कियां भी अब खेलों की ओर उन्मुख हुई हैं और यह एक बड़ी सकारात्मक बात है.
पिछले दशक की फिल्में निश्चित ही भारतीय फिल्म इतिहास की अनमोल धरोहर है और एक बहुत बड़े बदलाव की सूचक भी जिसका हमें स्वागत करना चाहिए और देखना चाहिए. इसी क्रम में तुषार हीरानंदानी के निर्देशन में आई फिल्म "साँड़ की आंख" एक बहुमुखी फिल्म है - जिसमें भूमिका पेडणेकर और तापसी पन्नू ने कमाल का अभिनय किया है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाकों में जिस तरह के गांव हैं, वहां की संस्कृति है और दमन के किस्से हैं - उस सबके बीच एक स्त्री की अपनी भूमिका है. यहाँ स्त्रियां सिर्फ खेतों में काम करती है , घर में खाना बनाती हैं , बच्चे जनति हैं और घर और गांव की चौहद्दी में रहकर अपनी जिंदगी खपा देती हैं, परंतु प्रकाशवती और उसकी जेठानी इन सब दायरों को तोड़ कर के बाहर निकलना चाहती हैं. ये सिर्फ गांव की सीमाएं नहीं तोड़ती, बल्कि मर्यादा में रहकर यानी पुरुष प्रधान समाज की मर्यादा में रहकर अपने पतियों और जेठ को किस तरह से घुमाकर दुनिया घूम आती है - मालूम नहीं पड़ता.
उनका संघर्ष सिर्फ अपने लिए नहीं , अपनी अस्मिता स्थापित करने के लिए नहीं बल्कि घर में जो बेटियां हैं उन्हें बड़ा करने उनके सामने नए प्रकार के कैरियर रखने और नौकरी के लिए जीत और प्रयास करने के भी हथकंडे हैं. बिहार , उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश , राजस्थान जैसे राज्यों में महिलाओं की स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों में कितनी दुखद है - यह बताने की आवश्यकता नहीं है. जातिवाद , सामंतवाद और घर परिवार में परंपराओं के नाम पर किस तरह से महिलाओं को दबाया और सताया जाता है - यह समझने के लिए आप किसी भी समुदाय की महिला से बात कर ले, समझ ले तो आपको स्थिति स्पष्ट हो जाएगी.
उत्तर प्रदेश , हरियाणा और राजस्थान की सीमा से सटे गांवों में जाट, गुर्जर, बिश्नोईयों के बीच में जो ताऊ और ताई का कल्चर है - उसमें महिलाओं की दृष्टि, अक्ल और सामर्थ्य पर ना मात्र सवाल किए जाते हैं , बल्कि उन्हें सिर्फ और सिर्फ मजदूर या जानवर के रूप में समझा जाता था. फिल्म की शुरुआत आपातकाल के समय से होती है जो नसबंदी करने के लिए जाना गया था - किस तरह से गांव का एक लड़का डॉक्टरी पढ़ने दिल्ली जाता है, परंतु वह पढ़ाई पूरी ना करते हुए गांव में वापस लौट कर आता है और गांव के किशोरों और युवाओं के लिए शूटिंग अर्थात निशानेबाजी सीखाने का एक अड्डा बनाता है - जहां पर वह सीमित साधनों में इन किशोरों और युवाओं को शूटिंग करना सिखाएगा. यह संकल्प लेकर केंद्र शुरू करता है परंतु बच्चों की और युवाओं की रुचि नहीं होती. उन्हें लगता है कि यह गत्ते पर निशाने लगाना महाबोरिंग काम है और वे उसका मजाक उड़ाते हुए उस केंद्र से दूर चले जाते हैं. बागपत जैसे जिले के गांव में शूट की गई यह फ़िल्म उप्र राज्य की गरीबी और हालात का भी जिक्र करती है.
