किसी की जान गई और आपकी अदा ठहरी
45.38 मिनिट्स की यह फ़िल्म देखकर आप असगरी बाई को समझ सकते है
ध्रुपद संगीत की इस विलक्षण गायिका से हुई टीकमगढ़ की एक सुबह की मुलाकात आज ना जाने क्यों बहुत याद आई
उनकी हंसी, डांट और कहना कि यदि सुर दिल में नही तो ईश्वर को कहां से पायेगा लड़के
बात 1992 की है शायद जब किसी काम से डाइट कुंडा ( टीकमगढ़) में गया था तो जेहन में था कि वे इसी शहर में रहती है, उनका जन्म अगस्त 1918 में बिजावर जिला छतरपुर में हुआ था, भिंड के गोहद के उस्ताद जहूर खां साहब ने उनकी माँ से उन्हें पांच वर्ष की उम्र में मांग लिया था कि यह संगीत में बड़ा नाम करेगी
असगरी बाई के जीवन में जहूर खां साहब, राजा वीरदेव सिंह जूदेव और बाबा ब्रह्मचारी का बड़ा प्रभाव रहा और जो ध्रुपद उन्होंने गाया है वह कोई नही गा सकता
यह संयोग ही था कि यह फ़िल्म बनने के बाद 87 वर्ष की उम्र में यानी 9 अगस्त 2006 को उनकी मृत्यु हो गई, फ़िल्म के आखिर में वे जिस अंदाज में कहती है इससे लगता है कि अपनी मृत्यु का आभास उन्हें हो गया था, पदम् पुरस्कारों समेत उन्हें ढेरों पुरस्कारों से नवाजा गया था - पर आखिरी दिनों में बेहद गरीब रही और दुखी भी पर उनकी बेलौस हंसी और बिंदास स्वभाव से वे कभी नही हटी
असगरी बाई को आज याद कर रहा हूँ तो मुझे राम राजा के आंगन - ओरछा, में सुनी हुई एक बेजोड़ महफ़िल याद आती है जब उन्होंने अपने उस्ताद की शिक्षा का तरीका, काजल लगाने पर बारह साल की उम्र में सिर मुंडवा देने की कहानी और 84 मात्राएं गलत गिनने पर उंगलियों को तोड़ने की बात बताई थी और माईक पर उनकी पोपले मुँह की खर खर करती हंसी पांडाल में देर तक गूंजती रही थी
असगरी बाई आप ने जो मुकाम हासिल किया - वो कोई नही कर पायेगा और राम राजा का मन्दिर हो, टीकमगढ़ का मंदिर या बिजावर की भूमि या पन्ना शहर की गलियां - सब आपको हमेंशा याद करते रहेंगे
गायक हमेंशा ज़िंदा रहते है - सूरज डूबने से रोशनी खत्म नही होती - इल्म के उजालों में दिलों - दिमाग़ को वो रोशनी हर अँधेरों को चीरकर हमेंशा झंकृत करती रहती है
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