प्रदीप डॉक्टर अपनी हिम्मत नहीं हारता, वह गांव में लगातार पैरवी करता रहता है कि यदि बच्चे शूटिंग सीख गए तो उन्हें स्पोर्ट्स कोटे से सरकारी नौकरी मिल जाएगी - परंतु कोई उसकी बात समझने को तैयार नहीं होता. गांव का सरपंच विशुद्ध जड़ बुद्धि का है और उसकी निगाह में स्त्रियों की औकात सिर्फ घर, खेत, पति को खुश करना और बच्चे जनने तक ही हैं. उसके अपने संयुक्त परिवार में ढेरों लड़कियां हैं परंतु वह लड़कियों को यह सब सीखने की इजाजत नहीं देता उसका स्पष्ट मानना है कि बाहर जाने से और नौकरी करने से समाज में परिवार की इज्जत खत्म हो जाती है. पुराने मूल्यों और परंपरा की दुहाई देते हुए फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जहां महिलाओं को उनकी बातचीत को, उनकी आवाज को, उनकी जायज मांगों को भी दबाया जाता है - परंतु अपने छोटे भाई की पत्नियां यह जोखिम उठाकर उस डॉक्टर के शूटिंग सिखाने वाले केंद्र पर जाती हैं और अपनी बच्चियों को सीखने के लिए प्रेरित करती हैं परंतु बच्चियां सीखने से मना कर देती हैं। वे बड़े भावुक होकर अपने बच्चों से कहती हैं कि तुमने मुझसे कपड़े धोना सीखा, खाना बनाना सीखा, बर्तन माँजना सीखा - सारे काम सीखे तो यदि हम यह सीखेंगे - तुम भी शूटिंग करना या निशानेबाजी लगाना सीख जाओगी, पहली ही बार में वह परफेक्ट निशान लगाती हैं जिसे देखकर डॉक्टर अचंभित हो जाता है और लड़कियों को भी प्रोत्साहन मिलता है. ग्रामीण परिवेश में डॉक्टर लड़कियों को एक एक पका हुआ आम देता है जो उनका पुरस्कार है. धीरे धीरे किस तरह से दोनों महिलाएं अपने परिवार को अलग-अलग ट्रिक का इस्तेमाल करते हुए बेटियों के साथ देश के विभिन्न भागों में जाती हैं और पुरस्कार जीतकर लाती हैं - यह देखना रोचक और शैक्षिक है और ये पुरस्कार बहुत गुप्त रखे जाते हैं. बहुत पुरानी एक संदूक में मेडल इकट्ठे किए जाते हैं और धीरे-धीरे वह संदूक मेडल से भर जाता है.
दोनों महिलाओं की दिनचर्या और वेशभूषा तो ठेठ ग्रामीण है परंतु उनकी सोच हजार वर्ष आगे की है जहां वे अपनी बेटियों के लिए अच्छा भविष्य बुनने की तैयारी करती हैं और इसके लिए खुद जोखिम उठाकर परिवार के पुरुषों को उल्लू बनाकर देशभर में घूमती हैं. धीरे-धीरे वे इतनी प्रसिद्ध हो जाती हैं कि निशानेबाजी और इन दोनों का नाम सम्पूरक जाता है. इसी बीच में अपनी लड़कियों को भी अलग-अलग प्रतियोगिताओं में ले जाती हैं और बच्चियां भी दोनों पुरस्कार जीतना शुरू करती हैं .
तुषार ने एक ओर जहां ठेठ ग्रामीण परिवेश दिखाया है जिसमें खेती है, घर परिवार है, जानवर है, गांव हैं - वहीं दूसरी ओर बड़े शहरों के स्टेशन हैं, शूटिंग के बड़े हॉल हैं , उच्च समाज है, पढ़े-लिखे युवा हैं - जो ग्रामीणों का या ग्रामीण महिलाओं की वेशभूषा देखकर हंसी उड़ाते हैं, अंग्रेजी बोलते हैं और उनकी योग्यता पर शक शुबहा करते हैं - बावजूद इस सबके दोनों वृद्ध महिलाएं पुरस्कारों की एक श्रृंखला जीतना शुरू करती हैं और धीरे-धीरे उन सभी स्थापित लोगों को पछाड़ते भी चलती हैं जो अभी तक इस प्रतियोगिता के शूरवीर माने जाते थे. इसमें एक डीआईजी है, एक अलवर की महारानी है और बाकी भी कई कलाकार हैं.
इस दौरान इन दोनों महिलाओं को बहुत सारे फर्क अपने जीवन और इन लोगों के जीवन के समझ में आते हैं , जेंडर की बहस के साथ तुषार एक परिप्रेक्ष्य भी देते है, वे उकसाते है कि क्या पति पत्नी के रिश्ते को पुनः परिभाषित नही किया जाना चाहिए. दोनो महिलाओं का यह विश्वास दृढ़ होते जाता है कि लड़कियों को पढ़ना आवश्यक है , हुनर सीखना आवश्यक है , खेलना आवश्यक है और पुरस्कार जितना आवश्यक है - ताकि वे अच्छी सरकारी नौकरी पा सकें. पूरी फिल्म सरकारी नौकरी के इर्द-गिर्द घूमकर सारा संघर्ष कहती है. सरकारी नौकरी के साथ ही साथ खत्म होती है, वे कहती हैं कि हवाई जहाज, समुद्र रेल और दुनिया यदि नहीं देखी तो जीवन में कुछ नहीं देखा और इसे देखने के लिए जरूरी है कि गांव की सीमा छोड़कर लड़कियां बाहर जाएं, नित नया सीखे और ढेर सारे इनाम जीते.
अंत में थोड़ा सा फिल्मी ड्रामा है जब लड़कियों को 45 दिन के प्रशिक्षण कैंप के लिए दिल्ली बुलावा आता है और ये महिलाएं एक तरह का कन्फेशन करते हुए अपने घर के पतियों और सरपंच के आगे घुटने टेक देती हैं और कह देती है कि यह सारे मेडल को इनाम उन्होंने जीते हैं और यह भी बताती हैं कि किस तरह से प्रवचन और मंदिर दर्शन के नाम पर वे घर से लगातार बाहर रही बरसो बरसो और अब बारी है - इन लड़कियों को प्रशिक्षण कैंप में भेजने की. घर के पुरुष तैयार नहीं होते तो गांव में एक पंचायत बुलाई जाती है जहां पर वे अपने वाक चातुर्य और रणनीति से लड़कियों को कैंप में भेजने के लिए सफल होती हैं . बाद में घटना क्रम में कई सारी चीजें होती है और उनमें से एक बेटी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सिल्वर मेडल लेकर आती है.
फिल्म में मसाला के लिए आगजनी , गुस्सा, बदला आदि ऐसे नुस्खे भी हैं जो ग्रामीण परिवेश में बहुत सहेज तरीके से देखने को मिल सकते हैं - वह चाहे उत्तर प्रदेश हो या बिहार या केरल. फिल्म बहुत ही उम्दा और जरूरी हस्तक्षेप है इस मायने में कि किस तरह से दो बुजुर्ग महिलाएं अपने परिवार की लड़कियों को आगे लाने के लिए कड़ा संघर्ष करती हैं और परंपरागत पुरुष प्रधान समाज में लड़ाई करके लड़कियों को ऊंचे मकाम हसिल करवाती हैं और खुद भी ऊँचे स्थान पर पहुंचती है.
यह फिल्म अनिवार्य रूप से किशोर लड़कियों और युवा लड़कियों को दिखाई जानी चाहिए , साथ ही उन सभी पुरुषों को भी देखना चाहिए जो मर्द होने की ठसक में महिलाओं के अधिकार, उनके बोलने की शक्ति और उनकी ताकत में विश्वास में रखकर उन्हें महज जानवर समझ कर या बच्चे जनने की मशीन समझकर घर की चारदीवारी में बंद रखते हैं. यह एक बेहतरीन फिल्म है जो ऊपर वर्णित चार फिल्मों के आगे जाती हैं - सबसे अच्छी बात यह है कि इस पूरी फिल्म में शिक्षा का अर्थ व्यवहारिक जीवन और परिवेश से सीख कर आगे बढ़ने को लेकर दिया गया है, ना कि किताबों और परंपरागत पाठ्यक्रम में ठीक कर कुछ अधिकारी टाइप बनने की बात हो.
जरूरी यह है कि ऐसी फिल्मों का प्रचार प्रसार ज्यादा होना चाहिए ताकि समाज में चेतना के स्तर पर बहुत ज्यादा काम हो और जो असली लड़कियां हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में दूर-दूर तक कष्टों के साथ अपनी जिंदगी बिता रही है , उन तक यह बात और यह फिल्म में पहुंचे - चाहे वह दंगल की बात हो मिल्खा सिंह की बात हो सांड की आंख की बात हो आने वाली या हॉकी खेलने वाली लड़कियों की बात हो चक दे इंडिया के बहाने
फिल्म में दृश्यांकन, फोटोग्राफी और प्रकाश संयोजन बहुत ही अच्छा है , निर्देशन कसा हुआ है और फिल्म के गीत संगीत बरबस आपको ले जाते हैं एक वास्तविक लोक में , लोक भाषा में रचे लोकगीत बहुत ही मीठे हैं और बहुत खूबसूरती के साथ इन्हें फिल्माया गया है, राजशेखर ने जो गीत लिखें है वे अदभुत है और उनमें समय के साथ मिट्टी की भी सौंधी खुशबू है. राजशेखर पहले भी तनु वेड्स मनु के गीत लिखकर ख्याति पा चुके है. पूरी फिल्म कम बजट की जरूर है - परंतु लगता नहीं कि उस में कहीं भी किसी भी स्तर पर कोई कमी है. भूमिका और तापसी ने जो काम किया है वह उनकी अदाकारी का अप्रतिम उदाहरण है और उम्मीद की जाना चाहिए कि ये दोनों अभिनेत्रियां आने वाले समय में भारतीय फिल्म जगत की श्रेष्ठ अभिनेत्रियों के रूप में उभर कर सामने आएंगी. अनुराग कश्यप और निधि परमार के प्रोडक्शन में बनी यह फिल्म तुषार हीरानंदानी ने बहुत अच्छे से निर्देशित की है और यह भी दिखाता है कि तुषार को ग्रामीण क्षेत्र की, सामंतवाद की , ग्रामीण राजनीति की काफी अच्छी समझ है और वे खेलों के प्रशिक्षण से भी बहुत अच्छी तरह से जुड़े हुए हैं. बहुत कसे हुए निर्देशन के साथ प्रकाश व्यवस्था और किरदारों के साथ वे हर जगह न्याय करते नजर आते हैं.
यह फिल्म जरूर देखी हो जानी चाहिए, क्योंकि यह सिर्फ फिल्म नहीं - यह एक इस समय का बड़ा दस्तावेज भी है जो आधी आबादी को,उसके संघर्ष को, उनकी चुनौतियों को दर्शा रहा है - बल्कि उन्हें नई राह दिखा कर प्रोत्साहित भी कर रहा है और इसी में से कुछ लड़कियां नहीं - बल्कि बहुत सारी लड़कियां निकलेंगी -जो भारत का नाम समूचे विश्व में ऊंचा करेंगी और स्त्री होने के मायने भी संसार को दिखाएंगी
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